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________________ मय ५५२ V निश्चय व्यवहार नय स्वरूप माननेवाला सत्तानिरपेक्ष या सत्तागौण उत्पादव्ययग्राहक स्वभाव अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिकनय है। ४. (व्याख्याकी अपेक्षा यह नं०३)-अगुरुलघु आदि गुण स्वभावसे ही षट्गुण हानि वृद्धिरूप क्षणभंग अर्थात् एकसमयवर्ती पर्यायसे परिणत हो रहे हैं। तो भी सत् द्रव्यके अनन्तों गुण और पर्यायें परस्पर संक्रमण न करके अपरिणत अर्थात् अपने-अपने स्वरूपमें स्थित रहते हैं। द्रव्यको इस प्रकारका ग्रहण करनेवाला नय सत्तासापेक्ष स्वभावनित्य शुद्धपर्यायाथिकनय है। ५. चराचर पर्याय परिणत संसारी जीवधारियोंके समूहमे शुद्ध सिद्धपर्यायकी विवक्षासे कर्मोपाधिसे निरपेक्ष विभावनित्य शुद्धपर्यायार्थिक नय है । ( यहाँ पर संसाररूप विभावमें यह नय नित्य शुद्ध सिद्धपर्यायको जाननेकी विवक्षा रखते हुए संसारी जीवोंको भी सिद्ध सदृश बताता है। इसीको आ. प. में कर्मोपाधि निरपेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय कहा गया है। ६. जो शुद्ध पर्यायकी विवक्षा न करके कर्मोपाधिसे उत्पन्न हुई नारकादि विभावपर्यायोको जोवस्वरूप बताता है वह कर्मोपाधिसापेक्ष विभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायाथिकनय है। (इसोको आ. प. में कर्मोपाधिसापेक्षस्वभाव अनित्य अशुद्ध पर्यायार्थिकनय कहा गया है । ) ( आ. प./५); (न. च. वृ./२००-२०५) (न. च./श्रुत/ पृ. ६पर उद्धृत श्लोक नं.१-६ तथा पृ. ४१ श्लोक ७-१२)। २. उदाहरण दे. मोक्षमार्ग/३/१ दर्शन ज्ञान चारित्र ये तीन भेद व्यवहारसे ही कहे जाते हैं निश्चय से तीनों एक आत्मा ही है। स, सा./आ./१६/क.१८ परमार्थेन त व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषककः । सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥१८ - परमार्थसे' देखनेपर ज्ञायक ज्योति मात्र आत्मा एकस्वरूप है, क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिकनयसे सभी अन्य द्रव्यके स्वभाव तथा अन्यके निमित्तसे हुए विभावोंको दूर करने रूप स्वभाव है । अतः यह अमेचक है अर्थात् एकाकार है। पं.ध./पू./88 व्यवहारः स यथा स्यात्सद् द्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा। नेत्येतावन्मात्री भवति स निश्चयनयो नयाधिपतिः।- 'सद द्रव्य है' या 'ज्ञानवान जीव है' ऐसा व्यवहारनयका पक्ष है। और 'द्रव्य या जीव सद या ज्ञान मात्र ही नहीं है' ऐसा निश्चयनयका पक्ष है। और भी दे. नय/IV/१/७-६द्रव्य क्षेत्र काल व भावचारों अपेक्षासे अभेद । पर्यायको विवर(यहाँ पर संवा रखते कोपाधि ३. निश्चयनयका लक्षण स्वाश्रय कथन v निश्चय व्यवहार नय १. निश्चयनय निर्देश १. निश्चयका लक्षण निश्चित व सत्यार्थ ग्रहण नि.सा./न./१५६ केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं । - निश्चयसे केवलज्ञानी आत्माको देखता है। श्लो. वा./१/७/२८/५८५/१ निश्चनय एवंभूत. = निश्चय नय एवं भूत है। स. सा./ता. वृ./३४/६६/२० ज्ञानमेव प्रत्यारण्यानं नियमान्निश्चयान मन्तव्यं । =नियमसे, निश्चयसे ज्ञानको ही प्रत्याख्यान मानना चाहिए। प्र. सा./ता. वृ./६३/से पहिले प्रक्षेपक गाथा नं. १/१२८/३० परमार्थस्य विशेषेण संशयादिरहितत्वेन निश्चयः। = परमार्थ के विशेषणसे संशयादि रहित निश्चय अर्थका ग्रहण किया गया है। द्र.स./टो./४१/१६४/११श्रद्धान रुचिनिश्चय इद मेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । श्रद्धान यानी रुचि या निश्चय अर्थात् 'तत्त्वका स्वरूप यह ही है, ऐसे ही है' ऐसी निश्चयबुद्धि सो सम्यग्दर्शन है। स. सा./पं. जयचन्द/२४१ जहाँ निर्वाध हेतुसे सिद्धि होय वही निश्चय १. लक्षण स. सा./आ./२७२ आत्माश्रितो निश्चयनयः । --निश्चय नय आत्माके __ आश्रित है। (नि. सा./ता, वृ./१५६) । त. अनु./५६ अभिन्नकर्तृ कर्मादिविषयो निश्चयो नयः। -निश्चयनयमें कर्ता कर्म आदि भाव एक दूसरेसे भिन्न नहीं होते। ( अन.ध./ १/१०२/१०८)। २. उदाहरण रा. वा./१/७/३८/२२ पारिणामिकभावसाधनो निश्चयतः। -निश्चय से जीवकी सिद्धि पारिणामिकभावसे होती है। स, साा/आ./५६ निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रितत्वात्केवलस्य जीवस्य स्वाभाविकं भावमवलम्ब्योत्प्लवमानः परभाव परस्य सर्वमेव प्रतिषेधयति ।-निश्चयनय द्रव्यके आश्रित होनेसे केवल एक जीवके स्वाभाविक भावको अवलम्बन कर प्रवृत्त होता है, वह सब परभावों को परका बताकर उनका निषेध करता है। प्र. सा./त. प्र./१८६ रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपदाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः । -शुद्धद्रव्यका निरूपण करनेवाले निश्चयनयकी अपेक्षा आत्मा अपने रागादि परिणामोंका ही कर्ता उपहाता या हाता (ग्रहण व त्याग करनेवाला) है। (द्र. सं./मु. व टी./८)। प्र. सा./त. प्र/परि./नय नं. ४५ निश्चयनयेन केवलबध्यमानमुच्यमानबन्धमोक्षोचितस्निग्धरूक्षत्वगुणपरिणतपरमाणुवबन्धमोक्षयोरद्वैतानुवति ।-आरमद्रव्य निश्चयनयसे बन्ध व मोक्षमें अद्वैतका अनुसरण करनेवाला है। अकेले बध्यमान और मुच्यमान ऐसे बन्धमोक्षोचित स्निग्धत्व रूक्षत्व गुण रूप परिणत परमाणुकी भाँति । नि. सा./ता, वृ./ह निश्चयेन भावप्राणधारणाज्जीवः। --निश्चयनयसे भावप्राण धारण करनेके कारण जीव है। (द्र. सं./टी./३/११/८)। द्र, सं./टी./१९/५७/६ स्वकीयशुद्धप्रदेशेषु यद्यपि निश्चयनयेन सिधास्तिष्ठन्ति । निश्चयनयसे सिद्ध भगवान स्वकीय शुद्ध प्रदेशों में ही रहते हैं। द्र. सं./टी./८/२२/२ किन्तु शुद्धाशुद्धभावाना परिणममानानामेव कर्तृत्वं ज्ञातव्यम्, न च हस्तादिव्यापाररूपाणामिति-निश्चयनयसे जीवको अपने शुद्ध या अशुद्ध भावरूप परिणामोंका ही कर्तापना जानना चाहिए, हस्तादि व्यापाररूप कार्योंका नहीं। पं. का./ता. वृ./१/४/२१ शुद्धनिश्चयेन स्वस्मिन्नेवाराध्याराधकभाव इति ।- शुद्ध निश्चयनयसे अपने में ही आराध्य आराधक भाव है। मो. मा. प्र./७/३६६/२ साँचा निरूपण सो निश्चय । मो. मा. प्र./४/४८६/१६ सत्यार्थका नाम निश्चय है। २. निश्चय नयका लक्षण अभेद व अनुपचार ग्रहण आ. प./१० निश्चयनयोऽभेदविषयो। * निश्चय नयका विषय अभेद द्रव्य है। (न. च./श्रुत/२५), आ. प./8. अभेदानुपचारतया वस्तु निश्चीयत इति निश्चयः । - जो अभेद व अनुपचारसे वस्तुका निश्चय करता है वह निश्चय नय है। (न.च, वृ./२६२) (न.च./श्रुत/पृ. ३१) (पं.ध./पू./६१४)। पं.ध./पू./६६३ अपि निश्चयस्य नियतं हेतुः सामान्यमिह वस्तु । सामान्य वस्तु ही निश्चयनयका नियत हेतु है। और. भी दे. नय/IV१/२-५; IV/२/३; जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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