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________________ दर्शन ४०५ १. दर्शनोपयोग निर्देश १ केवलीके दर्शनानको अवमवृत्तिमें हेतु। | अक्रमवृत्ति होनेपर भी केवलदर्शनका उत्कृष्टकाल । अन्तर्महतं बहनेका कारण। -दे० दर्शन/३/२/४ । छद्मरथोंके दर्शनशानकी क्रमवृत्तिमे हेतु। दर्शनपूर्वक ईहा आदि शान होनेका क्रम । -दे० मतिज्ञान/३। श्रत विभंग व मनःपर्ययके दर्शनों सम्बन्धी श्रुतदर्शनके अभावमे युक्ति। विभगदर्शनके अस्तित्वका कवि विवि-निबंध । मन.पर्यय दर्शनके अभाव मे युक्ति । मतिज्ञान ही श्रुत व मन.पर्ययका दर्शन है। दर्शनोपयोग सिद्धि * दर्शन प्रमाण है। -दे० दर्शन/४/१॥ आत्मग्रहण अनध्यवसायरूप नहीं है। दर्शनके लक्षणमें सामान्यपदका अर्थ आत्मा। सामान्य शब्दका अर्थ यहो निर्विकल्परूपसे सामान्य विशेषात्मक ग्रहण है। ४ | सामान्यविशेषात्मक आत्मा केवल सामान्य कैसे कहा जा सकता है। * | दर्शनका अर्थ स्वरूप संवेदन करनेपर सभी जीव सम्यग्दृष्टि हो जायेगे। -दे० सम्यग्दर्शन/I/१। यदि आत्मग्राहक ही दर्शन है तो चक्षु आदि दर्शनोंकी बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा क्यों की। -दे० दर्शन/५/३, ४ । * | यदि दर्शन बायार्थको नहीं जानता तो सन्धित्वका । प्रसंग आता है। -दे० दर्शन/२/७। दर्शन सामान्यके अस्तित्वकी सिद्धि।। अनाकार व अव्यक्त उपयोगके अस्तित्वकी सिद्धि । --दे० आकार/२/३ । दर्शनावरण प्रकृति भी स्वरूप संवेदनको धातती है। सामान्यग्रहण व आत्मग्रहणका समन्वय । दर्शनोपयोग सम्बन्धी कुक्ल प्ररूपणाएँ ज्ञान दर्शन उपयोग व शान-दर्शनमार्गणा, अन्तर । -दे० उपयोग/I/२। दर्शनोपयोग अन्तर्मुहूर्त अवस्थायी है। लब्ध्यपर्याप्त दशामे चक्षुदर्शनका उपयोग नहीं होता पर निवृत्त्यपर्याप्त दशामें कथचित् होता है। मिश्र व कार्माणकाययोगियोमे चक्षुदर्शनोपयोगका अभाव । उत्कृष्ट संक्लेश व विशुद्ध परिणामोमे दर्शनोपयोग संभव नहीं। -दे० विशुद्धि। ४ | दर्शन मार्गणामे गुणस्थानोंका स्वामित्व। दर्शन मार्गणा विषयक गुणस्थान, जीवसमास, भार्गणास्थान आदिके स्वामित्वकी २० प्ररूपणा । -दे० सत्। दर्शन विषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व। -दे० वह बह नाम । दर्शनमार्गणामे आयके अनुसार ही व्यय होनेका नियम । -दे० मार्गणा। दर्शन मार्गणामें कर्मोंका बन्ध उदय सत्व। -दे० वह बह नाम। meantanuman दशनोपयोगके भेदोंका निर्देश दर्शनोपयोगके भेदोंका नाम निर्देश। चक्षु आदि दर्शनोंके लक्षण। | बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणा परमार्थसे अन्तरंग विषयको ही | बताती है। बाह्यार्थाश्रित प्ररूपणाका कारण । चक्षुदर्शन सिद्धि। दृष्टकी स्मृतिका नाम अचक्ष दर्शन नहीं । पाँच दर्शनोके लिए एक अचक्षुदर्शन नाम क्यों ? चक्षु, अचक्षु व अवधिदर्शन क्षायोपशमिक कैसे है। -दे० मतिज्ञान/२/४ । केवलशान व दर्शन दोनो कथंचित् एक हैं। केवलज्ञानसे भिन्न केवलदर्शनकी सिद्धि । आवरणकर्मके अभावसे केवलदर्शनका अभाव नहीं १. दर्शनोपयोग निर्देश १. दर्शनका आध्यात्मिक अर्थ द. पा./मू. १४ दुविह पिगंथचायं तीसु वि जोएसु स जमो ठादि । णाणम्मि करणसुद्ध उब्भसणे दंसणं होई ।१४। = बाह्याभ्यन्तर परिग्रहका त्याग होय, तीनों योगविषै संयम होय, तीन करण जामे शुद्ध होय, ऐसा ज्ञान होय, बहुरि निर्दोष खडा पाणिपात्र आहार कर, ऐसे मूर्तिमत दर्शन होय।। बो. पा./मू /१४ दंसेइ मोक्खमग्गं सम्मत्तसंयम सुधम्मं च । णिग्गंथणाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ।१४।-जो मोक्षमार्गको दिखावे सो दर्शन है। वह,मोक्षमार्ग सम्यक्त्व, संयम और उत्तमक्षमादि सुधर्म रूप है। तथा बाह्य में निर्ग्रन्थ और अन्तरंगमे ज्ञानमयी ऐसे मुनिके रूपको जिनमार्ग में दर्शन कहा है। द. पा./पं. जयचन्द/१/३/१० दर्शन कहिये मत ( द. पा./पं. जयचन्द। १४/२६/३)। द. पा./प. जयचन्द/२/५/२ दर्शन नाम देखनेका है। ऐसे ( उपरोक्त प्रकार ) धर्मकी मूर्ति ( दिगम्बर मुनि) देखनेमे आवै सो दर्शन है, सो प्रसिद्धतासे जामे धर्मका ग्रहण होय ऐसा मतकू दर्शन ऐसा नाम है । होता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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