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________________ ७. निश्चय व्यवहारधर्म में कथंचित् मोक्ष व बन्धका कारणपना १ निश्चयधर्म साक्षात् मोक्षका कारण स.सा./मू./१५६ मोत्तूण णिच्छयट्ठ ववहारेण विदुसा पवति । परमठमस्सिदाण हु जदीण कम्मरवओ विहिओ। -निश्चयके विषयको छोड़कर विद्वान् लोग व्यवहार [बत तप आदि शुभकर्म(टीका)] द्वारा प्रवर्तते है। परन्तु परमार्थ के आश्रित यतीश्वरोंके हो कर्मोंका नाश आगममें कहा है। यो.सा./यो./१६,४८ अप्पा-दसणु एक्कु परु अण्णु ण कि पि वियाणि । मोक्रवहँ कारण जोइया णिच्छइँ पहउ जाणि ।१६। रायरोस वे परिहरिवि जो अप्पाणि वसेइ । सौ घम्सु वि जिण उत्तियउ जो पचमगइ णेइ ।४८१ =हे योगिन् । एक परम आत्मदर्शन ही मोक्षका कारण है, अन्य कुछ भो मोक्षका कारण नहीं, यह तू निश्चय समझ ।१६। जो राग और द्वेष दोनोंको छोडकर निजात्मामे वसना है. उसे ही जिनेन्द्रदेवने धर्म कहा है। वह धर्म पंचम गतिको ले जानेवाला है। (नि.सा ता.वृ./१८ क ३४) । प.प्र./मू./२/३८/१५६ अच्छइ जित्तिउ कालु मुणि अप्प-सरूवि णिलोणु। संवरणिज्जर जाणि तुई सयल वियप्प विहीणु । मुनिराज जबतक आत्मस्वरूपमे लीन हुआ रहता है, सकल विकल्पोसे रहित उस मुनिको ही तू संवर निजरा स्वरूप जान । न.च.व./३६६ सुद्धसवेयणेण अप्पा मुचेइ कम्म णोकम्म। - शुद्ध सवेदनसे आत्मा कर्मों व नोकर्मोसे मुक्त होता है (पं.वि./१/८१)। २. केवल व्यवहार मोक्षका कारण नहीं स.सा./मू. १५३ वदणियमाणि धरता सीलाणि तहा तवं च कुव्वंता।। परमबाहिरा जे णिव्वाणं ते ण विदंति ।१५। -व्रत और नियमोको धारण करते हुए भी तथा शील और तप करते हुए भी जो परमार्थ से बाहर है, वे निर्वाणको प्राप्त नहीं होते (सू.पा./मू./१५); (यो.सा./यो./मू.'१/१८): (यो सा.अ. १/४८)। र.सा./७० ण हुदडइ कोहाई देहं दंडेइ कह खबइ कम्मं । सप्पो कि मुवइ तहा वन्मिउ मारिउ लोए ।७०। -हे बहिरात्मा! तू क्रोध, मान, मोह आदिका त्याग न करके जो व्रत तपश्चरणादिके द्वारा शरीरको दण्ड देता है, क्या इससे तेरे कर्म नष्ट हो जायेंगे। कदापि नहीं। इस जगदमें क्या कभी बिलको पीटनेसे भी सर्प मरता है। कदापि नहीं। ३. व्यवहारको मोक्षका कारण मानना अज्ञान है पं.का./मू./१६५ अण्णाणादो पाणी जदि मण्णदि सुद्धसंपओगादो। हवदि त्ति दुक्खमोक्ख परसमयरदो हवदि जीवो। -शुद्धसंप्रयोग अर्थात शुभ भक्तिभावसे दुःखमोक्ष होता है, ऐसा यदि अज्ञानके कारण ज्ञानी माने तो वह परसमयरत जीव है। ४. वास्तव में व्यवहार मोक्षका नहीं संसारका कारण है भा.पा./मू./८४ अह पुण अप्पा णिच्छदि पुण्णाई णिरवसेसाणि । तह विण पावदि सिद्धि संसारत्यो पुणो भमदि । = जो आत्माको तो प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं करते और सर्व ही प्रकारके पुण्यकार्योको करते हैं, वे भो मोक्षको प्राप्त न करके संसारमे ही भ्रमण करते हैं (स.सा./मू./१५४)। बा.अणु./५१ पार पज्जएण दु आसवकिरियाए णस्थि णिव्याण । संसारगमणकारणमिदि णिदं आसवो जाण । कर्मोका आस्रव करनेवाली (शुभ) क्रियासे परम्परासे भी निर्वाण नहीं हो सकता। इसलिए संसारमें भटकानेवाले आस्तवको बुरा समझना चाहिए। ७. निश्चय व्यवहारधर्ममें कचित् मोक्ष ब" नव.व./२६६ असुह मुहं चिय कम्म दुविहं तं दव्वभावभेयगयं । तं पिय पड्डुच्च मोह संसारो तेण जीवस्स २६६। = द्रव्य व भाव दोनो प्रकारके शुभ व अशुभ कर्मोसे मोहके निमित्तसे उत्पन्न होने के कारण, संसार भ्रमण होता है (न.च.वृ./३७६) । ५. व्यवहारधर्म बन्धका कारण है न.च.व./२८४ ण हु सुहममुहं हुतं पिय बंधो हवे णियमा । न.च../३६६ असुद्धसंवेयणेण अप्पा बंधेइ कम्म णोकम्मं । --शुभ और अशुभ रूप अशुद्ध सवेदनसे जीवको नियमसे कर्म व नोकर्म का बन्ध होता है (पं.वि./१/८१)। पं.ध./उ./५५८ सरागे वीतरागे वा नूनमौदयिकी क्रिया। अस्ति बन्धफलावश्यं मोहस्यान्यतमोदयात् । -मोहके उदयसे उत्पन्न होनेके कारण, सरागकी या वीतरागकी जितनी भी औदयिक क्रियाएँ है वे अवश्य ही बन्ध करनेवाली है। ६. केवल व्यवहारधर्म मोक्षका नहीं बन्धका कारण है पं.का.मू./१६६ अहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो । धदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मवरवयं कुणदि । - अरहंत, सिद्ध चैत्य, प्रवचन ( शास्त्र) और ज्ञानके प्रति भक्तिसम्पन्न जीव बहुत पुण्य बाँधता है परन्तु वास्तवमें कोका क्षय नहीं करता (प.प्र././२/६१); विसु.श्रा./४०)। स.सा./मू./२७५ सदहदि य पत्तेदि य रोचेदि य तह पुणो य फासेदि । धम्म भोगणिमित्तं न तु स कम्मक्रवयणिमित्तं । - अभव्य जीव भोगके निमित्तरूप धर्म की (अर्थात व्यवहारधर्मकी) ही श्रद्धा, प्रतीति व रुचि करता है. तथा उसे ही स्पर्श करता है, परन्तु कर्मक्षयके निमित्तरूप (निश्चय) धर्म को नहीं। ध.१३/५,४,२८/८८/११ पराहीणभावेण किरिया कम्म किण्ण कीरदे । ण तहा किरियाकम्म कुणमाणस्स कम्मवखयाभावादो। जिणिदादिअच्चासणदुवारेण कम्मबंधसंभवादो च । - प्रश्न-पराधीन भावसे क्रिया-कर्म क्यों नहीं किया जाता • उत्तर-नहीं, क्योकि, उस प्रकार क्रियाकर्म करनेवालेके कर्मोंका क्षय नहीं होता और जिनेन्द्रदेव आदिकी आसादना होतेसे कर्मोंक, बन्ध होता है। ७. व्यवहारधर्म पुण्यबन्धका कारण है प्र.सा./मू./१५६ उवओगो जदि हि सुहो पुण्णं जीवस्स सचयं जादि । असुहो वा तध पावं तेसिमभावे ण चयमस्थि । - उपयोग यदि शुभ हो तो जीवका पुण्य संचयको प्राप्त होता है, और यदि अशुभ हो तो पाप संचय होता है । दोनोंके अभावमें सचय नही होता (प्र.सा./म./ १८१)। पं.का./मू./१३५ रागो जस्स पसत्थो अणुकंपासंसिदा य परिणामो। चित्तम्हि णस्थि कलुसं पुण्णं जीवस्स आसव दि । - जिस जीवको प्रशस्त राग है, अनुकम्पा युक्त परिणाम हैं और चित्तमे कलुषताका अभाव है उस जीवको पुण्यका आस्रव होता है (यो.सा./अ./४/३७) । का.अ./मू./४८ विरलो अज्जदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहि संजुत्तो। उवसमभावे सहिदो जिंदण गरहाहिं संजुत्तो। सम्यग्दृष्टि, व्रती, उपशमभावसे युक्त तथा अपनी निन्दा और गहीं करनेवाले विरले जन ही पुण्यकर्मका उपार्जन करते हैं। पं.का./ता.व./२६४/२३७/११ स्वभावेन मुक्तिकारणान्यपि पञ्चपरमेष्ट्यादिप्रशस्तद्रव्याश्रितानि साक्षात्पुण्यबन्धकारणानि भवन्ति । सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय यद्यपि स्वभावसे मोक्षके कारण है, परन्तु यदि पंचपरमेष्ठी आदि प्रशस्त द्रव्यों के आश्रित हो तो साक्षात पुण्यबन्धके कारण होते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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