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________________ दिशामन्त्य ४३४ दुःख ३. शुम कार्यों में पूर्व व उत्तर दिशाकी अप्रधानताका १. भेद व लक्षण कारण १. दुःखका सामान्य लक्षण भ. आ./वि./५६०/७७१/३ तिमिरापसारणपरस्य धर्मरश्मेरुदयदिगिति स. सि./५/२०/२८८/१२ सदसद्वेद्योदयेऽन्तरङ्गहेतौ सति माह्यद्रव्यादिउदयार्थी तद्वदस्मत्कार्याभ्युदयो यथा स्यादिति लोकः प्राइमुखो परिपाकनिमित्तवशादुत्पद्यमानः प्रोतिपरितापरूप परिणाम; भवति ।... उदड मुखता तु स्वयंप्रभादितीर्थकृतो विदेहस्थान चेतसि सुखदुःखमित्याख्यायते । कृत्वा तदभिमुखतया कार्यसिद्धिरिति ।- अन्धकारका नाश करने स. सि./६/११/३२८/१२ पीडालक्षण परिणामो दुःखम् । साता और वाले सूर्यका पूर्व दिशामें उदय होता है अतः पूर्व दिशा प्रशस्त है। असाता रूप अन्तरंग हेतुके रहते हुए बाह्य द्रव्यादिके परिपाकके सूर्यके उदयके समान हमारे कार्य में भी दिन प्रतिदिन उन्नति होवे निमित्तसे प्रीति और परिताप रूप परिणाम उत्पन्न होते हैं, वे मुख ऐसी इच्छा करनेवाले लोक पूर्व दिशाकी तरफ अपना मुख करके और दु.ख कहे जाते है। अथवा-पीड़ा रूप आत्माका परिणाम दुःख अपना इष्ट कार्य करते हैं।...विदेहक्षेत्र में स्वयंप्रभादि तीर्थकर हो है । (रा. वा./६/११/१/११६); (रा वा/१/२०/२/४७४); (गो. जो/ गये हैं, विदेह क्षेत्र उत्तर दिशाको तरफ है अतः उन तीर्थ करोको जी. प्र./६०६/१०६२/१५)। हृदयमें धारण कर उस दिशाको तरफ आचार्य अपना मुख कार्य ध. १३/५,५,६३/३३४/५ अणिहत्थसमागमो इट्ठत्ववियोगो च दुःखं गाम। सिद्धिके लिए करते हैं। ___= अनिष्ट अर्थ के समागम और इष्ट अर्थ के वियोगका नाम दुख है। दिशामन्त्य ध. १५/६/६ सिरोवेयणादी दुवं णाम !-सिरकी वेदनादिका नाम दिशामादि- सुमेरु पर्वतके अपर नाम-दे० सुमेरु दुःख है। दिशामुत्तर २. दुःखके भेद दीक्षा-दे. प्रत्रज्या । भा, पा./म./११ आगंतुकं माणसियं सहजं सारीरियं चत्तारि । दुक्खाई...१९/- आगंतुक, मानसिक, स्वाभाविक तथा शारीरिक, दाति ह. पु./२२/५१-५५ यह धरणेन्द्रकी देवी है। इसने धरणेन्द्रकी इस प्रकार दुख चार प्रकार का होता है। न. च./६३ सहजं ..नैमित्तिकं "देहजं मानसिकम् ।।३।- दुख चार आज्ञासे तफ्भ्रष्ट नमि तथा बिनमिको विद्याएँ तथा औषधियाँ प्रकारका होता है-सहज, नैमित्तिक, शारीरिक और मानसिक । दी थीं। का. अ /मू /३५ असुरोदीरिय-दुक्रवं-सारीर-माणसं तहा तिविहः खित्तुदापचदशाह-सांगानेर (जयपुर) के निवासी एक पण्डित थे। ब्भवं च तिव्वं अण्णोण्ण-कयं च पंचविहं ।३५/- पहला असुरकुमारों के कृति-चिद्विलास, आत्मावलोकन व अनुभवप्रकाश आदि । समय- द्वारा दिया गया दुःख, दूसरा शारीरिक दुःख. तीसरा मानसिक दुःख, वि. १७७६ ई०१७२२ । (ती/४/२६) । चौथा क्षेत्रसे उत्पन्न होनेवाला अनेक प्रकारका दुःख, पाँचवाँ परस्परमें मो.मा.प्र./प्र.२ परमानन्द शास्त्री। दिया गया दुःख, ये दुःखके पाँच प्रकार हैं ।३५॥ दोपदशमो व्रत-व्रतविधान संग्रह/१३० दीपदशमी दश दीप ३. मानसिकादि दुःखोंके लक्षण बनाय, जिनहिं चढाय आहार कराय-दश दीपक बनाकर भगवान न. च./६३ सहजखुधाइजादं णयमितं सीदवादमादीहि । रोगादिआ को चढाये फिर आहार करे। यह व्रत श्वेताम्बर आम्नायमें य देहज अणिट्ठजोगे तु माणसियं ।।३। क्षुधादिसे उत्पन्न होनेवाला प्रचलित है। दुःख स्वाभाविक, शीत, वायु आदिसे उत्पन्न होनेवाला दुःख नै मित्तिक. दोपमालिका व्रत-व्रतविधान संग्रह/१०८ कार्तिक कृ० ३० को रोगादिसे उत्पन्न होनेवाला शारीरिक तथा अनिष्ट वस्तुके संयोग हो वीरनिर्वाणके दिन दीपावलि मनायी जाती है। उस दिन उपवास जानेपर उत्पन्न होनेवाला दुख मानसिक कहलाता है । करे व सायंकाल दोप जलाये। जाप:-'ओं ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिने * पीड़ारूप दुःख-दे. वेदना । नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जप करे। दोपसेन-पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप नन्दिसेनके शिष्य २. दुःख निर्देश तथा धरसेन ( श्रुतावतार वालेसे भिन्न ) के गुरु थे।-दे० इतिहास १. चतुर्गतिके दुःखका स्वरूप /७/८ । भ, आ./मू./१५७४-१५६६ पगल गतरुधिरधारो पलं वचम्मो पभिन्नपोट्टदीपांग-कल्पवृक्षोंका एक भेद-दे० वृक्ष/१। सिरो। पउलिदहिदओ जं फुडिदस्थो पडिचूरियंगो च ।१५७६। ताड णतासणबंधणवाहणलंछणविहेडणं दमणं । कण्णच्छेदणणासावेहणणिदीप्ततप ऋद्धि-दे० ऋद्धिा । लंछणं चेव ।१५८२। रोगा विविहा बाधाओ तह य णिच्चं भयं च दीर्घस्वर-दे० अक्षर। सम्वत्तो। तिव्वाओ वेदणाओ धाडणपादाभिधादाओ ।१५८५। डण मुंडणताडणधरिसणपरिमोससंकिलेसा य। धणहरणदारधरिसणधरदुःख-दुःखसे सब डरते हैं । शारीरिक, मानसिक आदिके भेदसे दुःख दाहजलादिधणनासं १९६२। देवो माणी संतो पासिय देवे महदिए कई प्रकारका है। तहाँ शारीरिक दुःखको ही लोकमें दुख माना अण्णे । जं दुरवं संपत्तो घोरं भग्गेण माणेण ॥१५६६। जिसके शरीरजाता है। पर वास्तवमें वह सबसे तुच्छ दुःख है। उससे ऊपर मेंसे रक्तकी धारा बह रही है, शरीरका चमड़ा नीचे लटक रहा है. मानसिक और सबसे बड़ा स्वाभाविक दुःख होता है, जो व्याकुलता जिसका पेट और मस्तक फूट गया है, जिसका हृदय तप्त हुआ है, रूप है। उसे न जाननेके कारण ही जीव नारक, तिर्यंचादि योनियोंके आँखें फट गयी हैं, तथा सब शरीर चूर्ण हुआ है, ऐसा तू नरकमें विविध दुःखोको भोगता रहता है । जो उसे जान लेता है वह दुःखसे अनेक बार दुःख भोगता था ।१५७१। लाठी वगैरहसे पीटना, भय छूट जाता है। दिखाना, डोरी वगैरहसे भाँधना. बोझा लादकर देशान्तरमें ले जाना, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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