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________________ नरक ५७२ २. नरक गतिके दुःखोका निदेश गति सो निरप गति जानना। इस प्रकार निरुक्ति द्वारा नारकगतिका लक्षण कहा। 3. नारकियोंके भेद पं. का./मू./११८ णेरड्या पुढविभेनगदा। रत्नप्रभा आदि सात पृथिवियोके भेदसे (दे० नरक/५) नारकी भी सात प्रकारके है। (नि. सा./मू./१६)। ध.७/२,१,४/२६/१३ अधवा णामवणदव्वभावभेएण णेरइया चउठिबहा होंति। = अथवा नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे नारकी चार प्रकार के होते है (विशेष दे०निक्षेप/१)। ४. नाभीके भेदोंक लक्षण दे, नय/II/१/८ (नै गम नय आदि सात नयों की अपेक्षा नारकी कहनेकी विवक्षा)। 1.७/२,१४/30/४ कम्मणेरइओ णाम णिरयगदिसहगदकम्मदव्बसमूहो। पासपंजरजंतादीणि णोकम्मदवाणि णेरड्यभावकारणाणि णोकम्मदवणेरहओ णाम । नरकगतिके साथ आये हुए कर्मद्रव्यसमूहको कर्मनार की कहते है। पाश, पंजर, यन्त्र आदि नोकर्मद्रव्य जो नारकभावकी उत्पत्तिमै कारणभूत होते है, नोकर्म द्रव्यनारकी है। ( शेष दे० निक्षेप)। ।३२५। पकते तेल में फेंकते हैं ।३२६। शीतल जल समझकर यदि वह वैतरणी नदी में प्रवेश करता है तो भी वे उसे छेदते हैं ।३२७-३२८। कछुओं आदिका रूप धरकर उसे भक्षण करते हैं ।३२६। जब आश्रय हूँढ़नेके लिए बिलोंमें प्रवेश करता है तो वहाँ अग्निकी ज्वालाओंका सामना करना पड़ता है।३३०॥ शीतल छायाके भ्रमसे असिपत्र वनमें जाते है ।३३१। वहाँ उन वृक्षोंके तलवारके समान पत्तोंसे अथवा अन्य शस्त्रास्त्रोंसे छेदे जाते हैं ।३३२-३३३। गृद्ध आदि पक्षी बनकर नारकी उसे चूर-चूट कर खाते है।३३४-३३॥ अंगोपांग चूर्ण कर उसमें क्षार जल डालते हैं ।३३६। फिर खण्ड-खण्ड करके चूल्होंमें डालते हैं । ३३७. तप्त लोहेकी पुतलियोंसे आलिंगन कराते हैं ।३३८) उसीके मांसको काटकर उसीके मुख में देते हैं ।३३६। गलाया हुआ लोहा व ताँबा उसे पिलाते हैं ।३४०। पर फिर भी वे मरणको प्राप्त नहीं होते है (दे० नरक/३) ३४१। अनेक प्रकारके शस्त्रों आदि सपसे परिणत होकर वे नारकी एक दूसरेको इस प्रकार दुख देते हैं ।३४२। (भ. आ./मू./१५६५-१५८०), (स, सि./२/१/२०६/७), (रा. वा./३/२/८/ ३१), (ह. पु./४/३६३-३६५), (म. पु./१०/३८-६३), (त्रि. सा./१८३१६०), (ज. प./११/१५७-१७७), ( का.अ/३६-३६), (ज्ञा./३६/६१-७६) (वसु. श्रा./१६६-१६६) स. सि./३/४/२०८/३ नारकाः भवप्रत्ययेनावधिना दूरादेव दुःखहेतूनवगम्योत्पन्नदुःखाः प्रत्यासत्तौ परस्परालोकनाच्च प्रज्वलितकोपाग्नयः पूर्व भवानुस्मरणाच्चातितीबानुबद्धवैराश्च श्वशृगालादिवत्स्वाभिधाते प्रवर्तमानः स्वविक्रियाकृत.. आयुधैः स्वकरचरणदशनैश्च छेदनभेदनतक्षणदंशनादिभि. परस्परस्यातितीव्र दुःखमुत्पादयन्ति।-नारकियोंके भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है। उसके कारण दूरसे ही दुःखके कारणोंको जानकर उनको दुख उत्पन्न हो जाता है और समीपमें आनेपर एक दूसरेको देखनेसे उनकी कोपाग्नि भभक उठती है । तथा पूर्वभवका स्मरण होनेसे उनकी वैरकी गॉठ और दृढ़तर हो जाती हैं, जिससे वे कुत्ता और गीदड़के समान एक दूसरेका घात करनेके लिए प्रवृत्त होते हैं। वे अपनी विक्रियासे अस्त्रशस्त्र बना कर (दे० नरक/३) उनसे तथा अपने हाथ पाँव और दाँतोंसे छेदना, भेदना, छीलना और काटना आदिके द्वारा परस्पर अति तीव दुःखको उत्पन्न करते हैं । (रा. वा./३/४/१/१६५/४), (म. पु./१०/४०,१०३) २. नरक गतिके दुःखोंका निर्देश १. नरकमें दुःखोंके सामा य भेद त. सू /३/४-५ परस्परोदीरितदुरवा ।४। संक्लिष्टासुरोदीरितदुखाश्च प्राक चतुकः ।। -वे परस्पर उत्पन्न किये गये दुखवाले होते हैं। ।४। और चौथी भूमिसे पहले तक अर्थात पहिले दूसरे व तीसरे नरक में संक्लिष्ट असुरोके द्वारा उत्पन्न क्येि दुःखवाले होते है ।। त्रि. सा./१६७ खेतजणि असाद सारीरं माणसं च असुरकयं । भुंजंति जहावसरं भवद्विदी चरिमसमयो त्ति १६७४ -क्षेत्र, जनित, शारीरिक, मानसिक और असुर कृत ऐसी चार प्रकारकी असाता यथा अवसर अपनी पर्यायके अन्तसमयपर्यन्त भोगता है। (का. अ./मू./ ३१)। २. शारीरिक दुःख निर्देश १. नरकमें उत्पन्न होकर उछलने सम्बन्धी दुःख ति.प./२/३१४-३१५ भीदीए कंपमाणो चलिदं दुक्रवेण पट्ठिओ संतो। छत्तीसाउहमज्झे पडिदूणं तत्थ उप्पलइ ।३१४॥ उच्छेहजोयणाणि सत्त धणू छस्सहस्सपंचसया । उप्पलइ पढमखेत्ते दुगुणं दुगुणं कमेण सैसेसु ।३१५। वह नारकी जोव (पर्याप्ति पूर्ण करते ही) भयसे काँपता हुआ बडे कष्टसे चलनेके लिए प्रस्तुत होकर, छत्तीस आयुधोंके मध्यमे गिरकर बहाँसे उछलता है ।३१४। प्रथम पृथिवीमें सात योजन ६५०० धनुष प्रमाण ऊपर उछलता है। इससे आगे शेष छः पृथिवियों में उछलनेका प्रमाण क्रमसे उत्तरोत्तर दूना दूना है।३१५॥ (ह. पु./४/३५५-३६१) (म. पु./१०/३५-३७) (त्रि. सा./१८१-१२) (ज्ञा./३६/१८-१६)। २. परस्पर कृत दुःख निर्देश ति. प./२/३१६-३४२ का भावार्थ - उसको वहाँ उछलता देखकर पहले नारकी उसकी ओर दौडते हैं ।३१६। शस्त्रों, भयंकर पशुओं व वृक्ष नदियों आदिका रूप धरकर (दे० नरक/३) ३१७ उसे मारते हैं व खाते हैं ।३२२। हजारों यन्त्रों में पेलते हैं ।३२३। साकलोंसे बंधते हैं व अग्निमें फेंकते हैं ।३२४१ करोतसे चोरते हैं. व भालोंसे बींधते हैं ३. आहार सम्बन्धी दुःख निर्देश ति, प./२/३४३-३४६ का भावार्थ-अत्यन्त तीखी व कड़वी थोडी सी मिट्टीको चिरकालमें खाते हैं ।३४३। अत्यन्त दुर्गन्धवाला व ग्लानि युक्त आहार करते हैं ।३४४-३४६। दे० नरक/१६ (सातों पृथिवियोंमे मिट्टीकी दुर्गन्धीका प्रमाण) ह. पु./४/३६६ का भावार्थ-अत्यन्त तीक्ष्ण खारा व गरम वैतरणी नदी का जल पीते हैं और दुर्गन्धी युक्त मिट्टीका आहार करते है। त्रि. सा./१६२ सादिकुहिदातिगंधं सणिमणं मट्टियं विभुंजंति । धम्मभवा बंसादिसु असंवगुणिदासह तत्तो। १९२१ =कुत्ते आदि जीवोंको विष्टासे भी अधिक दुर्गन्धित मिट्टीका भोजन करते हैं । और वह भी उनको अत्यन्त अल्प मिलती है, जब कि उनकी भूख बहुत अधिक होती है। ४. भूख-प्यास सम्बन्धी दुःख निर्देश ज्ञा./३६/७७-७८ बुभुक्षा जायतेऽत्यर्थ नरके तत्र देहिनाम् । यो न शामयितुं शक्तः पुद्गलप्रचयोऽखिलः १७७। तृष्णा भवति या तेषु वाडवाग्निरिवोल्वणा । न सा शाम्यति नि:शेषपीतैरप्यम्बुराशिभिः ।७८। -नरकमें नारकी जीवोंको भूख ऐसी लगती है, कि समस्त पुद्गगलोंका समूह भी उसको शमन करने में समर्थ नहीं ७७१ तथा वहाँपर तृष्णा बड़वाग्निके समान इतनी उत्कट होती है कि समस्त समुद्रोंका जल भी पी ले तो नहीं मिटती (७८], जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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