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________________ दर्शनकथा ४१७ दर्शनप्रतिमा स्थान तक होते है ।१३३॥ अवधिदर्शन वाले जीव (संज्ञी पंचेन्द्रिय ही) असंयत सम्यग्दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।१३४। केवल दर्शनके धारक जीव ( संज्ञी पंचेन्द्रिय व अनिन्द्रिय सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध इन तीन स्थानों में होते हैं ।१३५॥ दर्शनकथा-कवि भारामल (ई० १७५६ ) द्वारा हिन्दी भाषामें रचित कथा। दर्शनक्रिया-दे० क्रिया/३२१ दशेनपाहुड़-आ० कुन्दकुन्द (ई०१२७-१७६) कृतं सम्यग्दर्शन विषयक ३६ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध ग्रन्थ है। इस पर आ० श्रुतसागर ( ई० १४८१-१४६६) कृत संस्कृत टीका और प० जयचन्द छावड़ा (ई०१८००) कृत भाषा बचनिका उपलब्ध है। (तो./२/१९४), दर्शनप्रतिमा-श्रावककी ११ भूमिकाम-से पहलीका नाम दर्शन प्रतिमा है। इस भूमिकामें यद्यपि वह यमरूपसे १२ वप्तोंको धारण नहीं कर पाता पर अभ्यास रूपसे उनका पालन करता है । सम्यगदर्शनमें अत्यन्त दृढ हो जाता है और अष्टमूलगुण आदि भी निरतिचार पालने लगता है। १. दर्शन प्रतिमाका लक्षण १. संसार शरीर भोग से निर्विषण पंचगुरु भक्ति पा. सा./२/ दार्शनिकः संसारशरीरभोगनिर्विष्ण' पञ्चगुरुचरणभक्तः सम्यग्दर्शनविशुद्धश्च भवति। - दर्शन प्रतिमावाला संसार और शरीर भोगोंसे विरक्त पांचों परमेष्ठियोंके चरणकमलोंका भक्त रहता है और सम्यग्दर्श नसे विशुद्ध रहता है। २. संवेगादि सहित साष्टांग सम्यग्दृष्टि सुभाषितरत्नसन्दीह/८३३ शंकादिदोषनिर्मुक्त' संवेगादिगुणान्वितं । यो धत्ते दर्शनं सोऽत्र दर्शनी कथितो जिनः ॥३३॥ = जो पुरुष शंकादि दोषोंसे निर्दोष संवेगादि गुणोंसे संयुक्त सम्यग्दर्शनको धारण करता है, वह सम्यग्दृष्टि ( दर्शन प्रतिमावाला ) कहा गया है।८३३॥ २.दर्शन प्रतिमाधारीके गुण व व्रतादि १. निशि भोजनका त्यागी व. श्रा./३१४ एयारसेम पढम बि जदो णिसि भोयणं कुणतस्स। हाणं ठाइ तम्हा णिसि भुत्ति परिहरे णियमा ।३१४॥ -कि रात्रिको भोजन करनेवाले मनुष्यके ग्यारह प्रतिमाओंमें-से पहली भी प्रतिमा नहीं ठहरती है, इसलिए नियमसे रात्रि भोजनका परिहार करना चाहिए। (ला. सं./२/४५) । २. सप्त व्यसन व पंचुदंबर फलका त्यागी वसु. श्रा./२०५ पंचुंभरसहियाई परिहरेइ इय जो सत्त विसणाई। सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ ॥३०॥ = जो सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध बुद्धि जीव इन पांच उदुम्बर सहित सातों व्यसनोंका परित्याग करता है, वह प्रथम प्रतिमाधारी दर्शन श्रावक कहा गया है ॥२०॥ (वसु. श्रा./५६-५८) (गुणभद्र श्रा./११२) (गो.जी./जी, प्र/४७७/८८४ में उद्धृत) ३. मद्य मांसादिका त्यागी का. आ./पू./३२८-३२६ बहु-तस-समण्णिदं # मज्ज मंसादि णिदिदं दव्यं । जो ण य सेवदि णियद सो दंसण-साधी होदि ॥३२८॥ जो दिढचित्तो कीरदि एवं पि बयणियाणपरिहीणो। वेग्ग-भावियमणो सो वि य ईसण-गुणो होदि ॥३२६॥ बहुत सजीवोंसे युक्त मद्य, मांस आदि निन्दनीय बस्तुओंका जो नियमसे सेवन नहीं करता वह दार्शनिक श्रावक है ॥३२८॥ वैराग्यसे जिसका मन भीगा हुआ है ऐसा जो श्रावक अपने चित्तको दृढ करके तथा निदानको छोड़कर उक्त व्रतोंको पालता है वह दार्शनिक श्रावक है ॥३२॥ (का. अ./ मू./२०१)। ४. अष्टमूल गुणधारी, निष्प्रयोजन हिसाका त्यागी र. क. श्री./म./१३७ सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्षिण्णः । पञ्च गुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः । - जो संसार भोगोंसे विरक्त हो, जिसका सम्यग्दर्शन विशुद्ध अर्थात अतिचार रहित हो, जिसके पंचपरमेष्ठीके चरणोंकी शरण हो,तथा जोबतोंके मार्गमें भद्यत्यागादि आठ मूलगुणोंका ग्रहण करनेवाला हो, वह दर्शन प्रतिमाधारी दर्शनिक है ।१३७१ द्र. सं./टी./४५/१६५/३ सम्यक्त्वपूर्वकत्वेन मद्यमांसमधुण्यागोदुम्बरपञ्चकपरिहाररूपाष्टमूलगुणसहितः सह संग्रामादिप्रवृत्तोऽपि पापद्धर्यादिभिनिष्प्रयोजनजीवघातादेः निवृत्तः प्रथमो दार्शनिकश्रावको भण्यते । =सम्यग्दर्शन पूर्वक मद्य, मांस, मधु और पांच उदुम्बर फलोंके त्यागरूप आठ मूलगुणोंको पालता हुआ जो जीव मुद्धादिमें प्रवृत्त होनेपर भी पापको बढ़ानेवाले शिकार आदिके समान बिना प्रयोजन जीव घात नहीं करता, उसको प्रथम दार्शनिक श्रावक कहते हैं। ५. अष्टमूलगुण धारण च सप्त व्यसनका त्याग ला. सं.२६ अष्टमूलगुणोपेतो छ तादिव्यसनोज्झितः । नरो दार्शनिकः प्रोक्त स्याच्चेत्सद्दर्शनान्वितः ॥६॥ =जो जीव सम्यग्दर्शनको धारण करनेवाला हो और फिर वह यदि आठौं मूलगुणोंको धारण कर ले तथा जूआ, चोरी आदि सातों व्यसनोंका त्याग कर दे तो वह दर्शन प्रतिमाको धारण करनेवाला कहलाता है ॥६॥ ६. निरतिचार अष्टगुणधारी सा. घ./२/७-८ पाक्षिकाचारसंस्कार-दृढीकृतविशुद्धदक् । भवाङ्गभोगनिविण्ण', परमेष्ठिपदे कधीः ॥७॥ निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वग्रगुणोसुकः । न्याय्यां वृत्ति तनुस्थित्यै, तन्वन् दार्शनिको मतः ॥८॥ - पाक्षिक श्रावकके आचरणोंके संस्कारसे निश्चल और निर्दोष हो गया है सम्यग्दर्शन जिसका ऐसा संसार शरीर और भोगोंसे अथवा संसारके कारण भूत भोगोंसे विरक्त पंचपरमेष्ठीके चरणोंका भक्त मूल गुणोंमे-से अतिचारों को दूर करनेवाला बतिक आदि पदोंको धारण करने में उत्सक तथा शरीरको स्थिर रबनेके लिए न्यायानुकूल आजीविकाको करनेवाला व्यक्ति दर्शनप्रतिमाधारी श्रावक माना गया है। ७. सप्त व्यसन व विषय तृष्णाका त्यागी क्रिया कोष/१०४२ पहिलो पड़िमा धर बुद्धा सम्यग्दर्शन शुद्धा । त्यागे जो सातो व्यसना छोडे विषयनिकी तृष्णा ॥१०४२॥ प्रथम प्रतिमाका धारी सम्यग्दर्शनसे शुद्ध होता है, तथा सातों व्यसनों को और विषयोंकी तृष्णाको छोड़ता है। ८. स्थूल पंचाणुव्रतधारी र, सा./८ उहयगुणवसणभयमलवेरग्गाइचार भत्तिविग्ध था। एदे सत्तत्तरिया दंसंणसावयगुणा भणिया ॥८॥ -- आठ मूलगुण और बारह उत्तरगुणों (बारह व्रत अणुमत गुणवत्त शिक्षाबत ) का प्रतिपालन, सात व्यसन और पच्चीस सम्यक्त्वके दोषोंका परित्याग, बारह वैराग्य भावनाका चितवन, सम्यग्दर्शनके पांच अतीचारोंका परित्याग, भक्ति भावना इस प्रकार दर्शनको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टि श्रावकके सत्तर गुण हैं। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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