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________________ नय IV द्रव्याथिक व पर्यायार्थिक २. वस्तुके सब वर्म अभिन्न व एकरस है -- द्रव्यसे पृथग्भूत पर्यायोकी उत्पत्ति नहीं बन सकती, क्योकि असत दे, सप्तभंगी// द्रव्याथिक नयसे काल-आत्मस्वरूप आदि ८ अपेक्षाओ पदार्थ किया नही जा सकता; कार्यको उत्पन्न करनेके लिए उपादानसे द्रव्यके सर्व धर्मोमें अभेद वृत्ति है)। और भी देखो-(नय/IVI कारणका ग्रहण किया जाता है। सबसे सबकी उत्पत्ति नहीं पायी २/३/१) (नय/IV/२/६/३)। जाती; समर्थ कारण भी शक्य कार्यको ही करते है तथा पदार्थों में कार्यकारणभाव पाया जाता है। ऐसा द्रव्य जिसका प्रयोजन है वह 8. क्षेत्रकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता है। द्रव्यार्थिक नय है। पं. का./ता, वृ./२७/५७/६ द्रव्याथिकन येन धर्माधर्माकाशद्रव्याण्येकानि और भी दे०-( नय/IV/२/३१४); (नय/IV/२/६/७,१०)। भवन्ति, जीवपुद्गलकालद्रव्याणि पुनरनेकानि। - द्रव्याथिकनयसे ७. इसीसे यह नय वास्तव में एक, अवक्तव्य व निर्विधर्म, अधर्म और आकाश ये तीन द्रव्य एक एक हैं और जीव पुदगल व काल ये तीन द्रव्य अनेक अनेक है । ( दे० द्रव्य/३/४) । और भी देखो नय/IV/२/६/३ भेद निरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिकनयसे धर्म, क. पा. १/१३-१४/गा. १०७/६ २०५ जाव दविओपजोगो अपच्छिमअधर्म, आकाश व जीव इन चारोमें एक प्रदेशीपना है । वियप्पणिव्वयणो 1१०७ -जिसके पीछे विकल्पज्ञान व वचन व्यवहार दे. नय/IV/२/३/२ प्रत्येक द्रव्य अपने अपनेमें स्थित है। नहीं है ऐसे अन्तिमविशेष तक द्रव्योपयोगकी प्रवृत्ति होती है । ५. कालकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता प. ./पू./५१८ भवति द्रव्यार्थिक इति नय. स्वधात्वर्थसंज्ञकश्चैक - वह अपने धात्वर्थ के अनुसार संज्ञावाला व्याथिक नय एक है। ध, १/१.१.१/गा. ८/१३ दव्य ट्ठियस्स सव्वं सदा अणुप्पणमविण8८। और भी देखो-(नय/V/२) - द्रव्याथिकनयकी अपेक्षा पदार्थ सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट स्वभाववाले हैं। (ध,४/१४.४/गा. २६/३३७) (ध.१/४,१,४६/गा.६४/ २. शुद्ध व अशुद्ध द्रव्याथिक नय निर्देश २४४) (क.पा. १/१३-१४/गा,६५/३२०४/२४८) (पं का./मू./११) (पं.ध./पू. २४७)। ..द्रव्यार्थिक नयके दो भेद-शुद्ध व अशुद्ध क. पा. १११३-१४/१८०/२१६/१ अयं सर्वोऽपि 'द्रव्यप्रस्तारः सदादि ध.६/४,१,४६४१७०४५ शुद्धद्रव्यार्थिक, स संग्रह ... अशुद्धद्रव्यार्थिक परमाणुपर्यन्तो नित्य'; द्रव्याच पृथग्भूतपर्यायाणामसत्त्वात् ।। सतः व्यवहारनय । - संग्रहनेय शुद्धद्रव्यार्थिक है और व्यवहारनय अशुद्धआविर्भाव एव उत्पाद' तस्यैव तिरोभाव एव विनाश', इति द्रव्या- द्रव्याथिक । (क. पा. १/१३-१४/१८२/२१६/१) (त.सा./१/४१)। थिकस्य सर्वस्य वस्तुनित्यत्वान्नोत्पद्यते न विनश्यति चेत स्थितम् । आ. प./ह शुद्धाशुद्धनिश्चयौ द्रव्याधिकस्य भेदी। - शुद्ध निश्चय व एतद्वद्रव्यमर्थ प्रयोजनमस्येति द्रव्याथिक । =सतसे लेकर परमाणु अशुद्ध निश्चय दोनों द्रव्याथिकनयके भेद है। पर्यन्त ये सब द्रव्यप्रस्तार नित्य हैं, क्योंकि द्रव्यसे सर्वथा पृथग्भूत पर्यायोंकी सत्ता नहीं पायी जाती है । सतका आविर्भाव ही उत्पाद २. शुद्ध द्रध्यार्थिक नयका लक्षण है और उसका तिरोभाव हो विनाश है ऐसा समझना चाहिए। इसलिए द्रव्याथिकनयसे समस्त वस्तुएँ नित्य है। इसलिए न तो १. शुद्ध, एक व वचनातीत तत्त्वका प्रयोजक कोई वस्तु उत्पन्न होती है और न नष्ट होती है । यह निश्चय हो आ. प./६ शुद्धद्रव्यमेवार्थ प्रयोजनमस्येति शुद्धद्रव्याथिक। - शुद्ध जाता है । इस प्रकारका द्रव्य जिस नयका प्रयोजन या विषय है, द्रव्य ही है अर्थ और प्रयोजन जिसका सो शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। वह द्रव्याथिकनय है। (ध. १/१,१,१/८४/७) । न. च./श्रुत/पृ. ४३ शुद्धद्रव्यार्थेन चरतीति शुद्धद्रव्यार्थिक' । = जो शुद्धऔर भी देखो-(नय/IV/२/३/३) (नय/IV/२/६/२)। द्रव्यके अर्थरूपसे आचरण करता है वह शुद्ध द्रव्याथिकनय है। ६. मावकी अपेक्षा विषयकी अद्वैतता पं.वि./१/१५७ शुद्ध वागतिवर्तितत्त्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति... | शुद्ध तत्त्व वचनके अगोचर है, ऐसे शुद्ध तत्त्वको ग्रहण रा. वा./१/३३/१/६५/४ अथवा अर्यते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थः कार्यम् । करनेवाला नय शुद्धादेश है। (पं.ध./पू./७४७)। द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवाथोऽस्य कारणमेव कार्य पं.ध./उ./३३,१३३ अथ शुद्ध नयादेशाच्छुद्धश्चैकविधोऽपि य-शुद्ध नार्थान्तरत्वम्, न कार्यकारणयोः कश्चिद्रूपभेदः तदुभयमेकाकारमेव नयकी अपेक्षासे जीव एक तथा शुद्ध है। पर्वाड्गुलिद्रव्यवदिति द्रव्यार्थिकः .. अथवा अर्थनमर्थ प्रयोजनम्, और भी दे० नय/III/४-(सत्मात्र है अन्य कुछ नहीं)। द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिङ्गदर्शनस्य निहोतुमशक्य ३. शुद्धद्रव्यार्थिक नयका विषय त्वादिति द्रव्यार्थिक. -अथवा जो प्राप्त होता है या निष्पन्न होता है, ऐसा कार्य ही अर्थ है । और परिणमन करता है या प्राप्त करता है १. द्रव्यकी अपेक्षा भेद उपचार रहित द्रव्य ऐसा द्रव्य कारण है। द्रव्य ही उस कारणका अर्थ या कार्य है । अर्थात स. सा./मू./१४ जो पस्सदि अप्पाणं अबद्धपुट्ठ अणण्णय णियदं । अविकारण ही कार्य है, जो कार्य से भिन्न नहीं है । कारण व कार्य में किसी सेसमसं जुत्तं तसुद्धणयं वियाणीहि।१४ = जो नय आत्माको बन्धप्रकारका भेद नहीं है। उङ्गली व उसकी पोरीकी भॉति दोनों रहित और परके स्पर्शसे रहित, अन्यत्वरहित, चलाचलता रहित, एकाकार हैं। ऐसा द्रव्यार्थिकनय कहता है । अथवा अर्थन या अर्थ विशेष रहित. अन्यके संयोगसे रहित ऐसे पाँच भावरूपसे देखता है, का अर्थ प्रयोजन है। द्रव्य ही जिसका अर्थ या प्रयोजन है सो द्रव्या उसे हे शिष्य ! तू शुद्धनय जान ।१४। (पं.वि./११/१७)। थिक नय है। इसके विचारमें अन्य विज्ञान, अनुगताकार वचन ध.१/४,१४५/९७०५ सत्तादिना य' सर्वस्य पर्यायकलङ्काभावेन अद्वैऔर अनुगत धर्मोंका अर्थात् ज्ञान, शब्द व अर्थ तोनोका लोप नहीं तत्वमध्यवस्थेति शुद्धद्रव्यार्थिक स संग्रहः। =जो सत्ता आदिकी किया जा सकता ! तीनो एकरूप है। अपेक्षासे पर्याय रूप कलंकका अभाव होनेके कारण सबकी अद्वैतताको क. पा. १/१३-१४/१८०/२१६/२ न पर्यायस्तेभ्यः पृथगुत्पद्यते...असद- विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है। ( विशेष दे० नय/III करणात उपादानग्रहणात सर्वसंभवाभावात शक्तस्य शक्यकरणात ४) (क. पा./१/१३-१४/ १८२/२१६/१) (न्या. दी./३/८४/कारणाभावाच्च ।......एतद्रव्यमर्थ प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिक १२८)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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