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________________ धवल धूमकेतु क्योंकि अबायके द्वारा बस्तुके सिंगको ग्रहण करके उसके द्वारा उसके द्वारा कालान्तरमें अविस्मरणके कारणभूत संस्कारको उत्पन्न करनेवाला विज्ञान धारणा है, ऐसा स्वीकार किया है। ३. धारणा अप्रमाण नहीं है ध.१३/५,५.३३/२३शम चेदं गहिदग्गाहि ति अप्पमाण, अविस्सरणहुदुलिंगग्गाहिस्स गहिदगहणत्ताभावादो। -यह गृहीतग्राही होनेसे अप्रमाण है, ऐसा नहीं माना जा सकता है; क्योंकि अविस्मरणके हेतुभूत लिंगको ग्रहण करनेवाला होनेसे यह गृहीतग्राही नहीं ही सकता। परीक्षा, ३. अपोह प्रकरण, ४. परलोकसिद्धि, ५. क्षणभंगसिद्धि, ६. प्रमाण विनिश्चय टीका।। घवल-अपभ्रश भाषाबद्ध हरिवंश पुराणके कर्ता एक कवि । समय-वि.श. १०२२ । (हिन्दी जैन साहित्यका इतिहास/२७ । कामता प्रसाद) (ती./४/११६) धवल सेठ-कौशाम्बी नगरका एक सेठ था। सागरमें जहाज रुक गया तब एक मनुष्यको बलि देनेको तैयार हो गया। तब श्रीपालने जहाज चलाया। मार्गमें चोरोंने उसे पाँध लिया। तब श्रीपालने उसे छुड़ाया। इतने उपकारी उसी श्रीपालकी खी रैनमंजूषा पर मोहित होकर उसे सागरमें धक्का दे दिया। एक देवने रैन मंजूषाकी रक्षा की और सेठको खूब मारा। पीछे श्रीपालका संयोग होनेपर उससे क्षमा माँगी । (श्रीपाल चरित्र) धवला-आ. भ्रतबलि (ई १३६-१५६) कृत षट्खण्डागम अन्धके प्रथम ५ खण्डों पर ७२००० श्लोकप्रमाण एक विस्तृत टीका है, जिसे आ. वीरसेन स्वामीने ई. ८१६ में लिखकर पूरी की। (दे०परिशिष्ट१) धवलाचार्य-हरिवंशके कर्ता एक मुनि। समय-ई.श.११ । (वरांग चरित्र/प्र.२१-२२/पं. खुशालचन्द) घातकोखंड--मध्यलोकमें स्थित एक द्वीप है। ति.प./४/२६०० उत्तरदेवकुरूसं खेत्तेसुं तत्थ धादईरुक्खा। चेह्रति य गुणणामो तेण पुढं धादईखंडो ।२६००1 -धातकोखण्ड द्वीपके भीतर उत्तरकुरु और देवकुरु क्षेत्रोंमें धातकी वृक्ष स्थित है, इसी कारण इस द्वीपका 'धातकी खण्ड' यह सार्थक नाम है। (स.सि./३/३३/२२७/ ६), (रा.वा./३/३३/६/१६६/३) नोट-इस द्वीप सम्बन्धी विशेष (दे० लोक/४/२) धातु-शरीरमें धातु उपधातुओंका निर्देश-दे० जौदारिका । धात्री-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४ । २. बस्तिका का एक दोष-दे० वस्तिका। धान्य रस-दे० रस। धारणा-१. मतिज्ञान विषयक धारणाका लक्षण प.वं १३/५,६/सूत्र ४०/२४३ धरणी धारणा हवणा कोट्ठा पविठ्ठा । -धरणी, धारणा, स्थापना, कोष्ठा और प्रतिष्ठा ये एकार्थ नाम है। स. सि./१/१२/११/७ अवेतस्य कालान्तरेऽविस्मरणकारणं धारणा । यथा-सैवेयं बलाका पूर्वाह यामहमद्राक्षमिति। -अवाय शामके द्वारा जानी गयी वस्तुका जिस (संस्कारके घ./१) कारणसे कालान्तरमें बिस्मरण नहीं होता उसे धारणा कहते हैं। (रा.वा.१/११/४/ १०/८); (ध.१/१,१,११५/३५४/४), (घ.६/१, ६-१,१४/१८/७); (ध.६/४, १,४५/१४४/७), (ध. १३/१०५,३३/२३३/४); (गो. जी./.३०६/६६५), (न्या-दी./२/११/३२/७) २. धारणा ईहा व अवायरूप नहीं है ध.१३/५,५,३३/२३३/१ धारणापच्चओ किं ववसायसरूवो कि णिच्छयसरूवो त्ति । पढमपक्खे धारणेहापच्चयाणमेयत्त, भेदाभावादो। विदिए धारणावायपचयाणमेयत्तं, णिच्छयेभावेण दोण्णं भेदाभावादो ति। ण एस दोसो, अवेदवत्थुलिंगरगहणदुवारेण कालंतरे अविस्मरणहेदु- संस्कारजणं विण्णाणं धारणेत्ति अग्भुवगमादो ।-प्रश्न-धारणा ज्ञान क्या व्यवसायरूप है या क्या निश्चयस्वरूप है। प्रथमपक्षके स्वीकार करने पर धारणा और ईहा ज्ञान एक हो जाते हैं, क्योंकि उनमें कोई भेद नहीं रहता। दूसरे पक्षके स्वीकार करनेपर धारणा और अवाय ये दोनों ज्ञान एक हो जाते हैं, क्योंकि निश्चयभावकी अपेक्षा दोनोंमें कोई भेद नहीं है। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है; ७. ध्यान विषयक धारणाका लक्षण म.पु./२१/२२७ धारणा श्रुतनिर्दिष्टवीजानामवधारणम् । शास्त्रों में बत लाये हुए बीजाक्षरोंका अवधारण करना धारणा है। स.सा./ता.कृ./३०६/३८८/११ पञ्चनमस्कारप्रभृतिमन्त्रप्रतिमादिबहिर्द्रव्याबलम्बनेन चित्तस्थिरीकरणं धारणा। -पंचनमस्कार आदि मन्त्र तथा प्रतिमा आदि बाह्य द्रव्योंके आलम्बनसे चित्सको स्थिर करना धारणा है। १. अन्य सम्बन्धित विषय १. धारणाके शानपनेको सिद्धि । -दे० ईहा/३॥ २. धारणा व श्रुतशानमें अन्तर । -दे० श्रुतज्ञान//३॥ ३. धारणाशानको मतिशान कहने सम्बन्धी शंका समाधान -३० मतिज्ञान/३ । ४. अवग्रह आदि तीनों शानोंकी उत्पत्तिका क्रम ।-दे० मतिज्ञाना ५. धारणा शानका जघन्य व उत्कृष्ट काल। -दे० ऋद्धिा२।३ । ६. ध्यान योग्य पॉच धारणाओंका निर्देश। -२० पिण्डस्थ । ७. आग्नेयी आदि धारणाओंका स्वरूप। --दे० बह वह नाम । धारणी-विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। धारा-सर्व धारा, वर्गधारा आदि अनेकों विकल्प । के० गणित/II//RI धारा चारण-एक ऋद्धि-दे० ऋद्धि/४/७ । धारा नगरी-वर्तमान 'धार'-(म.पू /प्र.४६/पं. पन्नालाल ) धारावाहिक ज्ञान- दे० श्रुतज्ञान/११ । धारिणी एक औषध विद्या -दे० विद्या। धीरनि.सा./ता.बृ./७३ निखिलधोरोपसर्गविजयोपार्जितधीरगुणगम्भीराः । - समस्त घोर उपसर्गोंपर विजय प्राप्त करते हैं, इसलिए धीर और गुणगम्भीर ( वे आचार्य) होते हैं। आ.पा./टी./४३/१५६/१२ मेयं प्रति धियं बुद्धिमीरयति प्रेरयतीति धीर इति व्युपदिश्यते। - ध्येयों के प्रति जिनकी बुद्धि गमन करती है या प्रेरणा करती है उन्हें धीर कहते हैं। धुवसेन-दे० धवसेन । धुप वशमावत-ध्रुपदशमि वत धूप दशांग। खेवो जिन ठिग भाव अभंग । (यह बत श्वेताम्बर आम्नायमें प्रचलित है।) (बतविधान संग्रह/पृ. १३०); (नवलसाहकृत वर्द्धमान पुराण) धूमकेतु-१. एक ग्रह-दे० ग्रह। २. (ह.पु.४/श्लोक) पूर्वभवमें वरपुरका राजा वीरसेन था।१६३। वर्तमान भक्में स्त्री वियोगके जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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