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________________ नक्षत्रमाला व्रत नमस्कार युक्त है, और सदा कलुषचित्त है, उसे नपुंसकवेद जानना चाहिए। (ध. १/१,१,१०१/१७१/३४२ ); (गो. जो./म् /२७५/५६६ ) । स. सि./२/१२/२००/७ नपुंसकवेदोंदयात्तदुभयशक्तिविकलं नपुंसकम् । नपुंसकवेदके उदयसे जो (स्त्री व पुरुष) दोनो शक्तियोसे रहित है वह नपुंसक है। (ध.६/१,६-१/२४/४६/६)। ध.१/१,१,१०१/३४१/११ न स्त्री न पुमान्नपंसकमुभयाभिलाष इति यावत् । -जो न स्त्री है और न पुरुष है, उसे नपुंसक कहते हैं, अर्थात जिसके स्त्री और पुरुष विषयक दोनों प्रकारकी अभिलाषा रूप (.मैथुन संज्ञा) पायी जाती है, उसे नपंसक कहते है। (गो. जी./जी. प्र./२७१/५६१/१७)। २. द्रव्य नपुंसक निर्देश पं.सं./प्रा./१/१०७ उभयलिंगव दि रित्तो। स्त्री व पुरुष दोनो प्रकारके लिगोसे रहित हो वह नपुंसक है। (ध.१/१,१,१०१/१७२/३४२); (गो. जो./मू./२७५/५६६)। गो. जी./जी. प्र./२७१/५६२/१ नपुंसकवेदोदयेन निर्माणनामकदिय युक्ताङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयेन उभयलिङ्ग व्यतिरिक्तदेहाङ्कितो भवप्रथमसमयमादि कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यन्तं द्रव्यनपुंसकं जीवो भवति । गो, जो./जी./प्र./२७५/५१७/४ उभयलिङ्गव्यतिरिक्तः श्मश्रुस्तनादिपुंस्त्रीद्रव्यलिंगरहित. · जीवो नपुंसकमिति । = नपुंसकवेदके उदयसे तथा निर्माण नामकर्म सहित अंगोपांग नामकर्मके उदयसे स्त्री व पुरुष दोनों लिगोंसे रहित अर्थात् मूंछ, दाढ़ी व स्तनादि, पुरुष व स्त्री योग्य द्रब्य लिगसे रहित देहसे अंकित जीव, भवके प्रथम समयसे लेकर उस भवके चरम समय पर्यन्त द्रव्य नपुंसक होता है। त्रि. सा./४३६ किन्तियपडतिसमए अट्ठम मपरिक्वमेदि मज्झण्ह । अणुराहारिक्खुदओ एवं सेसे वि भासिज्जो ।४३६॥ -- कृत्तिका नक्षत्रके अस्तके समय इससे आठवॉ मघा नक्षत्र मध्याह्नको प्राप्त होता है अर्थात बोचमें होता है और उस मघासे आठवॉ नक्षत्र उदयको प्राप्त होता है। ऐसे ही रोहिणी आदि नक्षत्रोंमें-से जो विवक्षित नक्षत्र अस्तको प्राप्त होता है उससे आठवाँ नक्षत्र मध्याह्नको और उससे भी आठवाँ नक्षत्र उदयको प्राप्त होता है। * नक्षत्रोंकी कुल संख्या, उनका लोकमें अवस्थान व संचार विधि-दे. ज्योतिषदेव /२/३,६,७ । नक्षत्रमाला खत-प्रथम अश्विनी नक्षत्रसे लेकर एकान्तरा क्रमसे ५४ दिनमें २७ उपवास पूरे करे। नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे। (व्रत-विधान-संग्रह/पृ.५३); (किशन सिह क्रियाकोश)। नगर-(ति, प./४/१३१८)- शयरं चउगोउरेहि रमणिज्जं ।-चार गोपुरो ( व कोट ) से रमणीय नगर होता है । (ध. १३/५,५,६३/३३४/ १२); (त्रि. सा./६७४-६७६)। म. पु./१६/१६६-१७० परिखागोपुराट्टालवप्रप्राकारमण्डितम् । नानाभवनविन्यासं सोद्यान सजलाशयम् ।१६६। पुरमेवं विध शस्तं उचितोड़शस्थितम् । पूर्वोत्तर-प्लवाम्भस्कं प्रधान पुरुषोचितम् ॥१७०। जो परिखा, गोपुर, अटारी, कोट और प्राकारसे सुशोभित हो, जिसमें अनेक भवन बने हुए ही, जो बगीचे और तालाबोंसे सहित हो, जो उत्तम रीतिसे अच्छे स्थानपर बसा हुआ हो, जिसमें पानी का प्रवाह ईशान दिशाकी ओर हो और जो प्रधान पुरुषों के रहनेके योग्य हो वह प्रशंसनीय पुर अथवा नगर कहलाता है ।१६६-१७०। नग्नता-दे० अचेलत्व। नघुष-(प. पु./२२/श्लोक) हिरण्यगर्भका पुत्र तथा सुकौशलका पोता था ।१३। शत्रुको वश करनेके कारण इसे सुदास भी कहते थे। ।१३१॥ मांसभक्षी बन गया। रसोइयेने मरे हुए बच्चेका मांस खिला दिया ।१३८। नरमास खानेका व्यसनी हो जानेसे अन्तमें रसोइयेको ही रखा गया ।१४६। प्रजाने विद्रोह करके देशसे निकाल दिया। तम अणुवत धारण किये ।१४८ा राजाका पटबन्ध हाथी उसे उठाकर ले गया, जिस कारण उसे पुनः राज्यपद मिला ।१४। फिर उसने अपने पुत्रको जोतकर, समस्त राज्य उसीको सौप स्वय दीक्षा धारण कर ली।१२। नति-दे० नमस्कार। नदो-१. लोक स्थित नदियोंका निर्देश व विस्तार आदि-दे० लोक३/६:२. नदियोंका, लोकमें अवस्थान-दे० लोक| ३/११ । नदीस्रोत न्यायघ.१/१,१,१६/१८०/७ नदोस्रोतोन्यायेन सन्तीत्यनुवर्तमाने। =नदी स्रोतन्यास 'सन्ति' इस पदकी अनुवृत्ति चली आती है। नन्नराज-आप बर्द्धमानपुर के राजा थे, इनके समयमें ही बर्द्धमानपुरके श्रीपार्श्वनाथके चैत्यालय में श्रीमज्जिनसेनाचार्य ने हरिवंशपुराणकी रचना प्रारम्भ की थी। समय-श ७००-७२५ ( ई०७७८८०३); (ह. पु./६६/५२-५३)। नपुंसक-१. माव नपुंसक निर्देश पं.सं./प्रा./१/१०७ णेवित्थि ण वि पुरिसो णउंसओ उभयलिंगवदिरित्तो। इट्टाव ग्गिसमाणो वेदणगरुओ कलुसचित्तो। -जो भावसे न स्त्रीरूप है न पुरुषरूप, जो द्रव्यकी अपेक्षा तो स्त्रीलिंग व पुरुषलिंगसे रहित है। इंटोंके पकानेवाली अग्निके समान वेदकी प्रबल वेदनासे ३. नपुंसक वेदकर्म निर्देश स.सि./८/8/३८६/३ यदुदयान्नपुंसकान्भावानुपात्रजति स नपुंसकवेदः । -जिसके उदयसे नपुंसक सम्बन्धी भावोंको प्राप्त होता है (दे० भाव नपुंसक निर्देश ), वह नपुंसक वेद है। (रा.वा /६/८/४/५७४/२५) (गो. क./जी. प्र./३३/२८/१)। 6. अन्य सम्बन्धित विषय १. द्रव्य भाव नपुंसकवेद सम्बन्धी विषय । -दे० वेद । २. नपुंसकवेदी भी 'मनुष्य' कहलाता है। -दे. वेद/२। ३. साधुओंको नपुंसककी संगति वर्जनीय है।-दे० संगति। ४. नपुंसकवेद प्रकृतिके बन्ध योग्य परिणाम । -दे० मोहनीय/३६ । ५. नपुंसकको दीक्षा व मोक्षका निषेध।-दे० वेद/७ । नभ:सेन वादन नभ-एक ग्रह-दे० ग्रह । नभस्तिलक-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका नगर -दे० विद्याधर । नमस्कार-१. नमस्कार व प्रणाम सामान्य म.आ./२५ अरहंतसिद्धपडिमातवसुदगुणगुरूण रादीणं । किदिकम्मणि दरेण य तियरणसकोचणं पणमो।२३ - अहंत व सिद्ध प्रतिमाको, तप व श्रुत व अन्य गुणोंमें प्रधान जो तपगुरु, श्रुतगुरु और गुणगुरु उनको तथा दीक्षा व शिक्षा गुरुको, सिद्धभक्ति आदि कृतिकर्म द्वारा (दे० कृतिकर्म/४/३) अथवा बिना कृतिकर्म के, मन, बचन व काय तीनोका संकोचना या नमस्कार करना प्रणाम कहलाता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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