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________________ दक्ष ४०२ दर्शन तस्कृता बाधामप्रतीकारां सहमानस्य तेषा बाधा त्रिधाप्यकुर्वाणस्य निर्वाणप्राप्तिमात्रसंकल्पप्रवणस्य तद्वेदनासहनं दंशमशकपरिषहक्षमेत्युच्यते ।- मूत्रमे 'दंशमशक' पदका ग्रहण उपलक्षण है। दंशमशक पदसे दंशमशक, मकवी, पिस्सू, छोटो मक्खी, खटमल, कीट, चींटी और बिच्छू आदिका ग्रहण होता है। जो इनके द्वारा की गयी बाधाको बिना प्रतिकार किये सहन करता है, मन, वचन और कायसे उन्हे बाधा नहीं पहुंचाता है और निर्माणको प्राप्ति मात्र संकल्प ही जिसका ओढना है उसके उनको वेदनाको सह लेना दंशमशक परीषहजय है। (रा. वा./8/8/८-६/६०८/१८); (चा. सा/११३/३)। दयासागर-- १. धर्मदत्त चरित्र के कर्ता । समय-ई.१४२६ । (जै. सा. इ.14६)। २. हनुमान पुराण के कर्ता मराठी कवि। समयशक, १७३५, ई. १८१३ । (ती./४/३२२)।। द -भ. आ/वि./६१३/८१२/३ दर्पोऽनेकप्रकार । क्रीडासंघर्ष, व्यायामकुहक, रसायनसेवा, हास्य, गीतगृङ्गारवचनं, प्लवनमित्यादिको दर्प-दर्पके अनेक प्रकार है-क्रीडा स्पर्धा, व्यायाम, कपट, रसायन सेवा, हास्य, गीत और शृगारवचन, दौडना और कूदना ये दपके प्रकार हैं। २. दंश व मशक की एकता रा. वा./६/१७/४-६/६१६ दंशमशकस्य युगपत्प्रवृत्तरेकानविशतिविकल्प। इति चेत्, न; प्रकारार्थत्वान्मशक्शब्दस्य ।४। दंशग्रहणात्तुल्यजातीयसप्रत्यय इति चेत्, न; श्रुतिविरोधात् ।।...अन्यतरेण परीषहस्य निरूपितत्वात ।६। प्रश्न-दंश और मशकको जुदी-जुदी मानकर और प्रज्ञा व अज्ञानको एक मानकर, इस प्रकार एक जीवके युगपत १६ परोषह कही जा सकती है ? उत्तर-यह समाधान ठीक नहीं है। क्योकि 'दंशमशक' एक हो परोषह है। मशक शब्द तो प्रकारवाची है। प्रश्न-दंश शब्दसे ही तुल्य जातियोका बोध हो जाता है । अतः मशक शब्द निरर्थक है । उत्तर-ऐसा कहना उचित नहीं है । क्योंकि इससे श्रुतिविरोध होता है। - दंश शब्द प्रकारार्थक तो है नहीं। यद्यपि मशक शब्दका सीधा प्रकार अर्थ नही होता, पर जब दंश शब्द डास अर्थको कहकर परीषहका निरूपण कर देता है तब मशक शब्द प्रकार अर्थका ज्ञापन करा देता है । दर्शन-१ दक्षिण धातकीरखण्डका स्वामीदेव -दे० व्यन्तर/४ । २ दर्शन ( उपयोग)-दे० आगे। दर्शन-(षड्दर्शन) १. दर्शनका लक्षण षड्दर्शन समुच्चय/पृ. २/१८ दर्शन शासन सामान्यावबोधलक्षणम् । = दर्शन सामान्यावरोध लक्षणवाला शासन है। (दर्शन शब्द 'दृश' देखना) धातुसे करण अर्थमे ल्युट्' प्रत्यय लगाकर बना है। इसका अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाये । अर्थात जीवन व जीवन विकासका ज्ञान प्राप्त किया जाये। षड्दर्शन समुच्चय/३/१० देवतातत्त्वभेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभिः ।३।वह दर्शन देवता और तत्त्व के भेदसे जाना जाता है। ऐसा ऋषियोंने कहा है । और भी-दे० दर्शन (उपयोग)/१/१ २. दर्शन के भेद षड्दर्शनसमुच्चय/म./२-३ दर्शनानि षडेवात्र मूलभेदव्यपेक्षया...॥२॥ बौद्ध नैयायिक सांख्यं जैन वैशेषिक तथा। जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो ।३ = मूल भेदकी अपेक्षा दर्शन छह ही होते हैं। उनके नाम यह हैं-बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जेमिनीय। षड्दर्शनसमुच्चय/टी./२/३/१२ अत्र जगति प्रसिद्धानि षडेव दर्शनानि, एव शब्दोऽवधारणे, यद्यपि भेदप्रभेदतया बहुनि दर्शनानि प्रसिद्वानि । जगत प्रसिद्ध छह ही दर्शन है। एक शब्द यहाँ अवधारण अर्थमे है। परन्तु भेद-प्रभेदसे बहुत प्रसिद्ध है। दक्ष-ह. पु/१७/श्लोक-मुनिसुवतनाथ भगवान्का पोता तथा सुव्रत राजाका पुत्र था (१-२)। अपनी पुत्रीपर मोहित होकर उससे व्यभि चार किया। (१)। दक्षिण प्रतिपत्ति-आगममें आचार्य परम्परागत उपदेशोको ऋजु व सरल होनेके कारण दक्षिणप्रतिपत्ति कहा गया है। धवलाकार श्रीवीरसेनस्वामी इसको प्रधानता देते है। (ध. ११,६,३७/३२/६); (ध.१/ ५७), (ध. २/प्र. १५) । दक्षिणाग्नि-दे० अग्नि । दत्त-म पु./६६/१०३-१०६ पूर्व के दूसरे भवमे पिताका विशेष प्रेम न था। इस कारण युवराजपद प्राप्त न कर सके। इसलिए पितासे द्वेषपूर्वक दीक्षा धारणकर सौधर्म स्वर्गमे देव हुए । वहाँसे वर्तमान भवमें सप्तम नारायण हुए।-दे० शलाका पुरुष/४ । दत्ति-दे० दान । दधिमुख-नन्दीश्वर द्वोपमें पूर्वादि चारों दिशाओं मे स्थित चार चार बावड़ियों हैं। प्रत्येक बावडीके मध्यमें एक-एक ढोलाकार ( Cylinderical) पर्वत है। धवलवर्ण होनेके कारण इनका नाम दधिमुख है। इस प्रकार कुल १६ दधिमुख हैं। जिनमेसे प्रत्येकके शीशपर एक-एक जिन मन्दिर है । विशेष -दे० लोक/४/५ । दमितारी-म. पु./६२/श्लोक-पूर्व विदेहक्षेत्रमे शिवमन्दिरका राजा था (४३४) । नारदके कहनेपर दो सुन्दर नर्तकियोके लिए अनन्तवीर्य नारायणसे युद्ध किया ( ४३६ ) । उस युद्ध में चक्र द्वारा मारा गया (४८४)। दया-दे० करुणा। दयादत्ति-दे० दान । ३. वैदिक दर्शनका परिचय वैदिक दर्शन भारतीय संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। आकाश की भांति विभु परन्तु एक ऐसा तत्व इसका प्रतिपाय है जो कि स्वयं निराकार होते हुए भी जगत के रूप साकार सा हुआ प्रतीत होता है, स्वयं स्थिर होता हुआ भी इस जगत के रूप अस्थिर सा हुआ प्रतीत होता है। यह अखिल विस्तार इसकी क्षुद्र स्फरण मात्र है जो सागर की तरंगों की भांति उसी प्रकार इसमें से उदित हो होकर लोन होता रहता है जिस प्रकार कि हमारे चित्त में बैकल्पिक जगत। इस प्रकार यह इस अखिल बाह्याभ्यन्तर विस्तार का मूल कारण है । बुद्धि पूर्वक कुछ न करते हुए भी इसका कर्ताधर्ता तथा संहर्ता है, धाता विधाता तथा नियन्ता है। इसलिये यह इस सारे जगत का आत्मा है, ईश्वर है, ब्रह्म है।। किसी प्राथमिक अथवा अनिष्णात शिष्य को अत्यन्त गुह्य इस तत्त्व का परिचय देना शक्य न होने से यह दर्शन एक होते हुए भी छ' भागों में विभाजित हो गया है-वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक, सांख्य, योग और वेदान्त। यद्यपि व्यवहार भूमि पर ये छहों अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखते प्रतीत होते हैं, तदपि परमार्थतः एक दूसरे से पृथक कुछ न होकर ये एक अखण्ड वैदिक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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