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________________ कषाय उकेरित क्रोधादि आदेश कषाय है) तो आदेशकषाय और स्थापनाकषायमें क्या भेद है। उत्तर-आदेशकषाय और स्थापनाकषाय में भेद है, क्योंकि सद्भाव स्थापना कषायका प्ररूपण करना और 'यह कषाय है इस प्रकारकी बुद्धि होना, यह बादेशरूपाय है तथा कषायडी सद्भाव और असद्भावरूप स्थापना करना स्थापनाकषाय है। तथा इसलिए आदेशकषाय और स्थापनाकषायका अलग-अलग कथन करनेसे पुनरुक्त दोष नहीं आता है। ९. चारों गतियों में कषाय विशेषकी प्रधानताका नियम पी.जी././२००/६१६ णारमतिरिक्खगरसुरगईसु उपणपालन्हि । कोहो माया माणो लोनिया मो.जी./जी.प्र./२०१६/५ नारकतिर्यग्नरसुरत्युत्पन्नजीवस्य तद्भ प्रथमकाले प्रथमसमये यथासंख्वं कोमायामालोकवावाणामुदय स्यादिति नियमवचनं कषायमाभृतद्वितीयसिद्धान्तव्याख्यायंति वृषभाचार्यस्य अभिप्रायमाश्रितं मा अथवा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतप्रथम सिद्धान्त भूतबल्याचार्यस्य अभिप्रायेणा नियमो ज्ञातव्य प्रास्तनियमं बिना यथासंभवं कषायोदयोऽस्तीत्यर्थ । नरक, तियंच, मनुष्य व देवविषै उत्पन्न हुए जोटके प्रथम समयविक्रमसे क्रोध, माया, मान व लोभका उदय ही है। सो ऐसा नियम कषायप्राभृत दूसरा सिद्धान्तके कर्ता यतिषाचार्य अभिमापसे जानना बहुरि महाकर्म प्रकृति प्राभूत प्रथमसिद्धान्तके कर्ता भूतबलि नामा आचार्य ताके अभिप्रायकरि पूर्वोक्त नियम नहीं है। जिस तिस किसी एक कषायका भी उदय हो सकता है। घ.४/१.२.२५०/४४६/५ पिरमगहीए-उपणजीमा पठनं कोवरमलभा ।... मगुसगदीए...माणोदय ... तिरिक्खनदीए... मायोदय... देवगदीए डोहोदओ होदि चि आहरियपरं परादुवदेसा नरकगतिमें उत्पन्न जीवोंडे प्रथमसमय में क्रोधका उदय, मनुष्यगति में मानका, तियंचगति मायाका और देवगतिमें लोभके उदयका नियम है । ऐसा आचार्य परम्परागत उपदेश है । • ३. कषायों की शक्तियाँ, उनका कार्य व स्थिति १. कषायोंकी शक्तियोंके दृष्टान्त व उनका फल पं. सं. ११११११४ सितभेपुढमेवा धूलीराई य उदयराहसमा । निर-तिरि-पर-देवतं पविति जीवा कोहवा १११ सेलसमो उसको दारुसमो तह य जाग वेतसमो पिर-तिरि-परदेवतं विति जीवा हु माणसा । १२१ | वंसीमूलं मेसस्स सिंगगोमुत्तिर्य खोरूपं रि-तिरि-पर-देव उति जीवा मासा ११३० fofमरायचक्क मलकद्दमो य तह चेय जाण हारिद ं । णिर-तिरि-णरदेस' पविति जीवा लोहना ११४ हु शक्तियोंके दृष्टान्त कषायकी अवस्था क्रोध मान अस्थि अनन्तानु० शिला रेखा अप्रत्या० पृथिवी रेखा प्रत्याख्यान धूलि रेखा दारु या काष्ठ संज्वलन० जल रेखा वेत्र (वेत) Jain Education International दोन माया वेणु मूल मेष शृंग गोमूत्र खुरपा फल लोभ किरमजीका | रंग या दाग नरक चक्र मल तियंच कीचड "मनुष्य हल्दी देव 11 (५.१/१.१,१११/१०४-१००/३५०), (रा.ना./९/६/५/२०४/२१), (गो.जो. / यू./२-४-२८०/६१०-६१४), (पं.सं./ /१/२०८-२११) ३८ ३. कषायों की शक्तियों, उनका कार्य व स्थिति २. उपरोक्त दृष्टान्त स्थितिकी अपेक्षा है अनुभागकी अपेक्षा नहीं गो.जी./जी. प्र / २८४-२८७ /६१०-६१५ यथा शिलादिभेदानां चिरतरचिरशीमशी मतरकाले विना संधानं न घटते थोत्कृष्टादिशक्तियुक्तकोषपरिणतो जीवोऽपि तथाविधकाले विना क्षमालक्षणसंघानाहों न स्यात मृत्युपमानोपमेययोः साहस्यं संभवतीति तात्पर्यार्थः ॥ २८४॥ यथा हि चिरतरादिकाले विना दोसास्थिका नामयितु' न शक्यन्ते तथोकुष्टादिशक्तिमानपरिणती जीवोऽपि तथाविधकारी बिना मानं परिहृत्य विनयपनमनं कर्तुं न शक्नोतीति सारस्यसंभवोऽत्र शातय्यः ॥२५॥ यथादयः चिरतरादिकाले बिना स्वस्थ परि हृत्य ऋजुत्वं न प्राप्नुवन्ति तथा जीवोऽपि उत्कृष्टादिशक्तियुक्तHereषायपरिणतः तथाविधकालैर्विना स्वस्ववक्रतां परिहृत्य ऋजुपरिणामो न स्यात् इति सादृश्यं युक्तम् । २८६ | जैसे शिलादि पर उकेरी या खंची गयी रेखाएँ अधिक देरसे देरसे, जल्दी व बहुत जल्दी काल बीते बिना मिलती नहीं है, उसी प्रकार उत्कृष्टादि शक्तियुक्त क्रोधसे परिणत जीव भी उसने उसने काल भी बिना अनुसंधान या क्षमाको नहीं होता है इसलिए यहाँ उपमान और उपमेयको सदृशता सम्भव है | २४| जैसे चिरतर आदि काल बीते बिना शैल, अस्थि, काष्ठ और बेत नमाये जाने शक्य नहीं हैं वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त मानसे परिणत जीव भी उतना उतना काल बीते बिना मानको छोड़कर विनय रूप नमना या प्रवर्तना शक्य नहीं है, अतः यहाँ भी उपमान व उपमेयमें सदृशता है । २८५॥ जैसे वेणुमूल आदि चिरतर आदि काल बीते बिना अपनी-अपनी वक्रताको छोड़कर ऋ नहीं प्राप्त करते हैं, वैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त मायासे परिणत जीव भी उतना उतना काल बीते बिना अपनीअपनी वक्रताको छोड़कर ऋजु या सरल परिणामको प्राप्त नहीं होते. अत यहाँ भी उपमान व उपमेय में सदृशता है । ( जैसे क्रमिराग आदिके रंग चिश्तर आदि का बीते भिमा छूटते नहीं हैं, जैसे ही उत्कृष्टादि शक्तियुक्त लोभसे परिणत जीव भी उतना उतना काल श्री बिना लोभ परिणामको छोड़कर सन्तोषको प्राप्त नहीं होता है, इसलिए यहाँ भी उपमान व उपमेयमें सदृशता है। बहुरि इहाँ शिसाभेदादि उपमान और उत्कृष्ट शक्तियुक्त आदि क्रोधादिक उप मेय ताका समानपना अतिघना कालादि गये बिना मिलना न होनेकी अपेक्षा जानना (पृ. ६१९) । ३. उपरोक्त दृष्टान्तों का प्रयोजन गोजी/जी. २१/९६/१ प्रति शिलाभेदादिस्फुटं व्यवहाराम धारणेन भवन्ति । परमागमव्यवहारिभिराचार्यै' अव्युत्पन्नमन्दप्रज्ञशिष्यप्रतिबोधनार्थं व्यवहर्तव्यानि भवन्ति । दृष्टान्तप्रदर्शनबलेनैव हिन्दः शिष्या प्रतिबोधयितु शक्यन्तेोदशनामान्येव शिलाभेदादिशक्तीनां नामानीति रूहानि ए शिलादिके भेदरूप दृष्टान्त प्रगट व्यवहारका अवधारणकार हैं, और परमागमका व्यवहारी आचार्यनिकर बुद्धि शिष्यको अधि व्यवहार रूप की है जायें रटान्सके मलकरि ही मन्दबुद्धि सम हैं. ताटाकी मुख्यताकरि जेदन्तिके नाम प्रसिद्ध कीए हैं। ४. क्रोधादि कषायों का उदयकाल ध.४/१,५,२५४/४४७/३ कसायाणामुदयस्स अन्तोमुहुत्तादो उवरि णिच्चएण विणासो होदि ति गुरुवदेसा । = कषायों के उदयका, अन्तसे ऊपर निश्रयसे विनाश होता है, इस प्रकार गुरुका उपदेश है। (और भी देखो काल / ६) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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