SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 418
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दर्शन ४१० ४. दर्शनोपयोग सिद्धि हुए अरहंत देव क्या जानते हैं और क्या देखते हैं । तथा उनके सर्वज्ञता भी कैसे बन सकती है ।।१४१ (और भी दे० दर्शन/२/३,४)। ३ दोनों उपयोगोकी एक साथ प्रवृत्ति मानने में विरोध भी नहीं आता है, क्योंकि, उपयोगोकी क्रमवृत्ति कर्मका कार्य है. और कर्म का अभाव हो जानेसे उपयोगोको क्रमवृत्तिका भी अभाव हो जाता है, इसलिए निराबरण केवलज्ञान और केवलदर्शनकी क्रमवृत्ति के मानने में विरोध आता है। ४. प्रश्न- यदि ऐसा है तो इन दोनोका उत्कृष्ट रूपसे अन्तर्मुहूर्त काल कसे बन सक्ता है। उत्तर-चू कि, यहाँपर सिह, व्याघ, छठवल, शिवा और स्याल आदिके द्वारा खाये जानेवाले जीवोंमे उत्पन्न हुए केवलज्ञान दर्शनके उत्कृष्टकालका ग्रहण किया है, इसलिए इनका अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल बन जाता है। परिहारो उच्चदे । तं जहा केवलग्राणदंसणावरणाणं किमक्कमणक्खओ, अहो कमेणेत्ति । . अक्कमेण विणासे संते केवलणाणेण सह केवलदसणेण वि उप्पज्जेय, अक्कमेण अविकल कारणे संते तेसिं कमुष्पत्तिविरोहादो। तिम्हा अक्कमेण उप्पण्णत्तादो ण केवलणाणदं सणाणं कमउत्ती त्ति। (६३२०/३५१/१ ) होउ णाम केवलणाणदंसणाणमक्कमेणुप्पत्ती; अकमेण विणट्ठावरणत्तादो, कितु केवलणाणं दसणुवजोगो कमेण चेव होंति, सामण्णविसेसयत्तण अव्बत्त बत्त-सरूवाणमकमेण पउत्तिविरोहादो त्ति । (३२१/३५२/७)। होदि एसो दोसो जदि केवलणाणं विसेसविसयं चेव केवलदसणं पि सामण्ण विसयं चेव । ण च एवं दोहं पि विसयाभावेण अभावप्पसगादो। (६३२२/३५३/१)। तदो सामण्णविसेसविसमत्ते केवलणाण-दसणाणमभावो होज्ज णिबिसयतादो त्ति सिद्ध । उत्तं च-अद्दिळं अण्णादं केवलि एसो हु भासइ सया वि। एएयसमयम्मि हंदि ह बयण विसेसी ण संभव १४०। अण्णाद पासंतो अदिदमरहा सया तो बियाणतो। किं जाणइ कि पासइ कह सव्वणहो त्ति वा होइ ।१४१॥ (१३२४/३५६/३)। ण च दोण्हमुवजोगाणमक्कमेण वुत्ती विरुद्धा; कम्मकयस्स कम्मस्स तदभावेण अभावमुवगयस्स तत्थ सत्तविरोहादो। (६३२५/३५६/१०)। एवं संते केवणणाणदंसणाणमुक्कस्मेण अंतोमुहुत्तमेत्तकालो कथं जुज्जदे । सहि बग्घ-छवल्ल-सिव-सियालाईहि खज्जमाणेसु उप्पण्ण केवलणाणदंसणुवस्सकालग्गहणादो जुज्जदे । (१३२६/३६०/६ )।-प्रश्न- कि केवलज्ञान और केवलदर्शनका उत्कृष्ट उपयोगकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है, इससे जाना जाता है कि केवलज्ञान और केवलदर्शनकी प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती। उत्तर-१. उक्त शंकाका समाधान करते हैं। हम पूछते है कि केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरणका क्षय एक साथ होता है या क्रमसे होता है । (क्रमसे तो होता नहीं है, क्योंकि आगममें ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तराय इन तीनों कर्मोंकी सत्त्व व्युच्छित्ति १२ वें गुणस्थानके अन्तमें युगपत बतायी है (दे० सत्त्व) । यदि अक्रमसे क्षय माना जाथे तो केवलज्ञानके साथ केवलदर्शन भी उत्पन्न होना चाहिए, क्योंकि केवलज्ञान और केवलदर्शनकी उत्पत्तिके सभी अधिकल कारणोके एक साथ मिल जानेपर उनकी क्रम मे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। और क्योकि वे अक्रमसे उत्पन्न होते हैं इसलिए उनकी प्रवृत्ति भी क्रमसे नहीं बन सकती। २, प्रश्न- केवलज्ञान व केवलदर्शनकी उत्पत्ति एक साथ रही आओ क्योंकि उनके आवरणोंका विनाश एक साथ होता है। किन्तु केवलज्ञानोपयोग और केवलदर्शनोपयोग क्रमसे ही होते हैं, क्योकि केवलदर्शन सामान्यको विषय करनेवाला होनेसे .. अव्यक्तरूप है और केवलज्ञान विशेषको विषय करनेवाला होनेसे_ व्यक्त रूप है, इसलिए उनकी एक साथ प्रवृत्ति माननेमें विरोध आता है। उत्तर-यदि केवलज्ञान केवल विशेषको और केवलदर्शन केवल सामान्यको विषय करता, तो यह दोष सम्भव होता, पर ऐसा नहीं है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेषरूप विषयका अभाव होनेसे उन दोनों (ज्ञान व दर्शन) के भी अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। अतः जब कि सामान्य विशेषात्मक वस्तु है तो केबलदर्शनको केवल सामान्यको विषय करनेवाला और केवलज्ञानको केवल विशेषको विषय करनेवाला माननेपर दोनो उपयोगोंका अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि केवल सामान्य और केवल विशेष रूप पदार्थ नहीं पाये जाते । कहा भी है-यदि दर्शनका विषय केवल सामान्य और ज्ञानका विषय केवल विशेष माना जाये तो जिनमें जो अदृष्ट है ऐसे ज्ञात पदार्थको तथा जो अज्ञात है ऐसे दृष्ट पदार्थको ही सदा कहते हैं, ऐसी आपत्ति प्राप्त होगी। और इसलिए एक समयमें ज्ञात और दृष्ट पदार्थको केवली जिन कहते हैं ' यह वचन ग्शेिष नहीं बन सकता है ।१४०। अज्ञात पदार्थको देखते हुए और अदृष्ट पदार्थ को जानते ३. छद्मस्थोंके दर्शनज्ञानकी क्रमवृत्तिमें हेतु ध. १/१,१,१३३/३८४/३ भवतु छद्मस्थायामप्यक्रमेण क्षीणावरणे इव तयो प्रवृत्तिरिति चेन्न, आवरणाविरुद्धाक्रमयोरक्रमप्रवृत्ति विरोधात । अस्वसंविद्रूपो न कदाचिदप्यात्मोपलभ्यत इति चेन्न, बहिरङ्गोपयोगावस्थायामन्तरगोफ्योगानुपलम्भात् । = प्रश्न--आवरण कम से रहित जीवोमें जिस प्रकार ज्ञान और दर्शनकी युगपत् प्रवृत्ति पायी जाती है, उसी प्रकार छद्मस्थ अवस्थामें भी उन दोनों की एक साथ प्रवृत्ति होओ। उत्तर-१. नहीं क्योंकि आवरण कर्म के उदयसे जिनकी युगपत् प्रवृत्ति करनेकी शक्ति रुक गयी है, ऐमे छद्मस्थ जीवोके ज्ञान और दर्शनमें युगपत् प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है। प्रश्न-२, अपने आपके संवेदनसे रहित आत्माकी तो कभी भी उपलब्धि नही होती है । ( अर्थात निज संवेदन तो प्रत्येक जीवको हर समय रहता ही है) उत्तर-नहीं, क्योंकि, बहिरंग पदार्थों के उपयोगरूप अवस्थामें अन्तरंग पदार्थ का उपयोग नहीं पाया जाता है। ४. दर्शनोपयोग सिद्धि १. आत्म ग्रहण अनध्यवसाय रूप नहीं है ध.१/१,१,४/१४८/३ सत्येवमनध्यवसायो दर्शनं स्यादिति चेन, स्वाध्यबसायस्थानध्यवसितबाह्यार्थस्य दर्शनत्वात् । दर्शनं प्रमाणमेव अविसंवादित्वात, प्रभासः प्रमाणं चाप्रमाणं च विसंवादाविसंवादोभयरूपस्य तत्रोपलम्भात । प्रश्न-दर्शनके लक्षणको इस प्रकारका ( सामान्य आरम पदार्थ ग्राहक ) मान लेनेपर अनध्यवसायको दर्शन मानना पड़ेगा. उत्तर-नहीं, क्योंकि, बाह्यार्थका निश्चय न करते हए भी स्वरूपका निश्चय करनेवाला दर्शन है, इसलिए वह अनध्यघसायरूप नहीं है। ऐसा दर्शन अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण ही है। और अनध्यवसायरूप जो प्रतिभास है वह प्रमाण भी है और अप्रमाण भी है, क्योंकि उसमें विसंवाद और अविसंवाद दोनों पाये जाते हैं । ('कुछ है ऐसा अनध्यवसाय निश्चयात्मक या अविसंवादी है और 'क्या है' ऐसा अनध्यवसाय अनिश्चयात्मक या विसंवादी है)। २.दर्शनके लक्षण में 'सामान्य' पदका अर्थ आत्मा ही है ध.१/१,१,४/९४७/३ तथा च 'जं सामण्ण' गहणं तदसणं' इति वचनेन विरोधः स्यादिति चेन्न, तत्रात्मन: सकलबाह्यार्थसाधारणत्वतः सामान्यव्यपदेशभाजो ग्रहणात ।-प्रश्न-उक्त प्रकारसे दर्शन और ज्ञानका स्वरूप मान लेनेपर अन्तरंग सामान्य विशेषका ग्रहण दर्शन, बाह्य सामान्य विशेषका ग्रहण ज्ञान (दे० दर्शन/२/३.४) 'वस्तुका जो सामान्य ग्रहण होता है उसको दर्शन कहते है' परमागमके इस जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy