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________________ जोव ३३८ ३. जीवके गुण व धर्म ५. जीवमें कथंचित् शुद्धत्व व अशुद्धत्वका निर्देश दोनोकी भी कोई योजना न बन सकती, क्योंकि पुण्य-पाप पूर्वक ही संसार होता है और उनके अभावसे मोक्ष । श्लो वा./२/१/४ श्लो, ४५/१४६ क्रियावान पुरुषोऽसर्वगतद्रव्यत्वतो यथा। पृथिव्यादि स्वसवेद्यसाधनं सिद्धमेव नः।४॥ आत्मा क्रियावान् है, क्योंकि अव्यापक है, जैसे पृथिवी जल आदि। और यह हेतु स्वसंवेदनसे प्रत्यक्ष है। प्र. सा./त. प्र./१३७ अमूर्त संवर्त विस्तारसिद्धिश्च स्थूलकृशशिशुकुमार शरीरव्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव । अमूर्त आत्माके संकोच विस्तारकी सिद्धि तो अपने अनुभवसे ही साध्य है, क्योंकि जीव स्थूल तथा कृश शरीरमें तथा बालक और कुमारके शरीरमें व्याप्त होता है। का. अ./मू-/१७७ सव्व-गओ जदि जीवो सब्वत्थ वि दुक्खसुवरवसंपत्ती। जाइज्ज ण सा दिट्ठी णियतणुमाणो तदो जीवो। यदि जीव व्यापक है तो इसे सर्वत्र सुखदु.खका अनुभव होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता । अतः जीव अपने शरीरके बराबर है। अन. घ./२/३१/१४६ स्वाङ्ग एव स्वसं वित्त्या स्वारमा ज्ञानसुखादिमान् । यतः संवेद्यते सर्वैः स्वदेहप्रमितिस्तत. ३१ = ज्ञान दर्शन मुरब आदि गुणों और पर्यायोसे युक्त अपनी आत्माका अपने अनुभवसे अपने शरीरके भीतर ही सब जीवोको संवेदन होता है। अत. सिद्ध है कि जीव शरीरप्रमाण है। द्र. सं./मू./१३ मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहि हवंति तह असुद्धणया। विष्णेया संसारी सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ।१३। संसारी जीव अशुद्धनयकी दृष्टि से चौदह मार्गणा तथा चौदह गुणस्थानोसे चौदह-चौदह प्रकारके होते है और शुद्धनयसे सभी मंसारी जीव शुद्ध हैं । ( स. सा/मू./३८-६८)। प्र..सा/ता, वृ/८/१०/११ तच्च पुनरुपादानकारणं शुद्धाशुद्धभेदेन द्विधा । रागादिविकल्परहितस्वसंवेदनशानआगमभाषया शुक्लध्यानं वा केवलज्ञानोत्पत्तौ शुद्धोपादानकारणं भवति । अशुद्धात्मा तु रागादिना अशुद्धनिश्चयेनाशुद्धोपादानकारणं भवतीति सूत्रार्थः।वह उपादान कारणरूप जीव शुद्ध और अशुद्धके भेदसे दो प्रकारका है। रागादिविकल्प रहित स्वसंवेदज्ञान अथवा आगम भाषाकी अपेक्षा शुक्लध्यानकेवलज्ञानकी उत्पत्तिमें शुद्धउपादानकारण है और अशुद्धनिश्चनयसे रागादिसे अशुद्ध हुआ अशुद्ध आत्मा अशुद्ध उपादान कारण है । ऐसा तात्पर्य है। ६. जीव कथंचित् सर्वव्यापी है प्र. सा/२३,२६ आदा णाणपमाणं णाणं णेयप्पमाणमुट्ठि । णेयं लोयालोयं तम्हा णाणं तु सवगर्य ।२३. सव्वगदो जिणवसहो सब्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा। णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया ।२६।- १. आत्मा ज्ञानपमाण है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण कहा गया है, ज्ञेय लोकालोक है, इसलिए ज्ञान सर्वगत है ।२३। (पं. वि/८/५) २. जिनवर सर्वगत हैं और जगतके सर्वपदार्थ जिनवरगत हैं; क्योंकि जिन ज्ञानमय हैं, और वे सर्वपदार्थ ज्ञानके विषय हैं, इसलिए जिनके विषय कहे गये है ( का, अ/म्/२५४/२५३)। प.प्र./मू.//९/५२ अप्पा कम्मविवज्जियउ केवलणाणेण जेण । लोयालोउ वि मुणइ जिय सव्वगु वुच्चइ तेण ॥५२॥ - यह आत्मा कर्मरहित होकर केवलज्ञानसे जिस कारण लोक और अलोकको जानता है इसी लिए हे जीव ! वह सर्वगत कहा जाता है। दे. केवलो ७/७ ( केवली समुद्घातके समय आत्मा सर्वलोकमें व्याप जाता है)। ७. जीव कथंचित् देह प्रमाण है पं.का./मू./३३ जह पउमरायरयणं वित्तं खीरे पभासयदि वीरं । तह देही देहत्थो सदेहमित्तं पभासयदि ॥३३॥- जिस प्रकार पद्मरागरत्न दूधमें डाला जानेपर दूधको प्रकाशित करता है उसी प्रकार देही देहमें रहता हुआ स्वदेहप्रमाण प्रकाशित होता है। स. सि./१/८/२७४/8 जोबस्तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वारकर्म निर्वतितं शरोरमणुमहद्वाधितिष्ठस्तावदवगाह्य वर्तते।यद्यपि जीवके प्रदेश धर्म व अधर्म या लोकाकाशके बराबर हैं, तो वह संकोच और विस्तार स्वभाववाला होनेके कारण, कर्मके निमित्त से छोटा या बड़ा जैसा शरीर मिलता है, उतनी अवगाहनाका होकर रहता है। (रा. वा./५/८/४/४४६/३३); (का. अ./मू./१७६ )। पं. का./ता. वृ./३४/७२/१३ सर्वत्र देहमध्ये जीवोऽस्ति न चैकदेशे। 20 देहके मध्य सर्वत्र जीव है, उसके किसी एकदेशमें नहीं। ८. सर्वव्यापीपनेका निषेध व देहप्रमाणपनेको सिद्धि रा. वा/१/१०/१६/१२/१३ यदि हि सर्वगत आत्मा स्यात्; तस्य क्रियाभावात् पुण्यपापयोः कर्तृत्वाभावे तत्पूर्व कसंसारः तदुपरतिरूपश्च । मोक्षो न मोक्ष्यते इति । यदि आत्मा सर्वगत होता तो उसके क्रियाका अभाव हो जानेके कारण पुण्य व पापके ही कर्तृत्वका अभाव हो जाता। और पुण्य व पापके अभावसे संसार व मोक्ष इन ९. जीव संकोच विस्तार स्वभावी है त.सू./५/१६ प्रदेशसंहारविसर्पाभ्यां प्रदीपवत् । दीपके प्रकाशके समान जीवके प्रदेशोंका सकोच विस्तार होता है। (स.सि./५/८/२७४/९); ( रा.वा./५/८/४/४४६/३३); (प्र.सा./त.प्र./१३६,१३७), (का. अ./म./१७६) १०. संकोच विस्तार धर्मकी सिद्धि रा.वा./५/१६/४-६/४५८/३२ सावयवत्वात प्रदेश विशरणप्रसंग इति चेतः न; अमूर्त स्वभावापरित्यागात् ।।.. अनेकान्ताव ।५। यो ह्येकान्तैन संहारविसर्पवानेवात्मा सावयवश्चेति वा ब्र यात तं प्रत्ययमुपालम्भो घटामुपेयात् । यस्य त्वनादिपारिणामिकचैतन्यजीवद्रव्योपयोगादिद्रव्यार्थादेशात स्यान्न प्रदेशसंहारविसर्पवान, द्रव्यार्थादेशाच्च स्यान्निरवयवः, प्रतिनियतसूक्ष्मबादरशरीरापेक्षनिर्माणनामोदयपर्यायार्थादेशात् स्यात प्रदेशसंहारविसर्पवान्, अनादिकर्मबन्धपर्यायार्थादेशाच्च स्यात् सावयवः, तं प्रत्यनुपालम्भः । किच-तत्प्रदेशानामकारणपूर्वकत्वादणुवत ६ - प्रश्न-प्रदेशोंका संहार व विसर्पण माननेसे आत्माको सावयव मानना होगा तथा उसके प्रदेशोका विशरण (झरन) मानना होगा और प्रदेश विशरणसे शून्यताका प्रसंग आयेगा। उत्तर-१.बन्धकी दृष्टिसे कार्मण शरीरके साथ एकत्व होनेपर भी आत्मा अपने निजी अमूर्त स्वभावको नहीं छोड़ता, इसलिए उपरोक्त दोष नहीं आता। २. सर्वथा संहारविसर्पण व सावयव माननेवालोंपर यह दोष लागू होता है, हमपर नहीं। क्योंकि हम अनेकान्तवादी हैं । पारिणामिक चैतन्य जीवद्रव्योपयोग आदि द्रव्यार्थदृष्टिसे हम न तो प्रदेशोंका संहार या विसर्प मानते हैं और न उसमें सावयवपना। हाँ, प्रतिनियत सूक्ष्म बादर शरीरको उत्पन्न करनेवाले निर्माण नामकर्मके उदयरूप पर्यायको विवक्षासे प्रदेशोंका संहार व विसर्प माना गया है और अनादि कर्मबन्धरूपी पर्याया देशसे सावयवपना। और भी-३. जिस पदार्थ के अवयव कारण पूर्वक होते हैं उसके अवयवविशरणसे विनाश हो सकता है जैसे तन्तुविशरणसे कपड़ेका। परन्तु आत्माके प्रदेश अकारणपूर्वक होते हैं, इसलिए अणुप्रदेशवत् वह अवयवविश्लेषसे अनित्यताको प्राप्त नहीं होता। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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