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________________ नय नय एक निर्द्वन्द्व और निर्विकल्प है, तथा व्यवहारनय अनेक सद्वन्द्व और सविकल्प है। (पं. घ. / पू. /६५७) और भी देखो न/ IV/१/७ द्रव्यार्थिक नय अवक्तव्य व निर्विकल्प है। ३. निश्चयनयके भेद नहीं हो सकते पं.पू./६६१ पादिकारच बहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते । स हि मिष्याष्टि सर्वशाज्ञावमानितो नियम १६६१ - शुद्ध और अशुद्धको) आदि लेकर निश्चयनयके भी महुतसे भेद हैं. ऐसा जिसका मत है, वह निश्चय करके मिध्यादृष्टि होनेसे नियमसे सर्वश की आज्ञाका उल्लंघन करनेवाला है। ४. शुद्धनिश्चय ही वास्तवमें निश्चयनय है, अशुद्ध निश्चय तो व्यवहार है स.सा./ता.वृ./५०/१७/१३ द्रव्यकर्मयन्धापेक्षा योऽसौ बसत व्यवहारस्तदपेक्षया तारतम्यज्ञापनार्थ रामादीनामशुद्ध निश्चयो भण्यते । वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयापेक्षया पुनरशुद्ध निश्चयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थः ॥५७॥ स.सा./ता.वृ./८०/१०८/११ अशुद्धनिश्चयस्तु वस्तुतो यद्यपि द्रव्य कर्मापेक्षयाभ्यन्तररागादयश्चेतना इति मत्वा निश्चयसंज्ञां लभते तथापि शुद्धनिश्चयापेक्षया व्यवहार एव । इति व्याख्यानं निश्चयव्यवहारनयविचारकाले सर्वत्र हात द्रव्यकर्म-बन्धकी अपेक्षा जो यह असद्भूत व्यवहार कहा जाता है उसकी अपेक्षा तारतम्यता दर्शानेके लिए ही रागादिकोंको अशुद्ध निश्चयनयका विषय बनाया गया है । वस्तुतः तो शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार ही है । अथवा द्रव्य कर्मोंकी अपेक्षा रागादिक अभ्यन्तर हैं। और इसलिए चेतनात्मक हैं, ऐसा मानकर भले उन्हें निश्चय संज्ञा दे दी गयी हो परन्तु शुद्धनिश्चयनयकी अपेक्षा तो वह व्यवहार ही है। निश्चय व व्यवहारनयका विचार करते समय सर्वत्र यह व्याख्यान जानना चाहिए। ( स. सा./ता.वृ./११५/१७४ /२१), (द्र.सं./टी./ ४८/२०६/१) प्र.सा./ता.वृ./९०६/२६४/१९ परम्परया शुद्धात्मसाधकत्वादयमशुद्धनयोप्युपचारेण शुद्धनमी भण्यते निश्चयनयो न परम्परासे शुद्धात्माका साधक होनेके कारण (दे०/V/८/१ में प्र. सा./ता.वृ./१८६ ) यह अशुद्धनय उपचारसे शुद्धनय कहा गया है परन्तु निश्चय नय । : नहीं कहा गया है । दे० नम / V// अशुद्ध द्रव्याधिकनय वास्तवमे पर्यायायिक होनेके कारण व्यवहार नय है । ५. उदाहरण सहित व सविकल्प सभी नयें व्यवहार है पं. ध. / ५६६, ६१५- ६२१,६४७ सोदाहरणो यावान्नयो विशेषणविशेष्य रूपः स्यात् । व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थः । ५६६॥ अथ पेत्सदेकमितिमा चिदेव जीवोऽथ निश्चयो नदति व्यवहारान्तर्भावो भगति सकस्य तद्विधापतेः । ६९५ एवं सदाहरणे क् लक्षणं तदेकमिति । लक्षणलक्ष्यविभागो भवति व्यवहारतः स नान्यत्र । ६१६० अथवा चिदेव जीवो यदुदाह्रियतेऽभ्यभेदबुद्धिमता। उक्तमदत्रापि तथा व्यवहारनयो न परमार्थः । ६१७॥ ननु केवलं सदेव हि यदि वा जीवो विशेषनिरपेक्षः। भवति च तदुदाहरणं भेदाभावतदा हि को दोषः | ६१ । अपि चैवं प्रतिनियतं व्यवहारस्यावकाश एव यथा । सदनेक च सवेक जीवारिचद्रद्रव्यमारमवानिति चैव । ६२० न यतः सदिति विकल्पो जो काल्पनिक इति विकल्पश्च तत्तद्धर्मविशिष्टस्तवानुपचर्यते स यथा । ६२९ युक्तत्रादपि कल्पनायानुभूतेश्च । सर्वोऽपि नयो यावाद परसमयः स च नयावलम्बी च ॥ ६४७| ५५५ Jain Education International V निश्चय व्यवहार नय - उदाहरण सहित विशेषण विशेष्यरूप जितना भी नय है वह सब 'व्यवहार' नामवाला पर्यायाधिक नय है। परन्तु द्रव्याशिक नहीं ५६६ | प्रश्न - सत् एक है' अथवा 'चित् ही जीव है' ऐसा कहनेवाले नय निश्चयनय कहे गये हैं और एक सयको ही दो आदि भेदोंमें विभाग करनेवाला व्यवहार नय कहा गया है । ६१५। उत्तर--नहीं, क्योंकि, इस उदाहरणमें 'सत् एक' ऐसा कहने में 'सत्' लक्ष्य है और 'एक' उसका लक्षण है । और यह लक्ष्यलक्षण विभाग व्यवहारनय में होता है, निश्चय नहीं । ६१६। और दूसरा जो 'चित ही जीव है, ऐसा कहने में भी उपरोक्तवत लक्ष्य लक्षण भावसे व्यवहारनय सिद्ध होता है, निश्चयन नहीं । ६१७५ प्रश्न – विशेष निरपेक्ष केवल 'सत 'ही' अथवा 'जीव ही' ऐसा कहना तो अभेद होनेके कारण निश्चय नयके उदाहरण मन जायेंगे |१| और ऐसा कहनेसे कोई दोष भी नहीं है, क्योंकि यहाँ 'सद एक है' या 'जीव चिद द्रव्य है' ऐसा कहनेका अवकाश होनेसे व्यवहारनयको भी अवकाश रह जाता है । ६२० उत्तर - यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि 'सह' और 'जी' यह दो शब्द कहनेरूप दोनों विकल्प भी काल्पनिक है। कारण कि जो उस उस धर्म से युक्त होता है वह उस उस धर्मवाला उपचारसे कहा जाता है | ६२१। और आगम प्रमाण ( दे० नय/I/३/३) से भी यही सिद्ध होता है कि सविकल्प होनेके कारण जिसने भी नम हैं वे सब तथा उनका अवलम्बन करनेवाले पर समय हैं । ६४७ | ६. निर्विकल्प होनेसे निश्चयनय में नयपना कैसे सम्भव है ? पं. ध. / पू. / ६०० - ६१० ननु चोक' लक्षणमिह नयोऽस्ति सर्वोऽपि किल विकल्पात्मा । तदिह विकल्पाभावात् कथमस्य नयत्वमिदमिति चेत् । ६०० तत्र यतोऽस्ति नयत्वं नेति यथा लक्षितस्य पक्षत्वात् । पक्षग्राही च नयः पक्षस्य विकल्पमात्रत्वात् । ६०१ । प्रतिषेध्यो विधिरूपो भवति विकल्प स्वयं विकल्पत्वात् । प्रतिषेधको विकल्पो भवति तथा सः स्वयं निषेधात्मा । ६०२। एकाइवमसि न नैति निश्चयनयस्य तस्य पुनः । वस्तुनि शक्तिविशेषो यथा तथा तदविशेषशक्तित्वात् ॥ ६१०। • प्रश्न- जब नयका लक्षण ही यह है कि 'सब नय विकल्पात्मक होती है (दे० नय/I/१/१/५; तथा नय / I/ २ ) तो फिर यहाँपर विकल्पका अभाव होनेसे इस निश्चयनयको नयपना कैसे प्राप्त होगा ? ६०० उत्तर - यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि निश्चयनयमें भी निषेधसूचक 'न' इस शब्द के द्वारा लक्षित अर्थ को भी पक्षपना प्राप्त है और वही इस नयका नयपना है; कारण कि, पक्ष भी विकल्पात्मक होनेसे नयके द्वारा ग्राह्य है । ६०१। जिस प्रकार प्रतिषेध्य होनेके कारण 'विधि' एक विकल्प है उसी प्रकार प्रतिषेधक होनेके कारण निषेधात्मक 'न' भी एक विकल्प है | ६०० | 'न' इत्याकारको विषय करनेवाले उस निश्चयनयमें एकांगपना (किलादेशीपना) असिध नहीं है; क्योंकि, जैसे वस्तु 'विशेष' यह शक्ति एक अंग है, वैसे ही 'सामान्य' यह शक्ति भी उसका एक अंग है। ३. निश्चयनयकी प्रधानता १. निश्चयनय ही सत्यार्थ है स.सा./मू./१९ भूयो देसिदो सहयो भूतार्थ है। •शुद्धधनय न.. / श्रुत/ ३२ निश्चयनयः परमार्थप्रतिपादकत्वाद्वभूतार्थो - परमार्थका प्रतिपादक होने के कारण निश्चयमय भूतार्थ है (स.सा./बा./११ ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश ज For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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