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________________ कर्म ३. द्रव्यभाव कर्म निर्देश स्वतन्त्रीकरणे मूलकारणम् । तदुदयापादितः पुद्गलपरिणाम आत्मनः सुखदुःखमलाधानहेतुः औदारिक शरीरादिः ईषत्कर्म नोकर्मेत्युच्यते। कि च स्थितिभेदाभेदः । प्रश्न-कर्म और नोकर्म में क्या विशेष है। उत्तर--आत्मके योगपरिणामों के द्वारा जो किया जाता है उसे कर्म कहते हैं। यह आत्माको परतंत्र बनानेका मूलकारण है । कर्मके उदयसे होनेवाला वह औदारिक शरीर आदिरूप पुद्गलपरिणाम जो आत्माके सुख-दुःख में सहायक होता है; नोकर्म कहलाता है। स्थितिके भेदसे भी कर्म और नोकर्म में भेद है।-दे० स्थिति । ४. छहों ही द्रव्योंमें कथंचित् द्रव्य कमपना देखा जा सकता है ३. द्रव्यभाव कर्म निर्देश १. कर्म जगत्का स्रष्टा है प.पु./४/३७ विधि स्रष्टा विधाता च दैवं कर्म पुराकृतम्। ईश्वरश्चेति पर्याया विज्ञेयाः कर्मवेधसः ॥३७॥ --विधि, स्रष्टा, विधाता, दैव, पुराकृत कर्म और ईश्वर ये सब कर्म रूपी ईश्वरके पर्याय वाचक शब्द है । अर्थात् इनके सिवाय अन्य कोई लोकका बनानेवाला नहीं। २. कर्म सामान्यके अस्तित्वकी सिद्धि क.पा १/१,१/६३७-३८/५६/४ एदस्स पमाणस्स बढिहाणि-तर-तमभावो ण ताव णिकारणो; वढि हाणि हि विणा एगसरुवेगावट्ठाणप्पसंगादो। ण च एवं तहाणुवलंभादो। तम्हा सकारणाहि ताहि होदव्यं । जंतं हाणि-तर-तमभावकारणं तमावरणमिदि सिद्ध' ।३७। ...कम्मं पि सहेउ तयिणासण्णाहाणुयवत्तीदो णव्वदे। ण च क्म्मविणासो असिद्धो। -ज्ञानप्रमाणका वृद्बिह्वासके द्वारा जो तरतम भाव होता है वह निष्कारण तो हो नहीं सकता है, क्योकि ऐसा माननेपर उस वृद्धि हानिका ही अभाव हो जायेगा और उसके न होनेसे ज्ञानके एकरूपसे रहनेका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि एकरूपसे अवस्थित ज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती। इसलिए वह सकारण होना चाहिए । अतः उसमें जो हानिके तरतमभावका कारण है वह आवरण कर्म है यह सिद्ध हो जाता है।३७१ तथा कर्म भी अहेतुक नहीं है, क्योंकि उनको अहेतुक माना जायेगा तो उनका विनाश बन नहीं सकता है। कर्म का विनाश असिद्ध नहीं है। -दे० मोक्ष,-दे० राग/५/१ । प्र.सा./त.प्र./११७ क्रिया खल्वात्मना प्राप्यत्वात्कम, तन्निमित्तप्राप्तपरिणामः पुद्गलोऽपि कर्म, तत्कार्यभूता मनुष्यादिपर्याया जोवस्य क्रियाया मूलकारणभूतायाः प्रवृत्तत्वात क्रियाफलमेव स्युः । क्रियाभावे पुद्गलाना कर्मत्वाभावात्तत्कार्यभूतानां तेषामभावात् । अथ कथं ते कर्मणः कार्यभावमायान्ति, कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणत्वात् प्रदीपयत । तथाहि-यथा ज्योति स्वभावेन तैलस्वभावमभिभूय क्रियमाणः प्रदीपो ज्योति कार्य तथा कर्मस्वभावेन जीवस्वभावमभिभूय क्रियमाणा मनुष्यादिपर्यायाः कर्म कार्यम् । =क्रिया वास्तवमें आत्माके द्वारा प्राप्त होनेसे कर्म है। उसके निमित्तसे परिणमनको प्राप्त होता हुआ पुद्गल भी कर्म है। उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायें मूलकारणभूत जीवकी क्रियासे प्रवर्तमान होनेसे क्रियाफल ही हैं, क्योंकि क्रियाके अभावमें पुद्गलोंको कर्मत्वका अभाव होनेसे उसकी कार्यभूत मनुष्यादि पर्यायोंका अभाव होता है। प्रश्न-मनुष्यादि पर्यायें कर्म के कार्य कैसे हैं, उत्तर-वे कर्म स्वभावके द्वारा जीवके स्वभावका पराभव करके ही की जाती हैं। यथा-ज्योतिः (लो) के स्वभावके द्वारा तेलके स्वभावका पराभव करके किया जानेवाला दीपक ज्योतिका कार्य है, उसी प्रकार कर्मस्वभावके द्वारा जीवके स्वभावका पराभव करके की जानेवाली मनुष्यादि पर्याय कर्म के कार्य हैं। गो.क./जी.प्र./२/३/६ तयोरस्तित्वं कुतः सिद्ध। स्वतः सिद्ध । अहंप्रत्यमवेद्यत्वेन अात्मनः दरिद्रश्रीमदादिविचित्रपरिणामात् कर्मणश्च सरिसद्धेः । - प्रश्न-जीव और कर्म इन दोनोंका अस्तित्व काहे ते सिद्ध है। उत्तर-स्वतः सिद्ध है। जातै 'अहं' इत्यादिक मानना जीव बिना नाहीं सम्भवै है। दरिद्री लक्ष्मीवान इत्यादिक विचिप्रता कर्म बिना नाहों सम्भवै है । (पं.ध./उ./५०) ३. कर्म व नोकर्ममें अन्तर रा, वा./५/२४/४/४८८/२० अत्राह-कर्मनोकर्मणः कः प्रतिविशेष इति । उच्यते-आत्मभावेन योगभावलक्षणेन क्रियते इति कर्म। तदात्मनोऽ घ.वं.१३/५,४/सूत्र १४/४३ जाणि दब्वाणि सम्भावकिरियाणिप्फण्णाणि तं सव्वं दबकम्मं णाम ११४॥ घ. १३/५,४,१४/४३/७ जीवदव्वस्स णाणदंसणेहि परिणामो सब्भावकिरिया, पोग्गलदव्यस्स बण्ण-गंध-रस-फास-विसेसेहि परिणामो सम्भावकिरिया ।...एवमादीहि किरियाहि जाणि णिप्पण्णाणि सहाबदो चेव दव्वाणि तं सम्बं दबकर्म णाम। - १. जो द्रव्य सद्भावक्रियानिष्पन्न हैं वह सब द्रव्यकर्म हैं।१४। २. जीवद्रव्यका ज्ञानदर्शन आदिरूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सद्भाव क्रिया है । पुद्गल द्रव्यका वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श विशेष रूपसे होनेवाला परिणाम उसकी सद्भाव-क्रिया है। (धर्म व अधर्म द्रव्यका जीव व पुदगलोंकी गति व स्थितिमें हेतुरूप होना तथा काल व आकाशमे सभी द्रव्योको परिणमन व अवगाहमें निमित्त रूप होनेवाला परिणाम उन-उन की सद्भाव क्रिया है ) इत्यादि क्रियाओं के द्वारा जो द्रव्य-स्वभावसे ही निष्पन्न है वह सब द्रव्य कर्म है। विशेषार्थ-मूल द्रव्य छह है और वे स्वभावसे ही परिणमनशील है। अपने-अपने स्वभावके अनुरूप उनमें प्रतिसमय परिणमन क्रिया होती रहती है और क्रिया कर्मका पर्यायवाची है। यही कारण है कि यहाँ 'द्रव्यकर्म' शब्दसे मूलभूत छह द्रव्योंका ग्रहण किया है। ५. जीव व पुद्गल दोनोंमें कथंचित् भावकर्मपना देखा जा सकता है गो, कम्./६/६ कम्मत्तणेण एक्कं दव्वं भावोत्ति होदि दुविहं तु । पोग्गलपिंडो दव्वं तस्सत्ती भावकम्मं तु ।६।। गो.क./जी.प्र./६/६/६ कार्ये कारणोपचारात्तु शक्तिजमिताज्ञानादिर्वा भावकर्म भवति । कर्म सामान्यभावरूप कर्मत्व करि एक प्रकारका है। बहुरि सोई कर्म द्रव्य और भावके भेदसे दोय प्रकार है। तहाँ ज्ञानावरणादि पुद्गलद्रव्यका पिण्ड सो द्रव्यकर्म है, बहुरि तिस पिण्ड विषै फल देनेकी शक्ति है सो भाबकर्म है । अथवा कार्य विषै कारणके उपचारत तिस शक्ति उत्पन्न भए अज्ञानादिक व क्रोधादिक, सो भी भाव कर्म कहिए। स.सा./ता.वृ./१६०-१९६२ में प्रक्षेपक गाथाके पश्चावकी टीकाभावकर्म द्विविधा भवति। जीवगतं पुद्गलकर्मगत च। तथाहिभावक्रोधादिव्यक्तिरूपं जीवभावगतं भण्यते। पुद्गलपिण्डशक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं । तथा चोक्तं-(उपरोक्त गाथा) ॥ अत्र दृष्टान्तो यथा-मधुरकटुकादिद्रव्यस्य भक्षणकाले जीवस्य मधुरकटुकस्वादव्यक्तिविकल्परूपं जीवभावगतं, तद्वयक्तिकारणभूतं मधुरकटुकद्रव्यगतं शक्तिरूपं पुद्गलद्रव्यगतं । एवं भावकर्मस्वरूपं जीवगत पुद्गलगतं च द्विधेति भावकर्म व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यम् । =भावकर्म दो प्रकारका होता है-जीवगत व पुद्गल गत । भाव क्रोधादिकी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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