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________________ सत्सेवी ३५७ श्रुतसागर (शि. १६) कृत तत्त्वार्थ वृत्ति (श्रुत सागरी) । १५. द्वितीय श्रुतसागर विरचित तत्त्वार्थ सुखबोधिनी । १६. पं. सदासुख (ई० १७६३-१८६३) कृत अर्थ प्रकाशिका नाम टीका । (विशेष दे० प शिष्ट / १) । उपर्युक्त मूल तत्वार्थ सूत्र के अनुसार प्रभाचन्द्र द्वारा रचित द्वितीय रचना (ती./३/३००) । तत्प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान- दे० 'प्रत्यभिज्ञान' । तत्प्रदोष गो.क./जी.प्र./१००/१००/१ तत्प्रदोषतत्वज्ञाने हर्षाभावः । = तत्वज्ञानमें हर्षका न होना तत्प्रदोष कहलाता है। तत्प्रमाण ३० प्रमाण /2 तत्प्रायोगिक शब्द दे० 'शब्द'। तथाविधत्व- प्र सा./ता.वृ./१५/१२५/१५ तथाविधत्वं कोऽर्थः, उत्पादव्ययीव्यपर्यायस्वरूपेण परिणमन्ति तथा सर्वद्रव्याणि स्वकीयस्वकीययथोचितोत्पादव्ययधौव्यैस्तथैव गुणपर्यायैश्च सह यद्यपि संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभिर्मेदं कुर्वन्ति तथापि सत्तास्वरूपेण भेदं न कुर्वन्ति स्वभावत एव तथाविधत्वमवलम्बते - प्रश्नतथाविधका क्या अर्थ है ? उत्तर- (द्रव्य) उत्पाद, व्यय, धौव्य, और गुण पर्यायों स्वरूपसे परिणमन करते हैं वो ऐसे सर्व ही द्रव्य अपने-अपने यथोचित उत्पाद, व्यय, धौव्यके साथ और गुण पर्यायों के साथ यद्यपि संज्ञा, लक्षण और प्रयोजनादिसे भेदको प्राप्त होते हैं, तथापि सत्तास्वरूप व्यसे भेदको प्राप्त नहीं होते हैं। स्वभावसे ही उस स्वरूपका अवलम्बन करते हैं । तदाहृतादान - स.सि./०/२०/१६०/४ आमयुक्तेनाननुमतेन चौरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानम् । अपने द्वारा अप्रयुक्त और असंमत चोरके द्वारा लायी हुई वस्तुका ले लेना तदाहृतादान है। (रा.वा./०/२०/१२/५/४/ तदुभय प्रायश्चित्त- -दे० प्रायश्चित्त/१ । तद्भव मरण दे० मरण / १ । तद्भवस्थ केवली- - ३० केवली / १ । तद्भाव दे० अभाव । यतिरिक्त द्रव्य निक्षेप दे० निशेष/ तद्वयतिरिक्त संयमलब्धिस्थान - दे० लब्धि / ५ । तमक—दूसरे नरकाद्वितीय पदे० नरक /५/१९ । सनु वातवलय-दे० वातवलय । तप तप नाम यद्यपि कुछ भयावह प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, यदि अन्तरग वीतरागता व साम्यताकी रक्षा व वृद्धि के लिए किया जाये तो तप एक महान् धर्म सिद्ध होता है, क्योंकि वह दुखदायक न होकर आनन्द प्रदायक होता है। इसीलिए ज्ञानी शक्ति अनुसार तप करनेकी नित्य भावना भाते रहते है और प्रमाद नहीं करते । इतना अवश्य है कि अन्तरंग साम्यता से निरपेक्ष किया गया तप कायक्लेश मात्र है, जिसका मोक्षमार्ग में कोई स्थान नहीं । तप द्वारा अनाविके बंधे कर्म व संस्कार क्षण भरमे विनष्ट हो जाते हैं। इसलिए सम्यक् तपका मोक्षमार्ग में एक बड़ा स्थान है। इसी कारण गुरुजन शिष्यो के दोष दूर करनेके लिए कदाचित् प्रायश्चित्त रूपमें भी उन्हें तप करनेका आदेश दिया करते है । Jain Education International 9 १ २ ३ ५ * ६ २ १ ३ ४ ५ ६ ७ ८ १ २ 60 ሪ ३ संयम बिना तप निरर्थक है। * उपके साथ चारित्रका स्थान ४ ५ ६ भेद व लक्षण तपका निश्चय लक्षण | तपका व्यवहार लक्षण । आवककी अपेक्षा तपके लक्षण । उपके भेद प्रमेद । कठिन कठिन तप बाह्य व आभ्यन्तर तपके लक्षण । तप विशेष पंचाग्नि तपका लक्षण पंचाचार बाल तपका लक्षण | सप निर्देश ૪ ५ * ६ -- दे० कायक्लेश | तप भी संयमका एक अंग है। तप मतिज्ञान पूर्वक होता है । तप मनुष्यगति में ही सम्भव है। गृहस्थ के लिए तप करनेका विधि-निषेध तप शक्तिके अनुसार करना चाहिए। तपमें फलेच्छा नहीं होनी चाहिए। पंचमकालमें तपकी अप्रधानता । तप धर्म पालनार्थ विशेष भावनाएँ । बाह्याभ्यन्तर तपका समन्वय सम्यक्त्व सहित ही तप तप है सम्यक्त्व रहित तप अकिंचित्कर है। सम्यग् व मिव्यादृष्टिकी कर्म क्षपणा -दे० ६० वह वह नाम । -दे० अग्नि । बाह्य तपोंको तप करनेका कारण बाह्य आभ्यन्तर तपका समन्वय । 1 अन्तर - दे० मिथ्यादृष्टि / ४ | जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only अन्तरंग तपके बिना बाह्य तप निरर्थक है । अन्तरंग सहित बाह्य तप कार्यकारी है। -३० चारित्र २ । दाह्य तप केवल पुण्यन्धका कारण है। में बाह्य आभ्यन्तर विशेषणोंका कारण । ४ तपके कारण व प्रयोजनादि १-२ तप करनेका उपदेश; तथा उसउपदेशका कारण । ३पको तप कहनेका कारण तपसे मलकी वृद्धि होती है। तप निर्जरा व संवर दोनोंका कारण है । तप निर्जराकी प्रधानता - दे० इनके लक्षण । तप तप दुःखका कारण नही आनन्दका कारण है । तपकी महिमा । - दे० निर्जरा । www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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