SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नय अवयव जलते हैं, क्योंकि स्वयं निरवयव होनेसे उनका भी असत्त्व है। ४. कुम्भकार संज्ञा नहीं हो सकती क. पा. १/१३-१४/६ १०६/२२८/९ कुम्भकारोऽस्ति । तद्यथा - न शिवकादिकरणेन तस्य स व्यपदेशः शिवकादिषु कुम्भभावानुसम्भात् । न कुम्भं करोतिः स्वावयवेभ्य एव सनिष्पतम्भाव । न बहुभ्य एकः घटः उत्पद्यते तत्र यौगपद्य ेन भूयो धर्माणां सत्त्वविरोधात अविरोधे घर न तवेकं कार्यम् विरुद्धधर्माध्यासतः प्राप्ताकरूपाय न चैकेन कृतकार्य एव शेषसहकारिकारणानि व्याप्रियन्ते तद्व्यापार फसाद न चान्यत्र व्याप्रियन्तेः कार्यम प्रसङ्गात् । न चैतदपि एकस्य घटस्य बहुत्वाभावात । - इस ऋजुसूत्र नयको दृष्टिमें कुम्भकार संज्ञा भी नहीं बन सकती है। वह इस प्रकार कि शिवकादि पर्यायोंको करनेसे उसे कुम्भकार कह नहीं सकते, क्योंकि शिवकादिमें कुम्भपना पाया नहीं जाता और कुम्भको मह मनाता नहीं है; क्योंकि, अपने शिवकादि अनयमोंसे ही उसकी उत्पत्ति होती है । अनेक कारणोंसे उसकी उत्पत्ति माननी भी ठीक नहीं है; क्योंकि घटमें युगपत् अनेक धर्मोका अस्तित्व माननेमें विरोध आता है । उसमें अनेक धर्मोका यदि अविरोध माना जायेगा तो वह घट एक कार्य नहीं रह जायेगा, कि विरुद्ध अनेक धमका आधार होनेसे अनेक रूप हो जायेगा । यदि कहा जाय कि एक उपादान कारणसे उत्पन्न होनेवाले उस घटमें अन्य अनेकों सहकारी कारण भी सहायता करते है. तो उनके व्यापारको बिफलता प्राप्त होती है। यदि कहा जाये कि उसी घटमें वे सहकारीकारण उपादान के कार्यसे मित्र ही किसी अन्य कार्यको करते हैं, तो एक घटमें कार्य का प्रसंग आता है, और ऐसा माना नहीं जा सकता, क्योंकि एक घट अनेक कार्यरूप नहीं हो सकता (रा. वा./१/३३/०/१०/१२); (ध. ११४.१,४२/१०३/७ ) । ५. कालकी अपेक्षा विषयकी एकत्वता १. केवल वर्तमान क्षणमात्र ही वस्तु है क. पा. १/१३-१४/११/२९०/१ परि मे ऋजुसूचनविच्छे एति गच्छतीतिपर्यायः स पर्यायः अर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पारयन् पर्यायार्थिक इत्यवगन्तव्यः । अत्रोपयोगिन्दी गाथेतनमेण पज्जयस्स उदयगिविच्छेदो तस्य सादीया साहसाहा ममेया परि' का अर्थ भेद है सूत्र रचनके विच्छेदरूप वर्तमान समयमात्र (दे० नय / III / १/२) कालको को प्राप्त होती है, वह पर्याय है। यह पर्याय ही जिस नका प्रयोजन है सो पर्यायार्थिकनय है । सादृश्यलक्षण सामान्य से भिन्न और अभिन्न जो व्याधियका समस्त विषय है (दे० नय IV/१/२)नके विच्छेदरूप कालके द्वारा उसका विभाग करनेवाला पर्यायार्थिकनय है, ऐसा उक्त कथनका तात्पर्य है । इस विषय में यह उपयोगी गाथा है - ऋजुसूत्र वचन अर्थात वचनका विच्छेद जिस कालमे होता है वह काल पर्यायानियका मुल आधार है, और उत्तरोत्तर सूक्ष्म भेदरूप शब्दादि नय उसी ऋजुसूत्रकी शाखा उपशाखा है ICCI ३० नय / III/२/१/२ (अतीत में अनागत कालको छोड़कर जो केवल वर्तमानको ग्रहण करे सो सूत्र अर्थात् पर्यायार्विक नम है।) ३० नय / III/५/० (सूक्ष्म व स्थूल ऋजुमुश्की अपेक्षा वह काल भी दो प्रकारका है। सूक्ष्म एक समय मात्र है और स्थूल अन्तर्मुहूर्त या संख्यात वर्ष । ) Jain Education International ५४८ IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक : रा. वा./१/३३/१/१५/६ पर्याय एवार्थः कार्यमस्य न द्रव्यम् अतीतानागयोनिनुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावाद ।... पर्यायोऽर्थः प्रयोजन मस्य वाग्वज्ञानव्यावृत्तिनिबन्धनव्यवहारप्रसिद्ध रिति । वर्तमान पर्याय ही अर्थ या कार्य है, द्रव्य नहीं, क्योंकि अतीत विनष्ट हो जाने के कारण और अनागत अभी उत्पन्न न होनेके कारण ( खरविषाण की तरह ( स. म. ) उनमें किसी प्रकारका भी व्यवहार संम्भव नहीं । [ तथा अर्थ क्रियान्य होनेके कारण मे अवस्तुरूप हैं ( स. म. ) ] वचन व ज्ञानके व्यवहारकी प्रसिद्धि अर्थ वह पर्याय ही नयका प्रयोजन है । २. क्षणस्थायी अर्थ दी उत्पन्न होकर नष्ट हो जाता है ध. १/१,१,१/गा. ८/१३ उप्पज्जं ति वियेति य भावा नियमेण पज्जवण[यस्स || - पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते हैं और नाशको प्राप्त होते हैं .४/१.५.४/गा. २६/११०) (प. २/४. १.४१/गा. १४/२४४) (क. पा. १२/१३-१४ /गा. १५/२०४/२४०), (पं.का./ यू./१९) (पं.पू./२४७) । - दे० आगे नय / IV/३/७ - ( पदार्थ का जन्म ही उसके नाशमें हेतु है ।) क. पा. ९/११-१२/११०/ना. ११/२२० प्रत्येक जायते चितं जातं जातं प्रश्यति। नष्टं नावर्तते भूयो जायते च नवं नवं ॥११॥ प्रत्येक चित्त ( ज्ञान ) उत्पन्न होता है और उत्पन्न होकर नाशको प्राप्त हो जाता है। तथा जो नष्ट हो जाता है, वह पुनः उत्पन्न नहीं होता, किन्तु प्रति समय नया नया चित्त ही उत्पन्न होता है । (ध. ६/१, ६-६,५/४२०/५) | रा. बा./१/३३/२/१६/९ पर्याय एवास्ति इति मतिरस्य जन्महावभावविकारमात्रमेव भवनं न ततोऽन्य द्रव्यमस्ति तद्वचतिरेकेणानुपलब्धिरिति पर्यायास्तिकः । जन्म आदि भावविकार मात्रका होना ही पर्याय है उस पर्यायका ही अस्तित्व है, उससे अतिरिक्त द्रव्य कुछ नहीं है, क्योंकि उस पर्यायसे पृथक उसकी उपलब्धि नहीं होती है। ऐसी जिसकी मान्यता है, सो पर्यायास्तिक नम है। ६. काल एकस्व विषयक उदाहरण । रा. वा./१/३३/७/काय इत्यत्र च संजातरसः कषायो भैषज्यं न प्राथमिककषायोऽल्पोऽनभिव्यक्तरसत्वादस्य विषयः । ( १ ) 1 "..." तथा प्रतिष्ठन्तेऽस्मिन्निति प्रस्थः, यदेव मिमीते, अतीतानागतधान्यमानासंभवात् । (११)...स्थितमाने च कुतोऽयागच्यसि इति न कुतश्चिद मन्यते तत्कालक्रियापरिणामामाबाद (१४)।- १. 'कायो भैषज्यम्' में वर्तमानकालीन यह कवाय भैषज हो सकती है जिसमें रसका परिपाक हुआ है, न कि प्राथमिक अप रसवाला कच्चा कषाय । २. जिस समय प्रस्थसे धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कह सकते हैं, क्योंकि वर्तमानमें अतीत और अनागतमा धान्यता माप नहीं होता है (प. ६/४,१.४५/१०१/२); ( क. पा. १/१३-१४/१९८६/२२४/८) ३. जिस समय जो बैठा है उससे यदि पूछा जाय कि आप अब कहाँसे आ रहे हैं, तो यह यही कहेगा कि 'कहीं से भी नहीं आ रहा हूँ क्योंकि उस समय आगमन क्रिया नहीं हो रही है (ध. १/४.१,४५/१९०४ / १) (क. पा. १/१३-१४/१०० २२५/७) रा. वा./१/३३/७/१८/७ न शुक्लः कृष्णीभवति; उभयोभिन्नकालावस्वत्वात् प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तयधानभिमन्धाय ४ अजुसूत्र नमकी दहिसे सफेद चीज काली नहीं बन सकती, क्योंकि दोनोंका समय भिन्न-भिन्न है। वर्तमानके साथ अतीतका कोई सम्बन्ध नहीं है। (घ ६/४.९.४५/९७६/३), (क. पा. १/१३-१४/१९१४/ 23014) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोषा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy