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________________ धर्माधर्म 1 निष्क्रिय है और लोकाकाश भरमें फैले हुए धर्मादिकका लोकाकाशमे अवगाह है बाहर नहीं, यह इस सूत्रका तात्पर्य है |१२| सब लोकाकाश के साथ व्याप्ति दिखलानेके लिए सूत्र में कृत्स्न पद रखा है । घरमे जिस प्रकार घट अवस्थित रहता है, उस प्रकार लोकाकाशमे धर्म व अधर्म का अनगाह नहीं है किन्तु जिस प्रकार तिलमें तैल रहता है उस प्रकार सब लोकाकाशमें धर्म और अधर्मका अनगाह है |१३| यद्यपि धर्म और अधर्म द्रव्यमें अवगाहनरूप क्रिया नहीं पायी जातो, तो भी लोकाकाशमें सर्वत्र व्यापनेसे वे अवगाही हैं, ऐसा उपचार किया जाता है | १८| (रा.वा./५/१३/ १/४३६/१४), पं.का./प्र/८३), (प्र.सा./त.प्र./ १३६), (गो.जी. जी १/१८३/१०२४/-) ४८८ ५. व्याप्त होते हुए भी पृथक् सत्ताधारी है पं.का./मू./१६ धमाधम्मागास अपुथब्भू दाःसमाजपरिमाणा । अबुधगुणद्धिविसेसा करिति एत्तमण्णत्तं । ६६ - धम, अधर्म और आकाश, समान परिमाणवाले तथा अपृथग्भूत होनेसे, तथा पृथक् उपलब्धिविशेषवाले होने से एकत्व तथा अन्यत्वको करते है। (पं.का./मू./व टो./८७ ) स.सि./५/११/२००/११ अन्योऽयप्रदेश माहनशक्तियोगाद्वेदितव्य । यद्यपि ये एक जगह रहते है, तो भी अवगाहनशक्ति के योगसे, इनके प्रदेश परस्पर प्रविष्ट होकर व्याघातको प्राप्त नही होते । (रा. वा / ५ /१३/२-३ /४५६/१८) रा. वा/५/१६/१०-११/४६० / १ न धर्मादीना नानात्वम् कुतः । देशसंस्थानकालदर्शनस्पर्शनावगाहमाद्यभेदात १०० न अतस्तसि - | ११ | यत एव धर्मादीना देशादिभि अविशेषस्त्वया चोद्यते अत एव नानात्व सिद्धि, यतो नासति नानात्वेऽविशेषसिद्धि । न ह्येकस्याविशेषोऽस्ति । कि च यथा रूपरसादीनां तुल्यदेशादित्वे ने करव तथा धर्मादीनामपि नानात्वमिति । - प्रश्न - जिस देशमें धर्म द्रव्य है उसी देश अधर्म और आकाशादि स्थित हैं, जो धर्मका आकार है वही अधर्मादिका भी है, और इसी प्रकार कालकी अपेक्षा, स्पर्शनको अपेक्षा केला होने की अपेक्षा और अरूपत्वद्रव्यत्व तथा ज्ञेयत्व आदिकी अपेक्षा इनमें कोई विशेषता न होनेसे धर्मादि द्रव्योमे नानापना घटित नहीं होता उत्तर-जिस कारण तुमने धर्मादि द्रव्यो में एकत्वका प्रश्न किया है. उसी कारण उनकी भिन्नता स्वयं सिद्ध है। जब वे भिन्न-भिन्न है, तभी तो उनमें अमुक दृष्टियोसे एकत्वको सम्भावना की गयी है। यदि ये एक होते तो यह प्रश्न ही नहीं उठता। तथा जिस तरह रूप, रस आदिमे तुल्य देशकालत्व आदि होनेपर भी अपने-अपने विशिष्ट लक्षणके होनेसे अनेकता है, उसी तरह धर्मादि द्रव्योंमे भी लक्षणभेदसे अनेकता है (दे० धर्माधर्म/२/१) ६. लोकव्यापी माननेमें हेतु रा./५/१७/ १४६०/९४ अणुस्कन्धभेदात् पुगलानाए. असंख्येयदेशखाच आमना अवगाहना, एकदेशादिषु पुन असंख्येय भागादिषु च जीवानामवस्थानं युक्तमुक्तम् तु पुनरन्ये प्रदेश कृमलोकव्यापित्वमेव धर्माधर्मयी न पुनर संख्येयभागादिवृत्ति रित्येतत्कथमनपदिष्टहेतुकमवसातुं शक्यमिति । अत्र ब्रम- अवसेयमसशयम् । यथा मत्स्यगमनस्य जलमुपग्रहकारणमिति' नासति चले मत्स्यगमनं भवति तथा जीवानां प्रयोगविसा परि णामनिमित्तातिप्रकाकियो स्वाभमाणाना सर्वत्र भावात तदुपग्रह कारणाभ्यामपि धर्माधर्माभ्यां सर्वगाभ्यां भवितव्य नासतोस्तयोर्गतिस्थितिवृत्तिरिति । प्रश्नअणु स्कन्ध भेदरूप पुद्गल तथा असंख्यप्रदेशी जीव, ये तो अवगाही - Jain Education International २. दोनों के लक्षण व गुण गतिस्थितिहेतुत्व द्रव्य हैं। अत एक प्रदेशादिकमे पृगशोका और लोकके असंख्यातवे भाग आदिमे जोवोका अवस्थान कहना तो युक्त है। परन्तु जो तुल्य असंख्यात प्रदेशी तथा लोकव्यापी हैं, ऐसे धर्म और अधर्म द्रव्योंकी लोकके असंख्येय भाग आदिमे वृत्ति कैसे हो सकती है 1 उत्तर - निःसंशय रूपसे हो सकती है । 1 जैसे जल मछली के तेरनेमे उपकारक है, जल के अभाव में मछलीका तैरना सम्भव नहीं है, वैसे ही जीव और इगलोंकी प्रायोगिक और स्वाभाविक गति और स्थिति रूप परिणमन में धर्म और अधर्म सहायक होते हैं (दे० आगे धर्माधर्म / २)। क्योंकि स्वत: ही गति स्थिति ! लक्षणक्रियाको आरम्भ करनेवाले जोव व पुद्गल लोक में सर्वत्र पाये जाते है, अत: यह जाना जाता है कि उनके उपकारक कारणों को भी सर्वगत ही होना चाहिए क्योंकि उनके सर्वगत न होनेपर उनकी प्रवृत्ति होना सम्भव नहीं है। प्र.सा./त.प्र./ १३६ धर्माधर्मौ सर्वत्रलोके तन्निमित्तगमनस्थानानां जीवपुद्गलानां लोकाच हिस्तदेकदेशे च गमनस्थानासंभवात । धर्म और अधर्म द्रव्य सर्वत्र लोक है, क्योंकि उनके निमित्तसे जिनकी गति और स्थिति होती है, ऐसे जीव और पुद्गलोकी गति या स्थिति लोकसे बाहर नहीं होती, और न लोकके एकदेशमें होती है । ७. इन दानोंसे ही लोक व अलोइके विभागकी व्यवस्था है पं. का./मू./८० जादो अलोगनोगो जेसि सम्भावदो य गमगठिदी । जोनको गति स्थिति तथा अलोक और लोकका विभाग उन दो द्रव्योंके सद्भाव से होता है। स.सि /५/१२/२००/३ लोकालोकविभागश्च धर्माधर्मारिकाद्भाषासद्भावाद्वय असति हि तस्मिन्धर्मास्तिकाये जीवपुलान गतिनियमहेतुस्वभावाद्विभागो न स्यात् असति चाधर्मास्तिकायै स्थितेराश्रयनिमित्ताभावात स्थितेरभावो लोकालोकविभागाभावो वा स्यात् । तस्मादुभयसद्भावासद्भावाल्लोकालोकविभागसिद्धिः । - यह लोकालोकका विभाग धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षासे जानना चाहिए । अर्थात् धर्मास्विकाय और अधर्मास्तिकाय जहाँ तक पाये जाते हैं. वह टोकाकाश है और इससे बाहर अलोकाकाश है. यदि धर्मास्तिकायका सद्भाव न माना जाये तो जीव और पुद्गलों की गतिके नियमका हेतु न रहनेसे लोकालोक्का विभाग नहीं बनता। उसी प्रकार यदि अधर्मास्तिकायका सद्भाव न माना जाये तो स्थितिका निमित्त न रहने से जीव और पुद्गलों की स्थितिका अभाव होता है, जिससे लोकालोकका विभाग नहीं बनता। इसलिए इन दोनों के सद्भाव और असद्भावकी अपेक्षा लोकालोके विभागको सिद्धि होती है। (स.सि./१०/८/४०९/४) (रा.मा./४/९/२१/४२५/३) (न.च.वृ./१३५) २. दोनोंके लक्षण व गुण गतिस्थितिहेतुत्व १. दोनोंके लक्षण व विशेष गुण प्र. खा./मू./९३३ आगासरसवगाही धम्मदव्यस्त गमछेदतं । धम्मंदरदव्बस्स दु गुणो पुणो ठाणकारणदा... ...धर्म द्रव्यका गमनहेतुत्व और अधर्म द्रव्यका गुण स्थान कारणता हैं । (नि.सा./मू./३०); (पं.का./मू./८४८६), (रा. सू./२/१७): (प./१५/२३/६) (गो.जी./मू./ ६०२/१०६०), (नि.सा./ता.वृ./१) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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