SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 349
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जीवत्व ३४१ जीव समास प्राणोंके कारणभूत आठ कमीका अभाव है ।...सिद्धों में प्राणों का अभाव जोव विचय-दे० धर्मध्याना। अन्यथा बन नहीं सकता, इससे मालूम पड़ता है कि जीवत्व पारि जीव वियाकी-दे० प्रकृति बन्ध/२ । णामिक नहीं है। किन्तु वह कर्मके विपाकसे उत्पन्न होता है, क्योंकि जो जिसके सद्भाव व असद्भावका अविनाभावी होता है, वह उसका जीव संवर-दे० संवर/१ में भाव संवर। है, ऐसा कार्यकारणभावके ज्ञाता कहते हैं, ऐसा न्याय है। इसलिए जीव.समास-१. लक्षण जीवभाव (जीवत्व ) औदयिक है यह सिद्ध होता है । पं.सा /प्रा./१/३२ जेहि अणेया जीवा णज्जंते बहविहा वितज्जादी। तें ४. पारिणामिक व औदयिकपनेका समन्वय पुण संगहिवत्था जोवसमासे त्ति विण्णेया।३२-जिन धर्मविशेषों के ध.१४/५.६.१६/१३/७ तच्चत्य जे जीवभावस्स पारिणामियत्तं परविदं तं । द्वारा नाना जीव और उनको नाना प्रकारकी जातियाँ, जानी जाती पाणधारणत्तं पडुच्च ण परू विदं, किंतु चेदणगुणमवलंबिय तत्थ हैं, पदार्थों का संग्रह करनेवाले उन धर्म विशेषोंको जीवसमास जानना परूवणा कदा । तेण तं पि ण विरुज्झइ। -तत्त्वार्थ सूत्रों जीवत्वको चाहिए । (गो. जी./मू./७०/१८४)। जो पारिणामिक कहा है, वह प्राणोंको धारण करनेकी अपेक्षा न ध. १/१,१,२/१३१/२ जीवाः समस्यन्ते एष्विति जीवसमासाः । कहकर चैतन्यगुणकी अपेक्षासे कहा है। इसलिए वह कथन विरोधको ध./१/१,१,/१६०/६ जीवाः सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमासाः। क्याप्राप्त नहीं होता। सते। गुणेषु । के गुणा.। औदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपपशमिकपारि५. मोक्षमें मव्यत्व मावका अमाव हो जाता है पर णामिका इति गुणाः । = १. अनन्तानन्त जीव और उनके भेद प्रभेदोंजीवत्वका नहीं का जिनमें मंग्रह किया जाये उन्हें जीवसमास कहते हैं। २. अथवा जिसमें जीव भले प्रकार रहते है अर्थात पाये जाते हैं उसे जीवसमास त.सू./१०/३ औपशमिकादिभव्यत्वानाञ्च ।३। कहते है। प्रश्न-जीव कहाँ रहते हैं ? उत्तर-गुणोंमें जीव रहते हैं । रा. वा./१०/३/१/६४२/७ अन्येषां जीवत्वादीनां पारिणामिकानों मोक्षा प्रश्न--वे गुण कौनसे हैं 1 उत्तर-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, वस्थायामनिवृत्तिज्ञापनाथ भव्यत्व-ग्रहणं क्रियते । तेन पारिणामिकेषु क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये पाँच प्रकारके गुण अर्थात् भाव हैं, भव्यत्वस्य औपशमिकादीनां च भावानामभावान्मोक्षो भवतीत्य जिनमें जीव रहते हैं। वगम्यते । भव्यत्वका ग्रहण सूत्रमे इसलिए किया है कि जीवत्वादि गो. जी.//७१/१८६ तसचदुजुगाणमझे अविरुधेहिंजुदजादिकम्मुदये । अन्य पारिणामिक भावोंकी निवृत्तिका प्रसंग न आ जावे। अत' जीवसमासा होंति हु तब्भवसारिच्छसामण्णा ७१। -बस-स्थावर, पारिणामिक भावों में से तो भव्यत्व और औपश मिकादि शेष ४ भावों बादर-सूक्ष्म, पर्याप्त-अपर्याप्त, प्रत्येक-साधारण ऐसी नामकर्मकी प्रकृमें से सभोंका अभाव होनेसे मोक्ष होता है, यह जाना जाता है। तियोंके चार युगलोमें यथासम्भव परस्पर विरोधरहित जो प्रकृतियाँ, उनके साथ मिला हुआ जो एकेन्द्रिय आदि जातिरूप नामकर्मका ६. अन्य सम्बन्धित विषय उदय, उसके होनेपर जो तदभावसादृश्य सामान्यरूप जीवके धर्म, वे १. मोक्षमें औदयिकभावरूप जीवत्वका अभाव हो जाता है-दे०जीव/ जीवसमास है। २/२। २. मोक्षमें भी कथंचित् जीवत्वकी सिद्धि-दे० जीव/२/११ जीवद्यशा-(ह. पू./सर्ग/श्लोक )-राजगृह नगरके राजा जरासन्ध २. जीव समासोंके अनेक प्रकार भेद-प्रभेद १,२ भादि (प्रतिनारायण) की पुत्री थी। कंसके साथ विवाही गयी। ( ३३/२४ ) अपनी ननद देवकीके रजोवस्त्र अतिमुक्तक मुनिको दिखानेपर जीवसामान्यकी अपेक्षा एक प्रकार है। मुनिने इसे श्राप दिया कि देवकीके पुत्र द्वारा ही उसका पति व पुत्र संसारी जीवके त्रस-स्थावर भेदोकी अपेक्षा २ प्रकार है। दोनों मारे जायेंगे । (३३/३२-३६)। और ऐसा ही हुआ । (३६/४५) । जीवन एकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय, व सकलेन्द्रियकी अपेक्षा ३ प्रकार है। एके विक०, संज्ञी पंचे, असंज्ञी पंचें०. की अपेक्षा ४ प्रकार है। स. सि./५/२०/२८८/१३ भवधारणकारणायुराख्यकर्मोदयाइभवस्थित्यादधानस्य जीवस्य पूर्वोक्तप्राणापानक्रियाविशेषाव्युच्छेदो जीवितमि एक द्वी०, त्री०, चतु० पंचेन्द्रियकी अपेक्षा ५ प्रकार है। त्युच्यते ।- पर्यायके धारण करनेमें कारणभूत आयुकर्मके उदयसे भव- पृथिवी, अप, तेज, वायु, बनस्पति व त्रसकी अपेक्षा ६ प्रकार है। स्थितिको धारण करनेवाले जीवके पूर्वोक्त प्राण और अपानरूप क्रिया पृथिवी आदि पाँच स्थावर तथा विकलेन्द्रिय सकलेन्द्रिय ७प्रकार है विशेषका विच्छेद नहीं होना जीवित है। (रा. वा./५/२०/३/४७४/ उपरोक्त ७ में सकलेन्द्रियके संज्ञी असंज्ञी होने से ८ प्रकार है २६); (गो. जी./जी. प्र./६०६/१०६२/९५) । स्थावर पाँच तथा उसके द्वी०,त्री०, चतु व पंचे०-ऐसे प्रकार है ध, १४/५,६१६/१३/२ आउआदिपाणाणं धारणं जीवणं । आयु आदि उपरोक्त ह में पंचेन्द्रियके संज्ञी-असंज्ञी होनेसे १० प्रकार है प्राणोंका धारण करना जीवन है। ध. १३/५,५,६३/३३३/११ आउ पमाणं जीविदं णाम -आयुके प्रमाणका पाँचों स्थावरोंके बादर सूक्ष्मसे १० तथा त्रस- ११ प्रकार है नाम जीवित है। उपरोक्त स्थावरके १० + विकलें व सकलेन्द्रिय १२ प्रकार है भ.आ./वि /२५/८/ जीवितं स्थितिरविनाशोऽवस्थितिरिति यावत् । उपरोक्त १२ में सकलेन्द्रियके संज्ञी व असंझी होनेसे १३ प्रकार है ___=जीवन पर्यायके ही स्थिति, अविनाश, अवस्थिति ऐसे नाम हैं। स्थावरों के बादर सूक्ष्मसे १० तथा त्रसके द्वी०, त्री०, चतु०, जीव निर्जरा-दे० निर्जरा/१ में भाव निर्जरा। पं० ये चार मिलने से १४ प्रकार है जीवन्मुक्त-दे० मोक्ष/१। उपरोक्त १४ मे पंचेन्द्रियके संज्ञी-असंज्ञी होनेसे १५ प्रकार है पृ० अप, तेज, वायु, साधारण बनस्पतिके नित्य व इतर जीव बंध-दे० अन्ध/१। निगोद ये छह स्थावर इनके बादर सूक्ष्म-१२+ प्रत्येक जीव मोक्ष-दे० मोक्ष/१ में भाव मोक्षः बन०, विकलेन्द्रिय, संज्ञी व असंज्ञीजैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भेद १६ प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy