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________________ ६. कपाय समुद्घाट (३४०)। - ऋजुसूत्रनयको अपेक्षा क्रोध दोष है; मान न दोष है और न पेज्ज है; माया न दोष है और न पेज्ज है; तथा लोभ पेज है। ( सूत्र)। प्रश्न-क्रोध दोष है यह तो समझमें आता है, क्योंकि वह समस्त अनर्थोंका कारण है। लोभ पेज्ज है यह भी सरल है।......किन्तु मान और माया न दोष हैं और न पेज्ज हैं, यह कहना नहीं बनता, क्योंकि पेज्ज और दोषसे भिन्न कषाय नहीं पायी जाती है। उत्तर--ऋजुसूत्रको अपेक्षा मान और माया दोष नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों अंग संतापादिके कारण नहीं हैं ( अर्थात् इनकी अभेद प्रवृत्ति नहीं है)। यदि कहा जाय कि मान और मायासे अंग संताप आदि उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं; सो ऐसा कहना भी युक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ जो अंग संताप आदि देखे जाते हैं, वे मान और मायासे न होकर मानसे होनेवाले क्रोधसे और मायासे होनेवाले लोभसे ही सीधे उत्पन्न होते हुए पाये जाते हैं।..... उसी प्रकार मान और माया ये दोनों पेज्ज भी नहीं है, क्योंकि उनसे आनन्दकी उत्पत्ति होती हुई नहीं पायी जाती है। इसलिए मान और माया ये दोनों न दोष है और न पेज हैं, यह कथन बन जाता है। ५. शब्दनयकी अपेक्षामें युक्ति क. पा. १/१-२१/चूर्णसूत्र व टी / ३४१-३४२/३६६ सहस्स कोहो दोसो, माणो दोसो, माया दोसो, लोहो दोसो। कोहो माणो माया णोपेज्ज, लोहो सिया पेज (चूर्ण सूत्र ) । कोह-माण-माया-लोहा-चत्तारि वि दोसो; अट्ठकम्मसवत्तादो, इहपरलोयविसेसदोसकारणत्तादो (8 ३४१)। कोहो माणो-माया णोपेज; एदेहितो जीवस्स संतोस-परमाणंदाणमभावादो। लोहो सिया पेज्जं, तिरयणसाहणविसयलोहादो सग्गापवग्गाणमुप्पत्तिदंसणादो। अवसेसवत्थुबिसयलोहो णोपेज्जं; तत्तो पावुप्पत्तिदसणादो। ण च धम्मो ण पेज्जं, सयलसुह-दुक्रवकारणाणं धम्माधम्माणं पेज्जदोसत्ताभावे तेसिं दोण्हं पि अभावप्पसंगादो । शब्द नयकी अपेक्षा क्रोध दोष है, मान दोष है, माया दोष है और लोभ दोष है । क्रोध, मान और माया पेज नहीं हैं किन्तु लोभ कथचित् पेज्ज है। (सूत्र)। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों दोष हैं क्योंकि, ये आठों कर्मों के आस्रवके कारण हैं, तथा इस लोक और पर लोकमें विशेष दोषके कारण है। क्रोध, मान और माया ये तीनों पेज्ज नहीं हैं; क्यों कि, इनसे जोवको सन्तोष और परमानन्दकी प्राप्ति नहीं होती है । लोभ कथंचित पेज्ज है; क्योंकि रत्नत्रयके साधन विषयक लोभसे स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्ति देखी जाती है। तथा शेष पदार्थ विषयक लोभ पेज्ज नहीं हैं; क्योंकि, उससे पापकी उत्पत्ति देखी जाती है। यदि कहा जाये कि धर्म भी पेज्ज नहीं है, सो भी कहना ठीक नही है, क्योकि सुख और दुखके कारणभूत धर्म और अधर्मको पेज्ज और दोषरूप नहीं माननेपर धर्म और अधर्मके भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। है। ऐसे तियंचके मायाका, मनुष्यके मानका और देवके लोभका उदय जानना । सो ऐसा नियम कषाय प्राभृत द्वितीय सिद्धान्तका कर्ता यतिवृषभाचार्य ताके अभिप्राय करि जानना । बहुरि महाकर्मप्रकृति प्राभृत प्रथम सिद्धान्तका कर्ता भूतबलि मामा आचार्य ताके अभिप्रायकरि पूर्वोक्त नियम नाही। जिस-तिस कोई एक कषायका उदय हो है। २. गुणस्थानों में कषायोंकी सम्भावना ष. वं./१/१, १/सू. ११२-११४/३५१-३१२ कोधकसाई माणकसाई मायकसाई एइंदियप्पहुडि जाव अणियहि त्ति ।११२। लोभकसाई एइंदियप्पहुडि जाव सुहुम-सांपराइय सुद्धि संजदा त्ति ।११३। अकसाई चदुसुट्ठाणेसु अस्थि उबसंतकसाय-बीयराय-छदुमत्था खीणकसायवीयराय-छदुमत्था, सजोगिकेवली अजोगिकेवलि त्ति । ११४।एकेन्द्रियसे लेकर ( अर्थात मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर ) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक क्रोधकषायी, मानकषायी, और मायाकषायी जीव होते हैं ।११२॥ लोभ कषायसे युक्त जीव एकेन्द्रियों से लेकर सूक्ष्म साम्परायशुद्धिसंयत गुणस्थान तक होते हैं ।११३। कपाय रहित जीव उपशान्तकषाय-वीतरागछद्मस्थ, क्षीण कषाय-वीतरागछद्मस्थ, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली इन चार गुणस्थानोंमे होते हैं।११४। ३. अप्रमत्त गुणस्थानों में कषायोंका अस्तित्व कैसे सिद्ध हो ध. १/१,१,११२/३५१/७ यतीनामपूर्व करणादीनां कथं कषायास्तित्वमिति चेत्, अव्यक्तकषायापेक्षया तथोपदेशात् । प्रश्न-अपूर्वकरण आदि गुणस्थान वाले साधुओके कषायका अस्तित्व कैसे पाया जाता है ! उत्तर-नहीं, क्योंकि अव्यक्त कषायकी अपेक्षा वहाँपर कषायोंके अस्तित्वका उपदेश दिया है। ४. उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्तीको अकषाय कैसे-कैसे कह सकते हो? घ. १/१,१.११४/३५२/हउपशान्तकषायस्य कथमकषायत्वमिति चेव, कथं च न भवति । द्रव्यकषायस्यानन्तस्य सत्त्वात् । न, कषायोदयाभावापेक्षया तस्याकषायत्वोपपत्ते ।-प्रश्न-उपशान्तकषाय गुणस्थानको कषायरहित कैसे कहाप्रश्न-वह कषायरहित क्यों नहीं हो सकता है। प्रतिप्रश्न-वहाँ अनन्त द्रव्य कपायका सद्भाव होनेसे उसे कषायरहित नहीं कह सकते हैं। उत्तर--नहीं; क्योंकि, कषायके उदयके अभावकी अपेक्षा उसमें कषायोसे रहितपना बन जाता है। ६. कषाय समुद्घात ५. कषाय मार्गणा १. गतियोंकी अपेक्षा कषायोंकी प्रधानता गो. जी./मू./२८८/६१६ णारयतिरिक्खणरसुरगईम उप्पण्णपढ़मकालम्हि । कोही माया माणो लोहेदओ अणियमो वापि ॥ २८८ ॥ गो, जी,/जी. प्र./२८८/६१६/६ नियमवचन...यतिवृषभाचार्यस्य अभिप्रायमाश्रित्योक्तं । ..भूतबल्याचार्यस्य अभिप्रायेणाऽनियमो ज्ञातव्यः । - नरक, तिर्यंच, मनुष्य व देव वि उत्पन्न भया जीवकै पहिला समय विष क्रमतै क्रोध, माया, मान व लोभका उदय हो है। नारकी उपजै तहाँ उपजते हो पहिले समय क्रोध कषायका उदय हो १. कषाय समुद्घातका लक्षण रा. वा./१/२०/१२/७७/१४ द्वितयप्रत्ययप्रकर्षोत्पादितक्रोधादिकृतः कषायसमुद्घात । बाह्य और आभ्यन्तर दोनों निमित्तोके प्रकर्ष से उत्पादित जो क्रोधादि कषायें. उनके द्वारा किया गया कषाय समुद्घात है। ध. ४/१,३,२/२६/८ "कसायसमुग्घादो णाम कोधभयादोहि सरीरतिगुणविप्फुज्जणं ।" = क्रोध भय आदिके द्वारा जीवोंके प्रदेशोंका उत्कृष्टतः शरीरसे तिगुणे प्रमाण विसर्पणका नाम कषाय समुद्घात है। ध.७/२,६,१/२६६/८ कसायतिव्वदाए सरीरादो जीवपदेसाणं तिगुणविपुंजणं कसाय समुग्धादो णाम = कषायकी तीव्रतासे जीवप्रदेशो का अपने शरीरसे तिगुने प्रमाण फैलनेको कषाय समुद्धात कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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