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________________ कायक्लेश कारक शरीरसे जलकायिक जीवोंको दुख देना अर्थात् शरीरसे लगे हुए जल-कण हाथसे पोंछना, अथवा पावसे शिला या फलक पर संचित हुआ जल अलग करना, गीली मिट्टीकी जमीनपर सोना, जहाँ जलप्रवाह बहता है ऐसे स्थानमें अथवा खोल प्रदेशोंमें बैठना, वृष्टिप्रतिबन्ध होनेपर कब वृष्टि होगी' ऐसी चिन्ता करना; और वृष्टि होनेपर उसके उपशमकी चिन्ता करना, अथवा वर्षाका निवारण करनेके लिए छत्र चटाई वगैरह धारण करना। अभावकाश या शीतयोगके अतिचार-सचित्त ज़मीनपर, प्रससहित हरितवनस्पति जहाँ उत्पन्न हुई है ऐसी ज़मीनुपर, छिद्र सहित जमीनपर, शयन करना। जमीन और शरीरको पिच्छिकासे स्वच्छ किये बिना हाथ और पाँव संकुचित करके अथवा फैला करके सोना; एक करवटसे दूसरे करवटपर सोना अर्थात् करवट बदलना; अपना अंग खुजलाना; हवा और ठंडीसे पीड़ित होनेपर इनका कब उपशम होगा' ऐसा मनमें संकल्प करना; शरीरपर यदि बर्फ गिरा होगा तो बाँसके टुकड़ेसे उसको हटाना; अथवा जलके तुषारोंको मर्दन करना, 'इस प्रदेशमें धूप और हवा बहुत है' ऐसा विचारकर संक्लेश परिणामसे मुक्त होना, अग्नि और आच्छादन वस्त्रोंका स्मरण करना। ये सम अभ्रावकाशके अतिचार है। अभावियसदिनाधादिउववासादिबास्स मारणं तियअसादेण ओत्थअस्सझाणाणुवत्तीदो। प्रश्न-यह ( काय क्लेश तप) किस लिए किया जाता है। उत्तर-शीत. वात और आतपके द्वारा; बहुत उपवासोंके द्वारा; तृषा क्षुधा आदि बाधाओं द्वारा और विसंस्थुल आसनों द्वारा ध्यानका अभ्यास करनेके लिए किया जाता है; क्योंकि जिसने शीतबाधा आदि और उपवास आदिकी बाधाका अभ्यास नहीं किया है और जो मारणान्तिक असातासे खिन्न हुआ है, उसके ध्यान नहीं बन सकता। (चा, सा./१३६/३). (अन.ध./७/३२/६८२)। कायगुप्ति-दे० गुप्ति। काय बल ऋद्धि-दे० ऋद्धि/६ । काय विनय-विनय । काय शुद्धि-दे० शुद्धि । कायिकी क्रिया-दे० क्रिया/३/२ । कायोत्सर्ग-दे० व्युत्सर्ग/१ । कारक-व्याकरणमें प्रसिद्ध तथा नित्यको बोल चालमें प्रयोग किये जानेवाले कर्ता कर्म करण आदि छः कारक हैं । लोकमें इनका प्रयोग भिन्न पदार्थों में किया जाता है, परन्तु अध्यात्ममें केवल वस्तु स्वभाव लक्षित होनेके कारण एक ही द्रव्य तथा उसके गुणपर्यायों में ये छहो लागू करके विचारे जाते हैं। १. भेदाभेद षटकारक निर्देश व समन्वय 1. षटकारकोंका नाम निर्देश प्र. सा./त. प्र./१६ कतृ त्व...कर्मत्वं...करणत्वं......संप्रदानत्वं .. अपादानत्वं ...अधिकरणत्वं...। पं. जयचन्द्रकृत भाषा---कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान अपादान और अधिकरण नामक छ• कारक हैं। जहाँ परके निमित्तसे कार्य की सिद्धि कहलाती है, वहाँ व्यवहार कारक है और जहाँ अपने ही उपादान कारणसे कार्य की सिद्धि कही जाती है वहाँ निश्चय कारक हैं (व्याकरणमें प्रसिद्ध सम्बन्ध नामके सातवे कारकका यहाँ निर्देश नहीं किया गया है, क्योंकि इन छहोंका समुदित रूप ही सम्बन्ध कारक है)। .. कायक्लेश तप गृहस्थके लिए नहीं है सा.ध./७/५० श्रावको वीरचर्याह. प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च 11 श्रावकको वीरचर्या अर्थात स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे भोजन करना, दिनप्रतिमा, आतापन योग, आदि धारण करनेका तथा सिद्धान्तशास्त्रोंके अध्ययनका अधिकार नहीं है। ६. कायक्लेश व परिषहजय भी आवश्यक हैं चा सा./१०७ पर उद्धृत-परीषोढव्या नित्ये दर्शनचारित्ररक्षणे विरतैः । संयमतपोविशेषास्तदेकदेशाः परीषहाख्याः स्युः। -दर्शन और चारित्रकी रक्षाके लिए तत्पर रहनेवाले मुनियों को सदा परिषहोंको सहन करना चाहिए। क्योंकि ये परिषहे संयम और तप दोनोंका विशेष रूप हैं, तथा उन्हीं दोनोंका एकदेश (अंग) हैं। अन.ध./७/३२/६८२ कायक्लेशमिदं तपोऽयूपनतौ सद्ध्यानसिध्यै भजेत् ॥३२॥ --यह तप भी मुमुक्षुओंके लिए आवश्यक है अतएव प्रशान्त तपस्वियोको ध्यानकी सिद्धिके लिए इसका नित्य ही सेवन करना चाहिए। ७. कायक्लेश व परिषहमें अन्तर स.सि./१/११/४३६/१ परिषहस्यास्य च को विशेषः। यदृच्छयोपनिपतितः परिषहः स्वयं कृतः कायक्लेशः। -प्रश्न-परिषह और काय क्लेशमें क्या अन्तर है ? उत्तर--अपने आप प्राप्त हुआ परिषह और स्वयं किया गया कायक्लेश है। यही इन दोनों में अन्तर है। (रा. बा/६/१६/१५/६१६/२०) २. षट्कारकी अभेद निर्देश प्र. सा./त. प्र./१६ अयं खल्वात्मा......शुद्धानन्तशक्ति-ज्ञायकस्वभावेन स्वतन्त्रत्वाद्गृहीतकर्तृत्वाधिकारः ... विपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मत्वं कलयन् - विपरिणमनस्वभावेन साधक्तमत्वात करणत्वमनुविभ्राणः ... विपरिणमनस्वभावेन कर्मणा समाश्रियमाणत्वात् संप्रदानत्वं दधान ... विपरिणमनसमये पूर्व प्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्वभावेन ध्र वत्वावलम्बनादपादानत्वमुपाददान:, ... विपरिणमनस्वभावस्याधारभूतत्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्वाणः स्वयमेव षट्कारकीरूपेणोपजायमानः...स्वयंभूरिति निर्दिश्यते । -यह आत्मा अनन्तशील युक्त ज्ञायक स्वभावके कारण स्वतन्त्र होनेसे जिसने कतृ त्वके अधिकारको ग्रहण किया है, तथा ( उसी शक्तियुक्त ज्ञानरूपसे) परिणमित होनेके स्वभावके कारण स्वयं ही प्राप्य होनेसे कर्मत्वका अनुभव करता है। परिणामन होनेके स्वभावसे स्वयं ही साधकतम होनेसे करणताको धारण करता है। स्वयं ही अपने (परिणमन स्वभाव रूप) कमके द्वारा समाश्रित होनेसे सम्प्रदानताको धारण करता है। विपरिणमन होनेके पूर्व समयमें प्रवर्तमान विकल ज्ञानस्वभावका नाश होनेपर भी सहज ज्ञानस्व ८. कायक्लेश तपका प्रयोजन स.सि./६/१६/४३१/१ तत्किमर्थम् । देहदुःखतितिक्षामुखानभिष्वङ्गप्रवचनप्रभावनाद्यर्थम्। प्रश्न--यह किस लिए किया जाता है। उत्तर-यह देहदुःखको सहन करनेके लिए, सुखविषयक आसक्तिको कम करनेके लिए और प्रवचनकी प्रभावना करनेके लिए किया जाता है । (रा.वा/६/१६/१४/६१६/१७) (चा.सा./१३६/४) ध.१३/५,४,२६/५८/५ किमहमेसो करिदे । सदि-वादादवेहि बहुदोबवासेहि तिसा-छुहादिबाहाहि विसंठुलासणेहि य ज्माणपरिचयर्छ, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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