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________________ जीव - मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ ऐसे अन्तर्मुखी प्रत्ययोंकी आत्मा के आल ही उत्पत्ति होती है। और मैं गोरा, मैं काला ऐसे बहिर्मुखी भी शरीर मात्रके सूचक नहीं हैं, क्योंकि प्रिय नौकरमे अहं बुद्धिकी भाँति यहाँ भी अहं प्रत्ययका प्रयोग आत्माके उपकार करनेवालेमें किया गया है । ( पं. ध. /उ. / ५.५० ); ( ) अहं प्रत्यय में कादाचित्कत्वके प्रति भी उत्तर यह है कि जिस प्रकार बीजमें अंकुरको अनित्यताको देखकर उसमें अंकुरोत्पादनकी शक्तिको कादाचित्क नहीं कह सकते, उसी प्रकार अहंप्रत्यय के अनित्य होनेसे उसे कादाचित्क नहीं कह सकते हैं (अर्थात भले हो उपयोग में अहं प्रत्यय कादाचित्क हो, पर लन्धरूप से वह नित्य रहता है)। (६) क्रिया होनेके कारण रूपादिकी उपलब्धिका कोई कर्ता होना चाहिए. जैसे कि लकड़ी काटनेरूप क्रियाका कोई न कोई कर्ता अवश्य देखा जाता है। जो इसका कर्ता है - वही आत्मा है यहाँ आदि इन्द्रियों में कर्तापना नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे तो ज्ञान के प्रति करण होनेसे परतन्त्र है. जैसे कि घेवनक्रियाके प्रति कुठारादि। इनका करणत्व भी असिद्ध नहीं है, क्योंकि पौगलिक होनेके कारण ये अचेतन हैं और परके द्वारा प्रेरित की जाती हैं। इसका भी कारण यह है कि प्रयोक्ता के व्यापारसे निरपेक्ष करणकी प्रवृत्ति नहीं होती । (१०) हितरूप साधनोका ग्रहण और अहितरूप साधनोंका त्याग प्रयत्नपूर्वक ही होता है, क्योंकि यह क्रिया है, जैसे कि रथकी क्रिया विशिष्ट क्रियाका आश्रय होने शरीर प्रयत्नवान्का आधार है जैसे रथ सारथीका आधार है। और जो इस शरीर की क्रियाका अधिष्ठाता है वह आत्मा है, जैसे कि रथकी क्रियाका अधिष्ठाता सारथी है। (११) जिस प्रकार बालक के हाथका पत्थरका गोला उसकी प्रेरणासे ही नियत स्थानपर पहुँच सकता है, उसी प्रकार नियत पदार्थों की ओर दौडनेवाला मन आमाकी प्रेरणा से ही पदार्थों की ओर जाता है। अतएव मनके प्रेरक आत्माको स्वतन्त्र द्रव्य स्वीकार करना चाहिए। (१२) 'आत्मा' शुद्धनिर्विकार पर्यायका वाचक है, इसलिए उसका अस्तित्व अवश्य होना चाहिए । जो शब्द बिना संकेतके शुद्ध पर्यायके वाचक होते हैं। उनका अस्तित्व अवश्य होता है, जैसे घट आदि । जिनका अस्तित्व नहीं होता उनके वाचक शब्द भी नहीं होते । (१३) सुख-दुख आदि किसी द्रव्यके आश्रित हैं. क्योंकि वे गुण हैं। जो गुण होते हैं वे द्रव्यके आधित रहते हैं, जैसे रूप जो इन गुणोंसे शुरू है नही आत्मा है । इत्यादि अनेक साधनों से अनुमान द्वारा आत्माकी सिद्धि होती है। 1 ५. जीव एक ब्रह्मका अंश नहीं है पं. का./ता.वृ./७१/१२३/२१ कश्चिदाह । यथै कोऽपि चन्द्रमा बहुषु जलघटेषु भिन्नभिन्नरूपो दृश्यते तमेोऽपि जीव शरीरेषु भिन्नभिन्नरूपेण दृश्यत इति परिहारमाह। महुषु जलघटेषु चन्द्रकिरणो पाधिवशेन जलपुद्गला एव चन्द्राकारेण परिणता न चाकाशस्थचन्द्रमा अत्र दृष्टान्तमाह यथा मुखोपाधनो नानादर्पमानो पुइगडा एवं नानामुखाकारेण परिणमन्ति न च देवदत नानारूपेण परिणमति यदि परिणमति तदा दर्पणस्थ प्रतिभिन्नं चैतन्यं प्राप्नोतिः न च तथा । तथैकचन्द्रमा अपि नानारूपेण न परिणमतीति । किं च । न चैकब्रह्मनामा कोऽपि दृश्यते प्रत्यक्षेण यश्चद्रवन्नानारूपेण भविष्यति इत्यभिप्रायः 14 प्रश्न- जिस प्रकार एक ही चन्द्रमा महुतसे जल में भिन्न-भिन्न रूपसे दिखाई देता है, जैसे एक भी जो बहुतसे शरीरों में भिन्न-भिन्न रूपसे दिखाई देता है। Jain Education International ३३६ २. निर्देश विषयक शंकाएं व मतार्थ आदि उत्तर-महुलसे जलने पहोंने तो वास्तव में चन्द्रकिरणों की उपाधिके निमित्तसे जलरूप पुद्गल ही चन्द्राकार रूपसे परिणत होता है, आकाशस्थ चन्द्रमा नहीं। जैसे कि देवदत्तके मुखका निमित्त पाकर नाना दर्पणोंके पुद्गल ही नाना मुखाकार रूपसे परिणमन कर जाते हैं न कि देवता मुख स्वयं नाना रूप हो जाता है । यदि ऐसा हुआ होता तो दर्पणस्थ मुखके प्रतिबिम्बों को चैराग्यपना प्राप्त हो जाता, परन्तु ऐसा नहीं होता है । इसीप्रकारएक चन्द्रमाका नानारूप परिणमन नहीं समझना चाहिए दूसरी बात यह भी तो है कि उपरोक्त दृष्टान्तो में तो चन्द्रमा व देवदत्त दोनो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, तब उनका प्रतिबिम्ब जल व दर्पण मे पडता है, परन्तु ब्रह्म नामका कोई व्यक्ति तो प्रत्यक्ष दिखाई ही नहीं देता, जो कि चन्द्रमाकी भाँति नानारूप होवे । ( प. प्र / टी / २ / ६६ ). ६. पूर्वोक्त लक्षणका मतार्थ पं.का./मू. ३७ तथा ता.वृ. में उसका उपोद्घात /७६/८ अथ जीवाभावो मुक्तिरिति सौगतमतं विशेषे निराकरोति "सरसदमध उत्त भलमभयं च सुग्मनिदर षं विष्णाणमण्यिा व कुजदि असदि सम्भावे |३७| " 1 सर्वज्ञ पं. का/ता, वृ./२०/६१/६ सामान्य चेतना व्याख्यान सर्वसाधारण ज्ञातव्यम्; अभिन्नज्ञानदर्शनोपयोगव्याख्यानं तु नैयायिकमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थ मीमायाख्यानं बीरागसपणीत वचनं प्रमाणं भवतीति "श्वनदिन दिनदहि पड़ दापासरुम्पक लिउ अगणि सविता जाशु" इति दोह सूत्रकनिष्टान्तं भयानकमाश्रिता शिष्यापेक्षया सिद्धार्थ शुद्धाशुद्धपरिणामक व्याख्यानं तु नित्यसांख्यमतानुयायिशिष्योधनार्थपव्याख्या कर्ता वर्म फलं न भुङ्क्त इति बौद्धमतानुसारिशिष्यप्रतिबोधनार्थ; स्वदेहप्रमाण व्याख्यानं मैकिमीमांसककपत मतानुसारिशिष्यसंदेहविनाशार्थ: अमूर्त स्वव्याख्यानं भट्टचार्या कमतानुसारिशिष्य संबोधनार्थः व्यभावकर्मसंयुक्तम्याख्यान व सदामुतनिराकरणार्थमिति मतार्थो ज्ञातव्य -१, जीवका अभाव ही मुक्ति है ऐसा माननेवाले सौगत (बौद्धमत का निराकरण करने के लिए कहते है कि यदि मोक्षमें जीवका सद्भाव न हो तो शाश्वत या नाशवंत, भव्य या अभव्य, शुन्य या अशुन्य तथा विज्ञान या अभिज्ञान घटित ही नहीं हो सकते |३७| अथवा कर्ता स्वयं अपने कर्म के फलको नहीं भोगता ऐसा माननेवाले बौद्धमतानुसारी शिष्य के जीमको भोक्ता कहा गया है। २. सामान्य चैतन्यका व्याख्यान सर्वमत साधारण के जानने के लिए २. अभिज्ञानदर्शनोपयोगका व्याख्यान नैयायिक मतानुसारी शिष्य के प्रतिमोधनार्थ है क्योंकि के ज्ञानदर्शनको जीवसे पृथक् मानते हैं ४, स्मदेह प्रमाणका व्याख्यान में यायिक, मीम में कपिल ( सारख्य) मतानुसारी शिष्यका सन्देह दूर करनेके लिए है, ( क्योंकि वे जीवको विभु या अणु प्रमाण मानते है ) । ५. शुद्ध व अशुद्ध परिणामोके कर्तापनेका व्याख्यान सांख्यमतानुयायी शिष्यके संबोधनार्थ है, क्योंकि वे जीव या पुरुषको नित्य अकर्ता या अपरिशामी मानते है) 4. द्रव्य व भावकर्मोंसे संयुक्तपनेका व्याख्णन सदाशिव वादियोंका निराकरण करनेके लिए है, (क्योंकि वे जीवको सर्वथा शुद्ध व मुक्त मानते है) । ७. मोक्षोपदेशक, मोक्षसाधक, प्रभु, तथा वीतराग सर्वज्ञके वचन प्रमाण होते है, ऐसा व्याख्यान; अथवा रत्न, दीप, सूर्य, दही, दूध, घी, पाषाण, सोना, चाँदी, स्फटिकमणि और अग्नि जीवके नो दृष्टान्त चान् माथि शिष्यकी अपेक्षा सर्वज्ञकी सिद्धि करनेके लिए किये गये हैं । अथवा - अमूर्तलका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only 1 www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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