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________________ नय तं मिच्या विशेसो भए सम्मा २६ उफेओ जीवाजी सो इह सपरावभासगो भणिओ । तस्स य साहणहेऊ उबयारो भणिय अत्थे |२००१ ज ओ भणिदो साहम अभेदपरमो तह वारी जाहरामऊ अनयारे जो दह सुदेश भणियो जाणदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्ध' । तं सुयकेवलिरिसिणो भणति सम्पदीप २८३ पनवारेण विजाह सम्मगुरू जे पर दव्वं । सम्मगणिच्छय तेण वि सइय सहावं तु जाणतो | २१० ण दुनय पालो मिच्या पिसव्य सिद्धियरा सियससमारूढं जिणवयणविविग्गयं सुद्ध २१२१ प्रश्न- व्यवहारमार्ग कोई मार्ग नहीं है, क्योंकि शुभाशुभरूप वह व्यवहार वास्तवमें मोह है, ऐसा आगमका वचन हैं। अन्य ग्रन्थों में कहा भी है कि 'निज द्रव्यके जाननेके लिए ही जिनेन्द्र भगवान्ने छह द्रव्योंका कथन किया है, इसलिए केवल पररूप उन छह द्रव्योंका जानना सम्यज्ञान नहीं है । (दे० द्रव्य /२/४ ) । उत्तर- आपकी युक्ति सुन्दर नहीं है, क्योंकि परद्रव्योंको जाने बिना उसका स्वसमयपना मिथ्या है, उसकी चेतना शून्य है, और उसका ज्ञायकभाव भी मिथ्या है इसीलिए अपरको जाननेके कारण ही उस जीवस्वभावको उपचरित भी कहा गया है ( दे० स्वभाव ) १२८५। क्योंकि कहा गया वह जीवका उपचरित स्वभाव व्यवहार है, इसीलिए वह मिथ्या नहीं है, बल्कि उसी स्वभावकी विशेषताको दर्शानेवाला है (दे० नय / V/७/१ ) 1२६ । जीवका शुद्ध स्वभाव ध्येय है। और वह स्व पर प्रकाशक कहा गया है । (दे० केवलज्ञान / ६; ज्ञान /7 / ३ दर्शन / २ ) । उसका कारण व हेतु भी वास्तव में परपदार्थों में किया गया ज्ञेयज्ञायक रूप उपचार ही है ।२८७| जिस प्रकार अभेद व परमार्थ पदार्थ में गुण गुणीका भेद करना सभूत है, उसी प्रकार अनुपचार अर्थात् अबद्ध व अस्पृष्ट तत्त्वमें परपदार्थोंको जाननेका उपचार करना भी सद्भत है २८८ आगम में भी ऐसा कहा गया है कि जो इसके द्वारा केवल को जानते हैं वे केवली हैं, ऐसा सोचको प्रकाशित करनेवाले ऋषि अर्थात जिनेन्द्र भगवान् कहते हैं । ( दे० श्रुतकेवली / २ ) |२८| सम्यक् निश्चय के द्वारा स्वकीय स्वभावको जानता हुआ वह आत्मा सम्यक रूप उपचार से परद्रव्यों को भी जानता है | २०| इसलिए अनेकान्त पक्षको सिद्ध करनेवाला नय पक्ष मिथ्या नहीं है, क्योंकि जिनवचनसे उत्पन्न 'स्यात्' शब्द से आलिंगित होकर वह शुद्ध हो जाता है । ( दे० नय / II ) |२२| ५. दोनोंकी सापेक्षताका कारण व प्रयोजन भा० २०७२ Jain Education International ५६९ ... V निश्चय व्यवहार नय सर्वावलोकने द्रव्यस्यान्यत्वानन्यत्वं च न विप्रतिषिध्यते । वस्ततः सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक होनेसे, वस्तुका स्वरूप देखनेवालोके क्रमशः सामान्य और विशेषको जाननेवाली दो आँखें है-व्यार्थिक और पर्यायार्थिक (या निश्चय व व्यवहार) । इनमें से पर्यायार्थिको सर्वथा बन्द करके, जब केवल या थिंक (निश्चय) के द्वारा देखा जाता है. तन यह सब जीव द्रव्य है' ऐसा भासित होता है । और जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा बन्द करके, केवल पर्यायार्थिक ( व्यवहार ) चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब वह जोव द्रव्य ( नारक तिर्यक् आदि रूप ) अन्य अन्य प्रतिभासित होता है। और जब उन दोनों आँखों को एक ही साथ खोलकर देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा उसमें व्यव स्थित (नारक तिर्यक आदि विशेष भी तुम्यकालमें ही दिखाई देते हैं। ) न कार्ये टार्थेन परिन आत्माच पादान कारणं भवति तथापि सहकारिकारणेन विना न सेत्स्यतीति सहकारिकारणप्रसिद्धयर्थं निश्चयव्यवहारयोरविनाभावित्वमाह । यद्यपि मोक्षरूप कार्यार्थ निश्चल नमसे जाना हुआ आमा आदि उपादान कारण तो सबके पास हैं, तो भी वह आत्मा सहकारी कारण बिना मुक्त नहीं होता है । अतः सहकारी कारण - की प्रसिद्धि के लिए, निश्चय व व्यवहारका अविनाभाव सम्बन्ध बतलाते हैं । प्र. सा./त.प्र / १९४ सर्वस्य हि वस्तुन सामान्यविशेषात्मकत्वात रूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेष परियन्ती किल चषी, व्यार्थिक पर्यायार्थिकं चेति तत्र पर्यायार्थिकमेकान्त निमीलितं द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति । यदा तु दाधिकमेकान्तनिमीलितं ।... पर्यायार्थिकेनाल सदा अन्यदन्यत्प्रतिभाति यदा तु उभे अपिकासोन्मीलिये विधाय तत इतदजीवसामान्य जीवसामान्ये व्यवस्थिता... विशेवाश्च तुल्यकालनेवालोक्यन्ते तर एकचरक्तोकनमेदेशावलोकन, द्विचक्षुरवतो सर्वात । ततः जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश वहाँ एक जखमे देखना एकदेशातोकन है और दोनों आँखोंसे देखना सर्वावलोकन है। इसलिए सर्वावलोकनमें प्रत्यके अन्यस्त्व व अनन्यस्व विरोधको प्राप्त नहीं होते। (विशेष दे० नय // २) ( स.सा./ता वृ./११४/१७४/११) । नि.सा./ता.वृ./१०० मे खलु निश्चयव्यवहारनययोर विरोधेन जानन्ति ते खलु महान्त समस्तशास्त्रहृदयवेदिनः परमानन्दवीतरागसुखाभिलाषिण.... शाश्वत सुखस्य भोक्तारो भवन्तीति । - इस भागवत शास्त्रको जो निश्चय और व्यवहार नयके अविरोधसे जानते हैं वे महापुरुष, समस्त अध्यात्म शास्त्रोंके हृदयको जाननेवाले और परमानन्दरूप वीतराग सुखके अभिलाषी, शाश्वत सुखके भोक्ता होते हैं। और भी देखो नय/ II - ( अन्य नयका निषेध करनेवाले सभी नय मिथ्या हैं । ) ६. दोनोंकी सापेक्षताके उदाहरण दे० उपयोग/17/14 अनुभव /५/- सम्यन्दृष्टि जीवोंको अल्पभूमिकाओंमें शुभोपयोग ( व्यवहार रूप शुभोपयोग ) के साथ-साथ शुद्धोपयोगका अंश विद्यमान रहता है। दे० संबर / २ साधक दशामें जीवकी प्रवृत्तिके साथ निवृत्तिका अंश भी विद्यमान रहता है, इसलिए उसे आसन व संवर दोनों एक साथ होते हैं । दे० छेदोपस्थापना / २ संयम यद्यपि एक ही प्रकारका है, पर समता व व्रतादिरूप अन्तरंग व बाह्य चारित्रको युगपतता के कारण सामायिक व छेदोपस्थापना ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है । दे० मोक्षमार्ग/३/९ आत्मा यद्यपि एक शुद्ध-बुकभाव मात्र है, पर वही आत्मा व्यवहारकी विमक्षासे दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप कहा जाता है। दे० मोक्षमार्ग ४ मोक्षमार्ग यद्यपि एक व अभेद ही है, फिर भी विवक्षावश उसे निश्चय व व्यवहार ऐसे दो भेदरूप कहा जाता है। नोट - ( इसी प्रकार अन्य भी अनेक विषयों में जहाँ-जहाँ निश्चय व्यवहारका विकल्प सम्भव है वहाँ वहाँ यही समाधान है | ) ७. इसलिए दोनों ही नय उपादेव हैं दे० नय / V/5/8 दोनों ही नय प्रयोजनीय हैं, क्योंकि व्यवहार नयके feet ater नाश हो जाता है और निश्चयके बिना तत्त्वके स्वरूपका नाश हो जाता है । ३० नम ///-/ १ जिस प्रकार सम्य व्यवहारसे मिथ्या व्यवहारकी निवृत्ति होती है, उसी प्रकार सम्यक निश्चयसे उस व्यवहारकी भी निवृत हो जाती है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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