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________________ तत्त्व उल्टा हुआ इस बातका ज्ञान करानेके लिए बन्धके बाद संवरका कथन किया है। संभरके होनेपर निर्जरा होती है इसलिए संबर के पास निर्जरा कही है । मोक्ष अन्तमें प्राप्त होता है । इसलिए उसका अन्तमें कथन किया है। अथवा क्योकि यहाँ मोक्षका प्रकरण है। इसलिए उसका कथन करना आवश्यक है। वह संसार पूर्वक होता है, और संसार के प्रधान कारण आसव और बन्ध हैं तथा मोक्षके प्रधान कारण संवर और निर्जरा है अतः प्रधान हेतु, हेतुवाले और उनके फलके दिखलानेके लिए अलग-अलग उपदेश किया है। (रा.वा./१/४/३/२६/६ प्र.सं./का/२८/८२/३ यथैवामेवनयेन पुण्यपापपदार्थद्वयस्यान्तर्भा जातस्तथैव विशेषाभेदनयविवक्षायामासादिपदार्थानामपि जीवाजीवद्वयमध्येऽन्तर्भावि कृते जीवाजीवी द्वावेन पदार्थानिति । तत्र परि हार हेयोपादेयतरयपरिज्ञानप्रयोजनार्थ माखवादिपदार्थाः व्याख्येया भवन्ति । तवेन कथयति उपादेयत्वमायानन्तस्य कारणं मोक्षो मोक्षस्य कारणं संवरनिर्जराद्वयं तस्य कारणं विशुद्ध निश्चयरत्नत्रय स्वरूपमात्मा । आकुलोत्पादकं नारक आदि दुःखं निश्चयेनेन्द्रियसुखं च यतत्त्वम् । तस्य कारणं संसार संसारकारणमासनमन्यपदार्थद्वयं तस्य कारणं मिथ्यादर्शमज्ञानचारित्रत्रय मिति एवं हेयोपादेयतव्याख्याने कृति सति + ... पदार्थाः स्वयमेव सिद्धाः । = प्रश्न - अभेदनयकी अपेक्षा पुण्य, पाप, इन दो पदार्थोंका सात पदार्थों में अन्तर्भाव हुआ है उसी तरह विशेष अभेद नयकी अपेक्षासे वासवादि व्यार्थीका भी इन दो पदार्थोंमें अन्तर्भाव कर लेनेसे जीव तथा अजीव दो ही पदार्थ सिद्ध होते हैं ? उत्तर-'कौन तत्त्व हेय है और कौन तत्त्व उपादेय है' इस विषयका परिज्ञान कराने के लिए आसवादि पदार्थ निरूपण करने योग्य है। इसीको कहते है- अविनाशी अनन्तसुख उपादेय तत्व है । उस अनन्त सुखका कारण मोक्ष है, मोक्षके कारण मंबर और निर्जरा हैं। उन संवर और निर्जराका कारण, विशुद्ध... निश्चय रत्नत्रय स्वरूप आत्मा है। अब हेयको कहते हैं-आकुलताको उत्पन्न करनेवाला नरकगति आदिका दुख तथा इन्द्रियोंनें उत्पन्न हुआ य यानी त्याज्य है, उसका कारण संसार है और उसके कारण आस्रव तथा बध ये दो पदार्थ है, और उस आसवका तथा बन्धका कारण पहले कहे हुए... मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान तथा मिथ्याचारित्र हैं। इस प्रकार हेय और उपादेय तत्त्वका निरूपण करनेपर सात तत्त्व तथा नौ पदार्थ स्वयं सिद्ध हो गये हैं । ( प.का /ता.वृ./१२८१३०/११२/१९) -- "" २. सप्त तत्त्व नव पदाथके उपदेशका कारण पं.का./त.प्र./११७ एवमिह जीवाजीवयोस्तो मे सम्यग्ज्ञान मार्गप्रसिद्धयर्थं प्रतिपादित इति । यहाँ जीव और अजीव का वास्तविभेद सम्पानियोंके मार्गकी प्रसिद्धि हेतु प्रतिपादित किया गया है । पं... १०१ दरसर्वस्यान, स्वारसिद्धः प्रमाणत तथा तेभ्योऽतिरिक्तस्य शुद्धस्यानुपलन्धित १०३ कथन ठीक नहीं है, क्योंकि उनका सर्वथा त्याग अर्थात् अभाव प्रमाणसे असिद्ध है तथा उन नम पदार्थोंको सर्वथा हेय माननेपर उनके बिना शुद्धात्माको उपलब्धि नहीं हो सकती है। ३. हेय तत्वोंके व्याख्यानका कारण इ.सं./टी./१४/५६/१० हेतमपरिज्ञाने सति पश्चानुपादेयस्वीकारो भवतीति । - पहले हेय तत्त्वका ज्ञान होनेपर फिर उणदेय पदार्थ स्वीकार होता है। Jain Education International ३५५ ३. तत्वोपदेशका कारण व प्रयोजन पं. घ. /उ. / १७६,१७८ नावश्यं वाच्यता सिद्ध्येत्सर्वतो हेयवस्तुनि । नान्धकारेऽनित्य प्रकाशानुभवो मना १९०६ न स्यातेभ्योऽतिरिक्तस्य सिद्धि' शुद्धस्य सर्वतः । साधनाभावतस्तस्य तद्यथानुपलब्धितः १७८॥ सर्वथा हेय वस्तुमें अभावात्मक वस्तुमें वाच्यता अवश्य सिद्ध नहीं हो सकती है। क्योकि अन्धकारमें प्रवेश नहीं करनेवाले मनुष्यको कुछ भी प्रकाशका अनुभव नही होता है । १०६ नौ पदार्थोंसे अतिरिक्त सर्वथा शुद्ध द्रव्यकी सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि साधनका अभाव होनेसे उस शुद्ध द्रव्यकी उपलब्धि नहीं हो सकती । ४. सप्त तर व नव पदार्थोंके व्याख्यानका प्रयोजन शुद्धात्मोपादेयता निसा./मू./२८ जीवादि महिन् यवादयमप्पणी जपा कम्मोपाधिसम्भवगुणपज्जा एहि वदिरित्तो |३८| जीवादि बाह्य तत्त्व हेय है, कर्मोपाधिजनित गुणपर्यायोंसे व्यतिरिक्त आत्मा आत्माको उपादेय है। इ. उ. / / ५० जीवोऽन्यः पुद्गलश्चान्य इत्यसो तत्त्वसंग्रहः । यदन्यदुच्यते किंचित सोऽस्तु तस्यैव विस्तरः ५०० जीव शरीरादिक गतसे भिन्न है और इस जीनसे भिन्न है यही तत्वका संग्रह है. इसके अतिरिक्त जो कुछ भी कहा जाता है वह सम सहीका विस्तार है - ३० सम्यग्दर्शन / II /६/३ ( पर व स्वमें हेयोपादेय बुद्धि पूर्वक एक शुद्धात्माका आश्रय करना) । I मोक्ष पंचा/२०१८ जीवे जीवार्पितो बन्धः परिणामनिकारकृत्। आसवादात्मनोऽशुद्ध परिणामात्प्रजायते ॥ ३॥ इति बुद्धासवं रुद्ध्वा कुरु संवरमुत्तमम् । जहीहि पूर्वकर्माणि तपसा निवृत्ति मज = जीवमें जीवके द्वारा किया गया बन्ध परिणामोमें विकार पैदा करता है और आत्मा के अशुद्ध परिणामों से कमोंका आसव होता है । ऐसा जानकर आसवको रोको, उत्तम संवरको करो. तपके द्वारा पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा करो और मोक्षको प्राप्त करो। का. अनु./मू./२०४ उत्तम गुणाण धाम सव्व दव्वाण उत्तम दव्वं । तचाण परम तच्च जीव जाणेणि णिच्छयदो । २०४ | जीव ही उत्तम गुणोका धाम है, सब द्रव्योमे उत्तम द्रव्य है और सब तत्वोंमे परम तत्त्व है, यह निश्चयसे जानो ॥२०॥ ससा /ता.वृ./३०६/४१०/८हारिकनवपदार्थ मध्ये भूतानसेन शुद्धजीव एक एव वास्तव स्थित इति व्यावहारिक पदार्थ मे निश्वयनयसे एक शुद्ध जीव ही वास्तवमे उपादेय है । पं.का./ता.वृ/१२८-१३०/१६३/११ रागादिपरिणामाना कर्मणश्च योऽसौ परस्पर' कार्यकारणभाव स एव रक्ष्यमा पुष्यादिपदार्थानां कारणमिति झाला पूर्वी सारच विनाशार्थ मध्यावाधानन्तसुखादि गुणानां चक्रभृते समूहरूने निजात्मस्वरूपे रागादिविकल्पपरिहारेण भावना कर्तव्येति । रागादि परिणामों और कर्मो का जो परस्पर में कार्यकारण भाव है वही यहाँ वक्ष्यमाण पुण्यादि पदार्थोका कारण है। ऐसा जानकर संसार चक्रके विनाश करनेके लिए अन्याबाध अनन्त सुखादि गुणोके समूह रूप निजात्म स्वरूप में रागादि भावोके परिहारसे भावना करनी चाहिए। निसा ता./१८ निजपरमात्मानमन्तरेण न किचिदुपादेयमस्तीति । - निज परमात्मा अतिरिक्त (अन्य) कुछ उपादेय नहीं है। १ १/१/७/१४/४ नवपदार्थेषु मध्ये शुद्धजीवास्तिकशुद्ध जीवद्रव्यशुद्धजीवशुद्धपदार्थ संशुद्धमभावमुपादेयतमायान्य द्वेयं । नवपदार्थोमे, शुद्ध जीवास्तिकाय निजशुद्ध जीवद्रव्य, निज जीवतरम, निज शुद्ध दाजी है, नही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है (द्र.सं / टो./५३/२२०/८) ६.४/२/४५० त्रार्थ जीवोय. स्वयं (यं) वैद्यश्चिदात्मक सोऽहमन्ये तु रागाद्या या पौद्रगलिका अमी |४५७| = उन नव तत्वोमै जो यह जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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