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________________ काय २. षटकाय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ १. काय सामान्यका लक्षण व शंकाएँ ४. कार्माण काययोगियोंमें यह लक्षण कैसे घटित होगा १. बहुप्रदेशीके अर्थ में कायका लक्षण ध. १/१,१,४/१३५/३. कार्मणशरीरस्थानी जीवानां पृथिव्यादिकर्म भिश्चितनोकर्मपुद्गलाभावादकायत्वं स्यादिति चेन्न, तच्चयनहेतुकर्मणनि. सा./मू./ ३४ काया हु बहुपदेसत्तं । बहुप्रदेशीपना ही कायत्व है। स्तत्रापि सत्वतस्तद्वयपदेशस्य न्याय्यत्वात । अथवा आत्मप्रवृत्त्यु(प्र. सा/त. प्र. व ता. वृ/१३५ ).. पचितपुदगल पिण्ड. काय.। अत्रापि स दोषो न निर्वायत इति चेन्न, स. सि /१/१/२६५/५ 'काय'शब्द' शरीरे व्युत्पादित' इहोपचारादध्या- आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गल पिण्डस्य तत्र सत्वात्। आरमप्रवृत्त्युपचितरोप्यते । कुतः उपचार' । यथा शरीरं पुद्गलद्रव्यप्रचयात्मक तथा नोकर्म पुद्गलपिण्डस्य तत्रासत्त्वान्न तस्य कायव्यपदेश इति चेन्न, धर्मादिष्वपि प्रदेशप्रचयापेक्षया काया इव काया इति । व्युत्पत्तिसे तञ्चयनहेतुकमणस्तत्रास्तित्वतस्तस्य तद्व्यपदेशसिद्धेः। -प्रश्नकाय शब्द का अर्थ शरीर है तो भी यहाँ उपचारसे उसका आरोप कार्मणकाययोगमें स्थित जीवके पृथिवी आदिके द्वारा संचित हुए किया है। प्रश्न-उपचारका क्या कारण है ! उत्तर-जिस प्रकार नोकर्म पुद्गलका अभाव होनेसे अकायरव प्राप्त हो जायेगा ! उत्तरशरीर पुद्गल व्यके प्रचय रूप होता है, उसी प्रकार धर्मादिक द्रव्य ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि, नोकर्मरूप पुद्गलोंके संचयका भी प्रदेश प्रषयकी अपेक्षा कायके समान होनेसे काय कहे गये हैं। कारण पृथिवी आदि कर्मसहकृत औदारिकादि नामकर्मका सत्त्व (रा वा./५/१/७-८/४३२/२६ ) (नि. सा/ता. ३/३४ ) (द्र सं/टी./ कार्मणकाययोग अवस्थामें भी पाया जाता है, इसलिए उस अवस्थामें २४/७०/१)। भी कायपनेका व्यवहार बन जाता है। २. अथवा योगरूप आरमाकी स्या. म./२६/३२६/२० 'तेषां संधे वाचूर्वे' इति चिनोतेभि आदेशश्च प्रवृत्तिसे संचित हुए औदारिकादिरूप पुदगलपिण्डको काय कहते हैं। कत्वे कायः समूह जीवकायः पृथिव्यादि। यहाँ 'संधे वानूधै' सूत्र प्रश्न-कायका इस प्रकारका लक्षण करनेपर भी पहले जो दोष दे से 'चि' धातु से 'घ' प्रत्यय होनेपर 'च' के स्थान में 'क' हो जानेसे आये हैं वह दूर नहीं होता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योंकि, योग'काय' शब्द बनता है। अतः जीवोंके समूहको जीवकाय कहते हैं। रूप आत्माको प्रवृत्तिसे संचित हुए कर्मरूप पुद्गगलपिण्डका कार्मण काययोग अवस्थामें सदभाव पाया जाता है। अर्थात जिस समय २. शरीरके अर्थमें कायका लक्षण आत्मा कार्मणकाययोगकी अवस्थामें होता है, उस समय उसके पं.सं /प्रा./१/७५. अप्पप्पबुत्तिसंचियपुग्गल पिंड वियाण काओ त्ति। ज्ञानावरणादि आठों काँका सद्भाव रहता ही है, इसलिए इस सो जिणमयहि भणिओ पुढवा कायाइयो छद्धा ।। -योगरूप अपेक्षासे उसके कायपना बन जाता है। प्रश्न-कार्मणकाय योगरूप आरमाकी प्रवृत्तिसे संचयको प्राप्त हुए औदारिकादिरूप पुद्गल पिंड अवस्थामें योगरूप आत्माकी प्रवृत्तिसे संचयको प्राप्त हुए ( कर्मरूप पुद्गलपिण्ड भले ही रहो परन्तु) नोकर्मरूप पुदगलपिण्डका असत्त्व को काय जानना चाहिए। (ध. १/१,१,४/ ८६/१३६) (पं. सं./ होनेके कारण कार्मण काययोगमें स्थित जीवके 'काय' यह व्यपदेश सं./१/१५३ ) । नहीं बन सकता । उत्तर-नोकर्म पुद्गलपिण्डके संचयके कारणभूत घ. ७/२,१,२/६/८ "आत्मप्रवृत्त्युपचितपुद्गलपिण्ड' काया, पृथिवी- कर्मका कार्मणकाययोगरूप अवस्थामें भी सद्भाव होनेसे कार्मणकायकायादिनामकर्मजनितपरिणामो वा कार्य कारणोपचारेण कायः, योगमें स्थित जीवके 'काय' यह संज्ञा बन जाती है । चीयन्तै अस्मिन् जीवा इति व्युत्पत्तेर्वा कायः ।" - आरमाकी प्रवृत्ति द्वारा उपचित किये गये पुदगलपिंडको काय कहते हैं। अथवा २. षट्काय जीव व मार्गणा निर्देश व शंकाएँ पृथिवीकाय आदि नामकर्मों के द्वारा उत्पन्न परिणामको कार्यमे कारणके उपचारसे काय कहा है। अथवा, जिसमें जीवोंका संचय १. षट्काय जीव व मार्गणाके भेद-प्रभेद किया जाय' ऐसी व्युत्पत्तिसे काय (शब्द) बना है। (रा. वा./8/७ ११/६०३/३० लक्षण सं.१) (ध. १/१,१,४/१३८/१ तथा १,१.३५/३६६ ष. वं. १/१,१/ सूत्र ३६-४२/२६४-२०२" (ति. प./५/२७८-२८०) २ में लक्षण नं.१ व २)। (प - पर्याप्त; अप = अपर्याप्त ) काय ३. उपरोक्त लक्षणकी ईट पत्थरों के साथ अतिव्याप्ति पृथिवी अप तेज वायु बनस्पति त्रस अकाय । नहीं है। ध.१११.१,४/१३८/१ "चीयत इति कायः। नेष्टकादिचयेन व्यभिचारः बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म | प्रत्येक साधारण प. अप. पृथिव्यादिकर्मभिरिति विशेषणाव। औदारिकादिकर्मभिः पुद्गल- । । । । । । । प.अप. प. अप प. अप. प. अप.प. अप. विपाकिभिश्चीयत इति चेन्न, पृथिव्यादिकर्मणां सहकारिणामभावे ततश्चयनानुपपत्तेः। -प्रश्न-जो संचित किया जाता है उसे काय मादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म कहते हैं, ऐसी व्याप्ति बना लेनेपर, कायको छोडकर ईंट आदिके संचयरूप विपक्षमें भी यह व्याप्ति घटित हो जाती है, अतः व्यभिचार प. अप. प अप प. अप. प. अप. प. अप. प. अप. दोष आता है। उत्तर-नहीं आता है; क्योंकि, पृथिवी आदि कर्मोंके उदयसे इतना विशेषण जोड़ कर ही, 'जो संचित किया जाता है' रा. वा./8/७/११/६०३/३१ तत्संबन्धिजीवः षड्विध'-पृथिवीकायिक' उसे काय कहते हैं ऐसी व्याख्या की गयी है। प्रश्न-'पुद्गलविपाकी अप्कायिक' तेजस्कायिक कायुकायिका. वनस्पतिकायिकः त्रस औदारिक आदि कर्मों के उदयसे जो संचित किया जाता है उसे काय कायिकश्चेति ।- काय सम्बन्धी जीव छह प्रकारके है-पृथिवीकहते हैं, ऐसी व्याख्या क्यों नहीं की गयी । उत्तर-ऐसा नहीं है, कायिक, अप्कायिक, तेज कायिक, बासु कायिक, बनस्पति कायिक क्योंकि, सहकारीरूप पृथिवी आदि नामकर्म के अभाव रहनेपर केवल और त्रसकायिक । ( यहाँ 'अकाय' का ग्रहण नहीं किया है, यही औदारिक आदि नामकर्म के उदयसे नोकर्म वर्गणाओंका संचय नहीं ऊपरवालेसे इसमें विशेषता है। इसका भी कारण यह है कि ऊपरहो सकता। काय मार्गणाके भेद हैं और यहाँ षट्काय जीवोके।) (मू. आ./२०४ 71 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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