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________________ नय ५३४ III नैगम आदि सात नय निर्देश स्या.म./२८/३१५/में उद्धृत श्लोक नं.२ सद्रूपतानतिक्रान्तं स्वस्वभावमिदं जगत् । सत्तारूपतया सर्व संगृह्णन् सग्रहो मतः ।२। -अस्तित्वधर्मको न छोड़कर सम्पूर्ण पदार्थ अपने-अपने स्वभावमें अवस्थित है। इसलिए सम्पूर्ण पदार्थोके सामान्यरूपसे ज्ञान करनेको संग्रहनय कहते हैं । (रा.वा./४/४२/१७/२६१/४) । ३. संग्रहनयके भेद श्लो.वा/४/१/३३/श्लो.५१,५३/२४० (दो प्रकार के संग्रह नयके लक्षण किये हैं-पर संग्रह और अपर संग्रह ) । (स्या.म./२८/३१७/७) । आ प./५ संग्रहो द्विविधः । सामान्यसंग्रहो...विशेषसंग्रहो। =संग्रह दो प्रकारका है-सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह । (न. च./श्रुत/ न. च. वृ./१८६,२०६ दुविहं पुण सगहें तत्थ ।१८६॥ मुद्धसंगहेण... २०६। - संग्रहनय दो प्रकारका है-शुद्ध सग्रह और अशुद्धसंग्रह । नोट-पर, सामान्य व शुद्ध संग्रह एकार्थवाची हैं और अपर, विशेष व अशुद्ध सग्रह एकार्थवाची हैं। जो परस्पर अविरोधरूपसे सबके सबको कहता है वह सामान्य संग्रहनय बतलाया गया है, और जो एक जातिविशेषका ग्राहक अभिप्रायवाला है वह विशेष संग्रहनय है। ध.१२/४,२,६,११/२६४-३०० संगहणयस्स णाणावरणीयवेयणा जीवस्स । (मूल सू. ११) एवं सुद्धसंगहणयवयणं, जीवाणं तेहिं सह णोजीवाणं च एयत्तब्भुवगमादो । ...संपहि असुद्धसंगहविसए सामित्तपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि । 'जीवाणं' वा। (म.सू. १२) । संगयि णोजीव-जीवबहुत्तब्भुवगमादो। एदमसुद्धसंगहणयवयणं । = 'संग्रहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना जीवके होती है।सू. ११।" यह कथन शुद्ध संग्रहनयकी अपेक्षा है, क्योंकि जीवोंके और उनके साथ नोजीवोंकी एकता स्वीकार की गयी है। .. अथवा जीवोंके होती है ।सू.१२कारण कि संग्रह अपेक्षा नोजीव और जीव बहुत स्वीकार किये गये हैं। यह अशुद्ध संग्रह नयकी अपेक्षा कथन है। पं. का/ता.वृ./७१/१२३/१६ सर्व जीवसाधारणकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणसमूहेन शुद्धजीवजातिरूपेण संग्रहनयेनै कश्चैव महात्मा। सर्व जीवसामान्य, केवलज्ञानादि अनन्तगुणसमूहके द्वारा शुद्ध जीव जातिरूपसे देखे जायें तो संग्रहनयकी अपेक्षा एक महात्मा ही दिखाई देता है। ५. संग्रहामासके लक्षण व उदाहरण श्लो, वा.४/१/३३/श्लो, ५२-५७ निराकृतविशेषस्तु सत्ताद्वैतपरायणः । तदाभासः समाख्यातः सद्भिदष्टेष्टबाधनात् ॥५२॥ अभिन्न व्यक्तिभेदेभ्यः सर्वथा बहुधानकम् । महासामान्यमित्युक्तिः केषां चिद्दुर्न यस्तथा १५३। शब्दब्रह्मति चान्येषां पुरुषाद्वैतमित्यपि । संवेदनाद्वयं चेति प्रायशोऽन्यत्र दर्शितम् ॥५४॥ स्वव्यक्त्यात्मकतैकान्तस्तदाभासोऽप्यनेकधा । प्रतीतिबाधितो बोध्यो निःशेषोऽप्यनया दिशा ॥५७१ -- सम्पूर्ण विशेषोंका निराकरण करते हुए जो सत्ताद्वैतवादियों का 'केवल सत् है, अन्य कुछ नहीं, ऐसा कहना; अथवा सांख्य मतका 'अहंकार तन्मात्रा आदिसे सर्वथा अभिन्न प्रधान नामक महासामान्य है। ऐसा कहना; अथवा शब्दाद्व तवादी वैयाकरणियोंका 'केवल शब्द है', पुरुषा तवादियोंका 'केवल ब्रह्म है', संविदाद्वैतवादी बौद्धोंका 'केवल संवेदन है' ऐसा कहना, सब परसंग्रहाभास है। (स्या.म./२८/३१६/६ तथा ३१७/६)। अपनी व्यक्ति व जातिसे सर्वथा एकात्मकपनेका एकान्त करना अपर संग्रहाभास है, क्योंकि वह प्रतीतियोंसे बाधित है। स्या, म./२८/३१७/१२ तद्वद्रव्यत्वादिकं प्रतिजानानस्तविशेषान्निह्न - वानस्तदाभासः । धर्म अधर्म आदिकोंको केवल द्रव्यत्व रूपसे स्वीकार करके उनके विशेषोंके निषेध करनेको अपर संग्रहाभास कहते हैं। ४. पर अपर तथा सामान्य व विशेष संग्रहनयके लक्षण व उदाहरण श्लो. वा./४/१/३३/श्लो. ५१,५५,५६ शुद्धद्रव्यमभिप्रैति सन्मात्र संग्रह. परः । स चाशेषविशेषेषु सदौदासीन्यभागिह ॥५१॥ द्रव्यत्वं सकलद्रव्यव्याप्यभिप्रेति चापरः। पर्यायत्वं च निःशेषपर्यायव्यापिसंग्रहः ॥५५॥ तथैवावान्तरान भेदान् संगृह्येकत्वतो बहुः । वर्ततेयं नयः सम्यक् प्रतिपक्षानिराकृतेः ॥५६॥ =सम्पूर्ण जीवादि विशेष पदार्थों में उदासीनता धारण करके जो सबको 'सत् है' ऐसा एकपने रूपसे (अर्थात महासत्ता मात्रको) ग्रहण करता है वह पर संग्रह (शुद्ध संग्रह ) है ।५१॥ अपनेसे प्रतिकूल पक्षका निराकरण न करते हुए जो परसंग्रहके व्याप्य-भूत सर्व द्रव्यों व सर्व पर्यायोंको द्रव्यत्व व पर्यायत्वरूप सामान्य धर्मों द्वारा, और इसी प्रकार उनके भी व्याप्यभूत अवान्तर भेदोंका एकपनेसे संग्रह करता है वह अपर संग्रह नय है (जैसे नारक मनुष्यादिकोंका एक 'जीव' शब्द द्वारा; और 'खट्टा', 'मीठा' आदिका एक 'रस' शब्द द्वारा ग्रहण करना-); (न.च, बृ./२०१); (स्या.म./२८/३१७/७) । न.च./श्रुत/प.१३ परस्पराविरोधेन समस्तपदार्थ संग्रहैकवचनप्रयोगचातुर्येण कथ्यमानं सर्व सदित्येतत सेना वनं नगरमित्येतव प्रभृत्यनेकजातिनिश्चयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं सामान्यसंग्रहनयः। जीवनिचयाजीवनिचयहस्तिनिचयतुरगनिचयरथनिचयपदातिनिचय इति निम्बुजंबीरजंबमाकंदनालिकेरनिचय इति । द्विजवर, वणिग्वर, तलवराद्यष्टादशश्रेणीनिचय इत्यादि दृष्टान्त. प्रत्येकजातिनिचयमेकवचनेन स्वीकृत्य कथनं विशेषसंग्रहनय. । तथा चोक्त--'यदन्योऽन्याविरोधेन सर्व सर्वस्य वक्ति यः। सामान्यसंग्रहः प्रोक्तश्चैकजातिविशेषकः ॥ - परस्पर अविरोधरूपसे सम्पूर्ण पदार्थों के संग्रहरूप एकवचनके प्रयोगके चातुर्यसे कहा जानेवाला 'सब सत स्वरूप है', इस प्रकार सेना-समूह, वन, नगर वगैरहको आदि लेकर अनेक जातिके समूहको एकवचनरूपसे स्वीकार करके, कथन करनेको सामान्य संग्रह नय कहते है। जीवसमूह, अजीवसमूह; हाथियोंका झुण्ड, घोड़ोंका झुण्ड, रथोंका समूह, पियादे सिपाहियोंका समूह; निंबू, जामुन, आम, वा नारियलका समूह; इसी प्रकार द्विजवर, बणिश्रेष्ठ, कोटपाल वगैरह अठारह श्रेणिका समूह इत्यादिक दृष्टान्तोंके द्वारा प्रत्येक जातिके समूहको नियमसे एकवचनके द्वारा स्वीकार करके कथन करनेको विशेष संग्रह नय कहते है। कहा भी है नेकधा न्यत्र दर्शितमाया पुरुषातामत्यु ना-समूह, बनपसे स्वीकार करजीवसमूह ६. संग्रहनय शुद्धद्रव्यार्थिक नय है ध.१/१,१,१/गा.६/१२ दव्वट्ठिय-णय-पवई सुद्धा संगह परूवणा विसयो। -संग्रहनयकी प्ररूपणाको विषय करना द्रव्यार्थिक नयकी शुद्ध प्रकृति है । (श्लो.वा४/१/३३/श्लो.३७/२३६); (क.पा.१/१३-१४/गा.८६/२२०); (विशेष दे०/नय/IVI)। और भी दे० नय/III/१/१-२ यह द्रव्याथिकनय है। * व्यवहारनय निर्देश -दे० पृ. ५५६ ५. ऋजुसूत्रनय निर्देश १. ऋजुसूत्र नयका लक्षण १. निरुक्त्यर्थ स.सि./१/३३/१४२/8 अजु प्रगुणं सूत्रप्रति तन्त्रयतीति ऋजुमूत्रः । -- अजुका अर्थ प्रगुण है । ऋजु अर्थात् सरलको सूत्रित करता है ५. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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