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________________ द्रव्य ९ १० १ २ ३ * १ २ ३ सर्वगत असत विभाग। व द्रव्योंके भेदादि जाननेका प्रयोजन । जीवका असर्वगतपना । कारण अकारण विभाग कां व भोक्ता विभाग। द्रव्यका एक-दो आदि भागों में विभाजन | — दे० सम्यग्दर्शन / II /३/३ । - दे० जीव / ३ / ५१ - दे० कारण / III / ९ सत् व द्रव्यमें कथंचित् भेदाभेद सत्या द्रव्यको अपेक्षा द्वैत अद्वैत (१-२) एकान्त द्वैत व अद्वैतका निरास । (३) कथं द्वैत व अद्वैतका समन्वय । क्षेत्र या प्रदेशोंको अपेक्षा द्रव्य में कथंचित् भेदाभेद (१) द्रव्यमें प्रदेश कल्पनाका निर्देश । (२-३) आकाश व जीवके प्रदेशत्व में हेतु । (४) द्रव्यमें भेदाभेद उपचार नहीं है। (2) प्रदेशभेद करने नहीं होता। (६) सावयव व निरवयवपनेका समन्वय । ** परमाणु में कथं चित सावयव निरवयवपना । ४५३ - दे० परमाणु/३ । काल या पर्यायकी अपेक्षा द्रम्यमें कथंचित् भेदाभेद भेद व अमेय पक्ष (१३) युक्तिव समन्वय । * द्रव्यमें कथंचित् नित्यानियत्व । - दे० उत्पाद/२ | भाव अर्थात धर्म-धमकी अपेक्षा द्रव्यमें कथंचिद भेदाभेद (१-३) कथंचित् अभेद व भेदपक्षमें युक्ति व समन्वय । द्रव्यको गुण पर्याय ओर गुण पर्यायको द्रव्य रूपसे लक्षित करना । - दे० उपचार / ३ । अनेक अपेक्षाओंसे द्रव्यमें भेदाभेद व विधि-निषेध । -३० मंगी। द्रव्यमें परस्पर षट्कारकी मेद व अभेद । - दे० कारक, कारण व कर्ता । एकान्त भेद या अभेद पक्षका निरास (१-२) एकान्त अभेद व भेद पक्षका निरास । (३-४) धर्म व धर्मो संयोग व समवाय सम्बन्धका निरास । द्रव्यकी स्वतन्त्रता द्रव्य स्वतः सिद्ध है। द्रव्य अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। एक द्रव्य अन्य द्रव्यरूप परिणमन नहीं करता । द्रव्य परिणमनकी कथंचित् स्वतन्त्रता व परतन्त्रता । - दे० कारण / II । Jain Education International - दे० १० सत् । द्रव्य अनन्य शरण है । द्रव्य निश्चयसे अपने में ही स्थित है, आकाशस्थित कहना व्यवहार है । १. द्रव्यके भेद व लक्षण १. द्रव्यके भेद व लक्षण १. द्रव्यका निरुक्त्यर्थ पं.का./मू./१ दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं दवियं तं भण्ण ते अणणभूदंतु सत्तादो । उन उन सद्भाव पर्यायोको जो प्रति होता है, प्राप्त होता है, उसे कहते है जो कि सतासे अनन्यभूत है ( रा. बा./१/३३/२/६७/४ ) । स.सि./१/२/१७/६ गाम्या गच्यते गुणान्द्रोष्यतीति " वा द्रव्यम् । स.सि./६/२/२६६/१० यथास्वं पर्यायन्ते द्रवन्ति मा तानि इति द्रव्याणि । जो गुणोंके द्वारा प्राप्त किया गया था अथवा गुणोंको प्राप्त हुआ था, अथवा जो गुणोंके द्वारा प्राप्त किया जायगा वा गुणों का प्राप्त होगा उसे द्रव्य कहते हैं । जो यथायोग्य अपनी अपनी पर्यायोंके द्वारा प्राप्त होते हैं या पर्यायोको प्राप्त होते हैं वे द्रव्य कहलाते हैं । (रा. मा./५/२/१/४३६/१४) (. १/१.१.१/११/११) (४.३/१.२. २/२/१) (प. १/४,१२६/१६०/१० ) ( घ. १५/१२/१); (क. पा. १ १.१४/१००/२१९/४) ( प . ३) (खा. प./६). यो. सा./ ज/२/५)। रा.वा./५/२/२/४३६/२६ अथवा द्रव्यं भव्ये (जैनेन्द्र व्या, १४/१/१५८] इत्यनेन निपातितो द्रव्यशब्दो वेदितव्यः। इम भवतीति द्रव्यम् । क उपमार्थः द्रु इति दारु नाम यथा अग्रन्थि अनि रातोपकल्प्यमानं तेन तेन अभिलषितेनाकारेण आविर्भवति, तथा द्रव्यमपि आत्मपरिणामगमनसमर्थ पाषाणखननोदकर दविभक्तकतृ करणमुभयनिमित्तवशोपनीतात्मना तेन तेन पर्यायेण द्र इव भवतीति द्रव्यमित्युपमीयते । = अथवा द्रव्य शब्दको इवार्थक निपात मानना चाहिए। 'द्रव्यं भव्य' इस जेनेन्द्र व्याकरण के सूत्रानुसार 'हु' की तरह जो हो वह 'द्रव्य' यह समझ लेना चाहिए। जिस प्रकार बिना 1 की सीधी द्रु अर्थात लकडी बढई आदिके निमित्तसे टेबल कुर्सी आदि अनेक आकारोंको प्राप्त होती है, उसी तरह द्रव्य भी उभय ( बाह्य व आभ्यन्तर ) कारणोंसे उन उन पर्यायोंको प्राप्त होता रहता है जैसे 'पाषाण खोदने पानी निकलता है यहाँ अविभत कर्तृकरण है उसी प्रकार द्रव्य और पर्यायमें भी समझना चाहिए । 1 २. द्रव्यका लक्षण सत् तथा उत्पादम्पचौथ्य त. सू. / ५ / २६ सत् द्रव्यलक्षणम् | २१| द्रव्यका लक्षण सत् है । पं.का./मू./१० दव्य सत्तखयं उप्पादव्ययवत्तसंसृतं जो सत् लक्षणवाला तथा उत्पादव्ययधौव्य युक्त है उसे द्रव्य कहते हैं । (प्र. सा. / मू / ६५-६६ ) (न.च.वृ./३७ ) ( आ. प./६ ) ( यो. सा. अ./ २/६) (पं . ]. / ८६ ) ( दे. सव ) । प्र. सा /त.प्रा.६६ अस्तित्वं हि किल द्रव्यस्य स्वभावः, तत्पुनस्य साधननिरपेक्षत्वादनाद्यनन्ततया हेतुकयैकरूपया वृत्त्या नित्यप्रवृत्तत्वात्... द्रव्येण सहैकरमवलम्बमानं द्रव्यस्य स्वभाव एव कथं न भवेत् |= अस्तित्व वास्तव में द्रव्यका स्वभाव है, और वह अन्य साधनसे निरपेक्ष होनेके कारण अनाद्यनन्त होनेसे तथा अहेतुक एकरूप वृत्तिसे सदा ही प्रवर्तता होनेके कारण द्रव्यके साथ एकत्वको धारण करता हुआ, द्रव्यका स्वभाव ही क्यों न हो ? जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only २. का लक्षण गुण समुदाय स. सि. / ५ / २ / २६७ / ४ गुणसमुदायो द्रव्यमिति । गुणोंका समुदाय द्रव्य होता है। का./प्र./४४ हि गुणानां समुदायः वास्तव में द्रव्य गुणोंका समुदाय है। (../३/०३) । www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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