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________________ त्रस ३९८ २. त्रस जीव निर्देश ७. त्याग धर्मकी महिमा कुरल/३५/१,६ मन्ये ज्ञानी प्रतिज्ञाय यत किञ्चित परिमुञ्चति । तदुत्पन्नमहादुःखान्निजात्मा तेन रक्षित.।१। अहं ममेति संकल्पो गर्वस्त्रार्थित्वसंभृतः। जेतास्य याति तं लोक स्वर्गादुपपरिवर्तिनम् ।। - मनुष्यने जो वस्तु छोड दी है उससे पैदा होनेवाले द्रवसे उसने अपनेको मुक्त कर लिया है ।११ 'मैं' और 'मेरे' के जो भाव हैं, वे घमण्ड और स्वार्थ पूर्णताके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जो मनुष्य उनका दमन कर लेता है वह देवलोकसे भी उच्चलोकको प्राप्त होता है।६। ८. अन्य सम्बन्धित विषय १. अकेले शक्तितस्त्याग भावनासे तीर्थकरत्व प्रकृतिबन्धको सम्भावना। --दे० भावना/२॥ २. व्युत्सर्ग तप व त्याग धर्ममें अन्तर। -दे० व्युत्सर्ग/२॥ ३. त्याग व शौच धर्ममें अन्तर । -दे० शौच। ४. अन्तरंग व बाह्य त्याग समन्वय । -दे० परिग्रह/२/६-७। ५. दस धर्म सम्बन्धी विशेषताएँ । --दे० धर्म/८। त्रस-अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने-फिरनेकी शक्तिवाले जीव त्रस कहलाते है। दो इन्दियसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक अर्थात् लट् . चींटी आदिसे लेकर मनुष्यदेव आदि सब स हैं। ये जीव यद्यपि अपर्याप्त होने सम्भव हैं पर सूक्ष्म कभी नहीं होते। लोकके मध्य में १राजू विस्तृत और १४ राजू लम्बी जो त्रस नाली कल्पित की गयी है, उससे बाहरमे ये नहीं रहते, न ही जा सकते हैं। ३. सकलेन्द्रिय व विकलेन्दिय के लक्षण मू.आ./२१६ संखो गोभी भमरादिआ दु विकलिदिया मुणेदव्वा । सकलि दिया य जलथलखचरा सुरणारयणराय।२१४॥ - शंख आदि, गोपालिका चीटी आदि, भौरा आदि, जीव दोइन्द्रिय, तीनइन्द्रिय, चार इन्द्रिय विकलेन्द्रिय जानना। तथा सिह आदि स्थलचर, मच्छ आदि जलचर, हंस आदि आकाशचर तिर्यंच और देव, नारकी, मनुष्य-ये सब पंचेन्द्रिय है ।२१।। ४. त्रस दो प्रकार हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त प.वं./११/सू.४२/२७२ तसकाइया दुविहा, पज्जता अपज्जता ॥४२॥ वस कायिक जीव दो प्रकार होते हैं पर्याप्त अपर्याप्त । ५. स जीव बादर ही होते हैं ध.१/१,१,४२/२७२ किं वसा सूक्ष्मा उत बादरा इति । बादरा एव न सूक्ष्माः । कुत' । तत्सौम्य विधायकार्षाभावात् । प्रश्न-वस जीव क्या सूक्ष्म होते हैं अथवा बादर । उत्तर-त्रस जीव बादर ही होते हैं, सूक्ष्म नहीं होते। प्रश्न-यह कैसे जाना जाये। उत्तरक्योंकि, त्रस जीव सूक्ष्म होते है, इस प्रकार कथन करनेवाला आगम प्रमाण नहीं पाया जाता है। (ध/8/४,१,७१/३४३/६); (का, अ./मू./१२) १. त्रस जीव निर्देश १. ब्रस जीवका लक्षण स.सि./२/१२/१७१/३ त्रसनामकर्मोदयवशी कृतास्त्रसाः। -जिनके त्रस नामकर्मका उदय है वे त्रस कहलाते हैं। रा.वा./२/१२/१/१२६ जीवनामकर्मणो जीवविपाकिन उदयापादित वृत्तिविशेषा' वसा इति व्यपदिश्यन्ते। =जीव विपाकी त्रस नामकर्मके उदयसे उत्पन्न वृत्ति विशेषवाले जीव स कहे जाते है। (ध.१/१,१, ३६/२६५/८) २. त्रस जीवोंके भेद त.सू./२/१४ द्वोन्द्रियादयस्त्रसाः ॥१४॥ - दो इन्द्रिय आदिक जीव वस है ।१४। मू.आ./२६८ दुविधा तसा य उत्ता विगला सगले दिया मुणेयव्वा। विति चउरिदिय विगला सेसा सगलिदिया जीवा ।२१८। -सकाय दो प्रकार कहे हैं-विकलेन्द्रिय और सकलेन्द्रिय । दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन तीनोको विकलेन्द्रिय जानना और शेष पंचेन्द्रिय जीवोंको सकलेन्द्रिय जानना ।२१८० (ति.प./५/२८०); (रा.वा./३/३६/ ४/२०६); (का.अ./१२८) पं. सं./प्रा./१/८६ विहि तिहि चऊहि पंचहि सहिया जे इंदिएहिं लोयम्हि । ते तस काया जीवा णेया वीरोवदेसेण ।८६। =लोकमें जो दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और पाँच इन्द्रियसे सहित जीव दिखाई देते हैं उन्हे वीर भगवानके उपदेशसे त्रसकायिक जानना चाहिए ।८६ (ध.१/१,१,४६/गा,१५४/२७४) (पं.सं /सं./१/१६०); (गो जी./मू./१६८); (द्र.सं./मू./११) न.च./१२३..... चदु तसा तह य ।१२३। = त्रस जीव चार प्रकार के हैं दो, तीन व चार तथा पाँच इन्द्रिय । ६. ब्रस जीवों में कथंचित् सूक्ष्मत्व ध.१०/४,२,४,१४/४७/८सुहुमणामकम्मोदयजणिद सुहमतेण विणा विग्गहगदीए बट्टमाणतसाणं सुहमत्तम्भुक्गमादो। कथं ते सुहमा। अर्णताणं तविस्ससोबचएहि उबचियओरालियणोकम्मक्खंधादो विणिग्गयदेहत्तादो। यहॉपर सूक्ष्म नामकर्म के उदयसे जो सूक्ष्मता उत्पन्न होती है, उसके बिना विग्रहगतिमें वर्तमान बसों को सूक्ष्मता स्वीकार की गयी है। प्रश्न-वे सूक्ष्म कैसे है। उत्तर- क्योंकि उनका शरीर अनन्तानन्त विस्रसोपचयोंसे उपचित औदारिक नोकर्मस्कन्धोंसे रहित है, अतः वे सूक्ष्म है। ७. सोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व ष.रवं./१/१,१/सू.३६-४४ एइंदिया बीइंदिया तीइंदिया चउरिदिया असण्णिपंचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइटिठट्ठाणे ।३६। पंचिदिया असण्णि पंचिदिय-मिच्छत्तप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ।३७१ तसकाइयाबीइंदिया-प्पर डि जाव अजोगिकेवलि त्ति ।४४।-एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्री इन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मिथ्यावृष्टि नामक प्रथम गुणस्थानमें ही होते हैं।३६ असंज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यावृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगिकेवलि गुणस्थानतक पंचेन्द्रिय जीव होते है ।३७। द्वीन्द्रिया दिसे लेकर अयोगिकेवलीतक सजीव होते हैं ।४४॥ रा.वा/8/७/११/६०५/२४ एकद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु एकमेव गुणस्थानमाद्यम् । पञ्चेन्द्रियेषु संज्ञिषु चतुर्दशापि सन्ति । --एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचे. न्द्रियमें एक ही पहला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। पचेन्द्रिय संज्ञियों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं । गो.जी./जी.प्र/६६५/११३१/१३ सासादने बादरै कद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंझ्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ता' सप्त । - सासादन विषै बादर एकेन्द्रिय, बेन्द्रिय तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व संज्ञो और असंज्ञी पर्याप्त ए सात पाइए (गो.जी /जी.प्र./७०३/११३७/१४), (गो.क./जी.प्र./५५१/७५३/७) (विशेष दे. जन्म/४)। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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