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________________ दिम्पट चौरासो दिग्पट चौरासी श्वेताम्बराचार्य यशोविजय (३० १६३८-१६८) द्वारा भाषा छन्दोमें रचित ग्रन्थ है । जिसमे दिगम्बर मतपर चौरासी आक्षेप किये गये हैं । दिग्विजय नारायणकी दिग्विजयका परिचय दे० - ४२९ शलाका पुरुष / २. ४ । दिग्व्रत १ दिग्बतका लक्षण र. क.आ./६८-६६ दिल परिचित कृतो हि यास्यामि । इति सकल्प दिखतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै । ६८ । मकराकर सरिदगिरिजन योजनानि मर्यादाः प्रातुर्दिशा दशानां प्रतिसंहारे प्रसिद्धानि । ६ मरण पर्यन्त सूक्ष्माको विनिवृत्तिके लिए दो दिशाओंका परिमाण करके इससे बाहर मे नहीं जाऊंगा इस प्रकार संकल्प करना या निश्चय कर लेना सो दिग्वत है । ६८ । दशों दिशाओंके श्याममें प्रसिद्ध प्रसिद्ध, समुद्र, नदी, पर्वत, देश और योजन पर्यन्तकी मर्यादा कहते हैं । ६६ । ( स. सि. / ७ / २१/३५६/१० ); (रा. वा. / ०/२१/९६/६४९/२६) (सा. ६/५/२); (का.अ./मू./३४२) वसु. बा. २१४ पुसद पच्चिमा काऊन जोप पगमनादिसि विविसि गुणम्यर्थ पडर्म-पूर्व उत्तर दक्षिण ओर पश्चिम दिशाओमें योजनाका प्रमाण करके उससे आगे दिशाओ और विदिशाओं में गमन नहीं करना, यह प्रथम दिग्वत नामका गत है | २१४ | २. दिग्व्रत के पाँच अतिचार त. सू / ०/३० ऊर्णास्तिर्यग्यतिक्रम क्षेत्र वृद्विस्मृत्यन्तराधानानि ॥६०॥ - ऊम्पदिकम, अयोध्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये दिग्विरति व्रतके पाँच अतिचार हैं |३०| र.क. आ./०३ तिर्यग्व्यतिपात क्षेत्र विस्मरण दिग्रितेत्याशा पचमत्यन्ते 1031 अज्ञान व प्रमादसे ऊपरको ॥७३॥ नीचेकी तथा विदिशाओंकी मर्यादाका उल्लंघन करना, क्षेत्रकी मर्यादा बढ़ा देना और की हुई मर्यादाओको धूल जाना, ये पाँच दिग्वतके अतिचार माने गये हैं । ३. परिग्रह परिमाण व्रत और क्षेत्रवृद्धि अतिचार में अन्तर Jain Education International रा. बा./१/२०/५-६/४५३/२१ अभिगृहीताया दिशो लोभानेशादादियाभिसन्धि क्षेत्रवृद्धि १५ स्यादेतत्- इच्छापरिणामे पञ्चमेऽणुवते अस्वान्तर्भामिति न कि कारणान्याधिकरणत्वात् । इच्छापरिणामं क्षेत्रवास्त्वादिविषयम् इदं पुन. दिग्विरमार्थम् । अस्यां दिशि लाभे जो तिला मरणमतोऽन्यत्र लाभेऽपि न मिति नतु दिशि क्षेत्रादिष्विव परिग्रहवृद्धपारमसारवाद परिणामकरणमस्ति ततोऽविशेषोऽस्यावसेयः सोभ आदिके कारण स्वीकृत मर्यादाका बढा लेना क्षेत्रवृद्धि है । प्रश्न- इच्छा परिणाम नामक पाँचवें अणुवत में इसका अन्तर्भाव हो जाने के कारण इनका पुनः ग्रहण करना पुनरुक्त है ' उत्तर - ऐसा नहीं है, क्योंकि, उसका अधिकरण अन्य है । इच्छाका परिमाण क्षेत्र, वास्तु आदि विषयक है, परन्तु यह दिशा विरमण उससे अन्य है । इस दिशा में लाभ होगा अन्यत्र लाभ नहीं होगा और लाभालाभसे जीवन-मरणकी समस्या जुटी है फिर भी स्वीकृत दिशा मर्यादासे आगे लाभ होनेपर भी गमन नहीं करना दिग्विरति है । दिशाओंका क्षेत्र वास्तु आदिकी तरह परिग्रह बुद्धिसे अपने आधीन करके प्रमाण नहीं किया जाता। इसलिए इन दोनोमे भेद जानने योग्य है । दिवाकरनंदि ★ दिग्वत व देशव्रत में अन्तर : दे० देशव्रत । ४. दिग्वतका प्रयोजन व महत्त्व 1 र. क. श्रा / ७०-७१ अवधेर्व हिरणुपापप्रतिविरतेर्दिग्वतानि धारयताम् । पञ्च महाव्रत परिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते । ७० प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतराश्च चरणमोहपरिणामा । सत्वेन दुरवधारा महावताय प्रकल्प्यते |७२] = मर्यादासे बाहर सूक्ष्म पापोकी निवृत्ति (त्याग) होनेसे दिग्व्रतधारियों के अणुव्रत पंच महाव्रतो की सदृशताको प्राप्त होते है ॥७०॥ प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभके मन्द होनेसे अतिशय मन्द रूप चारित्र मोहनीय परिणाम महाव्रतकी कल्पना को उत्पन्न करते है अर्थात् महामत सरीखे प्रतीत होते है और वे परिणाम बड़े कसे जानने में आने योग्य है। अर्थात् वे कषाय परिणाम इतने सूक्ष्म होते है कि उनका अस्तित्व भी कठिनतासे प्रतीत होता है ।७१। रा.मा./७/२१/१०-११/२४८/२१ अगमनेऽपि तदन्तरास्थित विधाय नुज्ञानं प्रसक्त, अन्यथा वा दिपरिमाणमनर्थकमिति तज्ञ कि कार निवृत्त का कर्तुमशक्त्या प्राणिधविरति प्रश्णापूर्णस्य प्रागयात्रा भतुवा मा याद सत्यपि प्रयोजनभूयस्त्रे परिमितदिगम हिनस्किम्स्यामिति प्रणिधानान दोष' । प्रवृद्ध ेच्छस्य आत्मनस्तस्यां दिशि विना यत्नात् मणिरत्नादिलाभोऽस्तीत्येवम् अन्येन प्रोत्साहितस्यापि मणिरत्नादिसमाप्तितृष्णाप्राकाम्यनिरोधः कथं ततो भवेदिति दिविरति श्रेयसी । अहिसाद्यणुत्रतधारिणोऽप्यस्य परिमिताद्दिगवधे हिमनोवाक्काययोगे' कृतकारितानुमत विकल्पै. हिसादिसर्व सावद्यनिवृत्तिरिति महाजतत्वमवसेय प्रश्न- ( परिमाणित ) दिशाओंके (माहर) भागमें गमन न करने पर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादावे कारण पापबध होता है इसलिए दिशाओंका परिमाण अनर्थक हो जायेगा : उत्तर—ऐसा नहीं है, क्योंकि दिग्विरतिका उद्देश्य निवृत्ति प्रधान होनेसे बाह्य क्षेत्र में हिसादिकी निवृत्ति करनेके कारण कोई दोष नहीं है । जो पूर्ण रूपसे हिंसादिकी निवृत्ति करनेमें असमर्थ है पर उस सकलविरतिके प्रति आदरशील है वह श्रावक जीवन निर्वाह हो या न हो, अनेक प्रयोजन होनेपर भी स्वीकृत क्षेत्र मर्यादाको नहीं लापता अतः हिंसा निवृत्ति हानेसे वह प्रती है। किसी परिग्रही व्यक्तिको 'इस दिशा में अमुक जगह जानेपर बिना प्रयत्नके मणि-मोती आदि उपलब्ध होते हैं, इस प्रकार प्रोत्साहित करनेपर भी दिग्बतके कारण बाहर जानेकी और मणि-मोती आदिकी सहज प्राप्तिकी लालसाका निरोध होनेसे दिग्वत श्रेयस्कर है। अहिंसाणुव्रती भी परिमित दिशाओंसे बाहर मन, वचन, काय व कृत कारित, अनुमोदना सभी प्रकारो के द्वारा हिसादि सर्व सामयों से विरत होता है। अत वहाँ उसके महावत ही माना जाता है। स.सि./७/२१/३५६/१० ततो बहिस्त्रसस्थावरव्यपरोपण निवृत्तेर्महाव्रतत्वमनसे हा सत्यपि परिणामस्य निवृतेोभनिरारच कुतो भवति । उस ( दिग्बत मे की गयी ) मर्यादाके बाहर त्रस और स्थावर हिंसाका त्याग हो जानेसे उतने अंश में महाबत होता है । और मर्यादाके बाहर उसमें परिणाम न रहनेके कारण लोभका त्याग हो जाता है। (रा.वा./०/२९/१५-१६/२४९), (पू. सि. उ. / १२८) (का. अ/मू./२४१) । - दिन-दिन-रात्रि प्रगट होनेका क्रम दे० ज्योतिष /२/८ । दिवाकर नंदि- मन्दिके देशीय को गुर्वावली अनुसार गणको (दे० इतिहास ) आप चन्द्रकीर्तिके शिष्य तथा शुभचन्द्रके गुरु थे । समय- वि० १९९५-१९६४ ई०२०६० २०६८ (२/१० HL.Jain ) दे० इतिहास / ०/२ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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