SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 401
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तीर्थकर बेलाव्रत तूष्णीक तीर्थकर बेलावत-व्रत विधान संग्रह/११० वृषभनाथका ७-८ का बेला तथा ६ को तीन अंजुली शर्बतका पारणा। अजितनाथका १३१४ का बेला तथा १५ को तीन अंजुलो दूधका पारणा । सम्भवनाथका ऋषभनाथवत् तथा अभिनन्दन नाथका अजितनाथवत् । इसी प्रकार आगे भी तीर्थकर नं०५,७,६,११,१३,१५,१७,१६,२१,२३ का ऋषभनाथवत् और तीर्थकर नं. ६,८,१०,१२,१४,१६,१८,२०,२२,२४ का अजितनाथवत जानना । जाप्य-“ओं ह्रीं वृषभादिचतुर्विंशतितीर्थंकराय नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । तीर्थकरवत-वत विधान संग्रह/४८ -२४ तीर्थंकरों के नामसे २४ दिन तक लगातार २४ उपवास । जाप्य-"ओ हीं वृषभादिचतुर्विशतितीर्थ करेभ्यो नमः" इस मन्त्रका त्रिकाल जाप । तीर्थ-१. निश्चय तीर्थका लक्षण बो. पा./मू २६-२७ वयसंमत्तविसुद्ध पंचेंदियसंजदे णिरावेरखो। पहाएउ मुणी तित्थे दिक्वासिक्खा सुण्हाणेण ।२६। [शुद्धबुद्धै कस्वभावलक्षणे निजात्मस्वरूपे संसारसमुद्रतारणसमर्थ तीर्थे स्नातु विशुद्धो भवतु] जंणिम्मल सुधम्म सम्मत्त संजम जाणं । तं तिथं जिणमग्गे हबेइ जदि संतिभावेण ।२७।- सम्यक्त्व करि विशुद्ध, पॉच इन्द्रियसंयत संवर सहित, निरपेक्ष ऐसा आत्मस्वरूप तीर्थ विषै दीक्षा शिक्षा रूप स्नान करि पवित्र होओ।२६। [शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव है लक्षण जिसका ऐसे निजात्म स्वरूप रूप तीर्थ में जो कि संसार समुद्रसे पार करने में समर्थ है। स्नान करके विशुद्ध होओ। ऐसा भाव है। बो. पा./टी./२६/१२/२१) ] जिन मार्ग विर्षे जो निर्मल उत्तम क्षमादि धर्म निर्दोष सम्यक्त्व, निर्मल संयम, बारह प्रकार निर्मल तप, और पदार्थ निका यथार्थ ज्ञान ये तीर्थ है। ये भी जो शान्त भाव सहित होय कषाय भाव न होय तब निर्मल तीर्थ है। मू. आ./५५७...। 'सुदधम्मो एत्थ पुण तिथं । - श्रृत धर्म तीर्थ कहा जाता है। घ.८/३,४२/१२/७ धम्मो णाम सम्मद सण-णाणचरित्ताणि । एदेहि ससारसायर तरात त्ति एवाणि तित्थ ।-धमका अथ सम्यदशन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है। चूंकि इनसे संसार सागरको तरते हैं इसलिए इन्हें तीर्थ कहा है। भ. आ./वि. ३०२/५१६/६ तरंति संसार येन भव्यास्तत्तीर्थ कैञ्चन तरन्ति श्रुतेन गणधरैलिम्बनर्भूतै रिति श्रुतं गणधरा वा तीर्थमित्युच्यते। =जिसका आश्रय लेकर भव्य जीव संसारसे तिरकर मुक्तिको प्राप्त होते हैं उसको तीर्थ कहते हैं। कितनेक भव्य जीव श्रुतसे अथवा गणधरकी सहायतासे संसारसे उत्तीर्ण होते हैं, इसलिए श्रुत और गणधरको तीर्थ कहते है। (स्व. स्तो./टी./१०६/२२६)। स. श /टो./२/२२२/२४ तीर्थ कृतः ससारोत्तरणहेतुभूतत्वात्तीर्थ मिव तीर्थमागमः। संसारसे पार उतरनेके कारणको तीर्थ कहते हैं, उसके समान होनेसे आगमको तीर्थ कहते हैं। प्र. सा /ता./वृ./१/३/२३ दृष्टश्रुतानुभूतविषयसुखाभिलाषरूपनीरप्रवेशरहितेन परमसमाधिपोतेनोत्तीर्णसंसारसमुद्रत्वात, अन्येषां तरणोपायभूतत्वाच्च तोर्थम् । = दृष्ट, श्रुत और अनुभूत ऐसे विषय-सुखकी अभिलाषा रूप जलके प्रवेशसे जो रहित है ऐसी परम समाधि रूप नौकाके द्वारा जो संसार समुद्रसे पार हो जानेके कारण तथा दूसरोंके लिए पार उतरनेका उपाय अर्थात् कारण होनेसे (बर्द्धमान भगवान्) परम तीर्थ हैं। २. व्यवहार तीथका लक्षण बो. पा (टो./२७/६३/७ तज्जगत्प्रसिद्ध निश्चयतीर्थप्राप्तिकारणं मुक्तमुनिपादस्पृष्टं तोर्थ ऊर्जयन्त शत्रुजयलाटदेशपावागिरि...तीर्थंकरपञ्चकल्याणस्थानानि चेत्यादिमार्गे यानि तीर्थानि वर्तन्ते तानि कर्मक्षयकारणानि वन्दनीयानि । =निश्चय तीर्थ की प्राप्तिका जो कारण हैं ऐसे जगत प्रसिद्ध तथा मुक्तजीवोंके चरणकमलोंसे स्पृष्ट ऊर्जयन्त, शत्रजय, लादेश, पावागिरि आदि तीर्थ है। वे तीर्थकरोंके पंचकल्याणकों के स्थान हैं। ये जितने भी तीर्थ इस पृथिवीपर बर्त रहे हैं वे सब कर्मक्षयके कारण होनेसे बन्दनीय हैं। (बो. पा./भाषा./४३/१३६/१०)। ३. तीथके भेद व लक्षण मू. चा/११८-५६० दुविहं च होइ तिथं णादव्वं दव्वभावसंजुत्तं । एदेसि दोण्हपि य पत्तेय परूवणा होदि ।५५८। दाहोपसमणं तण्हा छेदो मलपंकपवहणं चेव । तिहि कारणे हि जुत्तो तम्हा तं दव्वदो तित्थं ।५५६। दंसणणाणचरित्ते णिज्जुत्ता जिणवरा दु सम्वेपि । तिहि कारणेहि जुत्ता तम्हा ते भावदो तित्थं ॥५६० तीर्थ के दो भेद हैं-द्रव्य और भाव । इन दोनोंकी प्ररूपणा भिन्न भिन्न है ऐसा जानना ।५५८। संताप शान्त होता है, तृष्णाका नाश होता है, मल पंककी शुद्धि होती है, ये तीन कार्य होते है इसलिए यह द्रव्य तीर्थ है ।५५६। सभी जिनदेव दर्शन ज्ञान चारित्र कर संयुक्त हैं। इन तीन कारणोंसे युक्त हैं इसलिए वे जिनदेव भाव तीर्थ हैं।५६०। * भगवान् वीर का धर्मतीथ-दे० महावीर/२ । तीर्थकृद् भावना क्रिया-दे० संस्कार/२ । तीव्रका लक्षणध. ११/४,२,६,२४६/३४६/१३ तिव-मंददा णाम तेसिं जहणुकस्सपरिणामाणमविभागपडिच्छेदाणमप्पाबहूगं पखवेदि। -तीव-मन्दता अनुयोग द्वार उन (स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों) के जघन्य व उत्कृष्ट परिणामोंके अविभाग प्रतिच्छेदोंके अम्पबहुत्वकी प्ररूपणा करता है। * कषायकी.तीव्रता मन्दता-दे० कषाय । * परिणामोंकी तीव्रता मन्दता-दे० परिणाम । तासय-ल. सा/भाषा./२२६/२७६/१ जिन (कर्म नि ) की तीस कोड़ाकोडी (सागर ) की उत्कृष्ट स्थिति है ऐसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय, वेदनीय तिनकौं तीसीय कहिये। तुंबर-गन्धर्व नामा व्यन्तर जातिका एक भेद-दे० गन्धर्व । तुबुरव-सुमतिनाथ भगवान् का शासक यक्ष-दे० तीर्थ कर/५/२। तंबूलाचार्य -आपके असली नामका पता नहीं। तुंबूलर ग्राममें रहनेके कारण आपका यह नाम ही प्रसिद्ध है। आप शामकण्ड आचार्य के कुछ पश्चात् हुए हैं। कृतिआपने षट्खण्डके प्रथम पाँच खण्डोंपर चूड़ामणि नामकी टीका लिखी है। समय-ई. श. ३-४ (ष. खं/प्र. ४६ (H.L. Jain) तुरुष्क-वर्तमान तुर्किस्तान (म: पु./प्र.५० पन्नालाल )। तुलसीदास-आपको सन्त गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं । कृति रामायण, नवदुर्गाविधान । समय-वि० १६८० (हिं. जै. सा.इ/११५ कामताप्रसाद )। तुला-तोलका प्रमाण विशेष-दे. गणित/११/२। लिंग-भरत क्षेत्रस्थ आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४ । 1-तुल्य बल विरोध-दे० विरोध । तुषित-१, लौकान्तिक देवोंका एक भेद-दे. लौकान्तिक । ग-तूर्याग जातिका कल्पवृक्ष-दे० वृक्ष/१। तूष्णीक-पिशाच जातीय व्यन्तर देवोंका एक भेद -दे० पिशाच । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy