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________________ नय और भी देखो-पीछे निरुक्त्यर्थ मे - 'आप' तथा 'स्या. म' । तथा वक्तु' अभिप्रायमे 'प्रमेयकमल मार्तण्ड' | ४. प्रमाणगृहीत वस्तुका एकअंश माही आ. मी./ १०६ सपने साध्यस्य साधम्र्म्यादिविरोधत स्याद्वाद प्रविभक्तार्थविशेषपको नयः १०६ साधर्मीका विरोध न करते हुए साधर्म्य से हो साध्यको सिद्ध करनेवाला तथा स्वाद्वाद प्रकाशित पदार्थोकी पर्यायोको प्रगट करनेवाला नय है। (ध. ६/४, १.४५ /गा २२ / १६० ) ( क. पा. १ / १३-१४/३ १७४/०२/२१०- रचार्थभाष्यसे उद्भूत) | स. सि /९/६/२०/७ एवं ह्युक्तं प्रगृह्य प्रमाणत परिणतिविशेषादर्थावधारणं नय' । आगम मे ऐसा कहा है कि वस्तुको प्रमाणसे जानकर अनन्तर किसी एक अवस्था द्वारा पदार्थका निश्चय करना नय है । रा.वा./१/३३/९/१४/२९ प्रमाणप्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः । = प्रमाण द्वारा प्रकाशित किये गये पदार्थका विशेष प्ररूपण करनेवाला नय है। (श्लो० वा. ४/५/३२/६/२१८)। ५१४ आ.प./ प्रमाणेन बस्तुसंगृहीतार्थैकांशी नय' । प्रमाणके द्वारा संगृहोत वस्तुके अर्थ के एक अंशको नय कहते है। (नयचक्र/भुत/पृ. २) । ( न्या. दी./३/६८२/१२६/७)। प्रमाणनयतत्त्वालंकार/७/१ से स्या. म./२८/३१६/२७ पर उद्धृत - नीयते येन श्रुताख्यानप्रमाण विषयीकृतस्य अर्थस्य अंशस्तदितर शौदासीन्यत स प्रतिपत्तुरभिप्रायविशेषो नयः इति । श्रुतज्ञान प्रमाणसे जाने हुए पदार्थोंका एक अंश जानकर अन्य अंशोके प्रति उदासीन रहते हुए अभिप्रायको नय कहते है (नय रहस्य / पृ. ७९) ( जैन तर्क / भाषा/पू. २१) नय प्रदीप / यशोविजय / पृ. १७) । ध. १/१,९,१ / ८३/९ प्रमाणपरिगृहोतार्थेकदेशे वस्त्वध्यवसायो नयः । प्रमाणके द्वारा ग्रहण की गयी वस्तुके एक अंशमै वस्तुका निश्चय करनेवाले ज्ञानको न कहते है (म. १/४१.४२/१६३९) (.पा. १/१३-१४/६१६८/१६६/४ ) । B प. ६/४.१.४६/६ तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकेरप्यभाणि प्रमाणव्यपाश्रयपरिणाम विकल्प वशीकृतार्थ विशेषप्ररूपणप्रवणः प्रणिधिर्य' स नय इति । प्रमाणव्यपाश्रयस्तत्परिणामविकल्पनशीकृतानां अर्थविशेषाणां प्ररूपणे प्रवण. प्रणिधानं प्रणिधि प्रयोगो व्यवहारात्मा प्रयोक्ता वा स नयः ।, = प्रभाचन्द्र भट्टारकने भी कहा है-प्रमाणके आश्रित परिणामभेदोंसे वशीकृत पदार्थ विशेषोंके प्ररूपण में समर्थ जो प्रयोग हो है वह नय है उसीको स्पष्ट करते हैं जो प्रमाणके आश्रित है तथा उसके आश्रयसे होनेवाले ज्ञाताके भिन्न-भिन्न अभिप्रायोंके अधीन हुए पदार्थ - विशेषों के प्ररूपण में समर्थ है, ऐसे प्रणिधान अर्थात् प्रयोग अथवा व्यवहार स्वरूप प्रयोक्ताका नाम नय है । ( क. पा. १/१३-१४/१७५/२१० ) । 1 स्या. म / २८/३१०/- प्रमाणप्रतिपन्नार्थैकदेशपरामर्शो नयः ।... प्रमाणप्रवृत्तेरुत्तरकालभावी परामर्श इत्यर्थः । = प्रमाणसे निश्चित किये हुए पदार्थोंके एक अंश ज्ञान करनेको नय कहते हैं । अर्थात प्रमाण द्वारा निश्चय होने जानेपर उसके उत्तरकालभावी परामर्शको नय कहते हैं। ५. तनका विकल्पःश्रुतज्ञानका स्लो. व. २/१/६/१को २०/३६० श्रुतता नयाः सिद्धाश्रुतज्ञानको मूलकारण मानकर ही नयज्ञानोकी प्रवृत्ति होना सिद्ध माना गया है। Jain Education International I नय सामान्य आ. ५/६ विकल्पो वा (नयः तज्ञानके विकल्पको न कहते है । (न.च.वृ./१७४ ) ( का. अ./मू./२६३) । = २. उपरोक्त लक्षणका समीकरण घ. १/४.१,४५/१६२० को नयो नाम तुरभिप्रायो नय अभिप्राय इत्यस्य को प्रमाणपरिगृहीतार्थक देशवरत्वध्यवसाय अभिप्रायः । युक्तितः प्रमाणात अर्थपरिग्रह, द्रव्यपर्याययोरन्यतरस्य अर्थ इति परिग्रहो वा नयः । प्रमाणेन परिच्छिन्नस्य वस्तुनः द्रव्ये पर्याये वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् । प्रश्न- नय किसे कहते हैं उत्तर ज्ञाताके अभिप्रायको नम कहते हैं। प्रश्न अभिप्राय इसका क्या अर्थ है उत्तर प्रमाणसे गृहीत वस्तुके एक देश में वस्तुका निश्चय ही अभिप्राय है (स्पष्ट ज्ञान होनेसे पूर्व तो ) युक्ति अर्थात् प्रमाणसे अर्थ के ग्रहण करने अथवा इव्य और पर्यायोंने-से किसी एक को ग्रहण करनेका नाम नय है । ( और स्पष्ट ज्ञान होनेके पश्चात ) प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके द्रव्य अथवा पर्यायमें अर्थात् सामान्य या विशेषमें वस्तुके निश्चयको नय कहते हैं, ऐसा अभिप्राय है । और भी दे० नय III / २ / २ । ( प्रमाण गृहीत वस्तुमें नय प्रवृत्ति सम्भव है ) ३. नयके मूल भेदोंके नाम निर्देश रा.सु./९/२३ मैगसंयवहारसूत्र शब्दसमभिरूडेवंभूता नयाः ।मैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र शब्द, समभिरूड और एवंभूत मे सात नय हैं। (इ.पु./५८/४९), (घ१/१.१.१/८०/५), (न.च.वृ./१८५). (आ.प./५): (स्या.म./२०/३१०/१५) ( इन सबके विशेष उत्तर भेद देखो नम / III ) | स.सि./१/३३ / १४०/८ स द्वेधा द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । उस (नय) के दो भेद हैं--अध्यार्थिक और पर्यायार्थिक (स.सि./ १/६/२०१६). (रा. वा / १२ /१/२/४/४ ). ( रा. का/१/२३/२/१४/२४). (८.१/१. ११/०३/१०) (६.६/४.१.४५/१६७/१०), (क.पा./१३-१४/११००/२११/४ ) ( आ. प. / ५ / गा. ४) (न.च.वृ./१४८), (स.सा./आ./१३/क. ८की टीका), (पं.का./४) (स्याम /२०/२१७/१). ( इनके विशेष उचर भेद दे० नय / IV) । आ.प./५/गा. ४ यिवहारणया सभेयाण ताण सम्मानं सम नयों के मूल दो भेद हैं - निश्चय और व्यवहार (न.च.वृ./१८३ ), ( इनके विशेष उत्तर भेद दे० नय/V) । का.अ./मू./२६५ सो श्चिय एक्को धम्मो वाचयसदो वि तस्स धम्मस्स । जं जाणदि तं गाणं ते तिणि वि णय बिसेसा य । = वस्तुका एक धर्म अर्थात् 'अर्थ' इस धर्मका वाचक शब्द और उस धर्मको जाननेबाटा ज्ञान ये तीनों ही नयके भेद हैं। इन नयाँ सम्बन्धी चर्चा दे० नय / I / ४) । पं. ध. / पू. /५०५ द्रव्यनयो भावनयः स्यादिति भेदाद्विधा च सोऽपि यथा । = द्रव्यनय और भावनयके भेदसे नय दो प्रकारका है। (इन सम्बन्धी लक्षण दे० नय / I / ४) । ३० नम // (वस्तुके एक-एक धर्मको आश्रय करके नयके संख्यात असंख्यात व अनन्त भेद हैं ) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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