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________________ जीव १. भेद, लक्षण व निर्देश ४. शून्य कहनेकी विवक्षा प.प्र./मू./१/१५ अठ्ठ वि कम्मइँ बहुविह िणवण,व दोस ण जेण । सुद्धह एक्कु वि अस्थि णवि सुण्णु वि बुच्चइ तेण । -जिस कारण आठो ही अनेक भेदोंवाले कर्म तथा अठारह दोष, इनमें से एक भी शुद्धात्माओंके नहीं है, इसलिए उन्हे शून्य भी कहा जाता है। दे० शुक्लध्यान/१/४ [ शुक्लध्यानके उत्कृष्ट स्थानको प्राप्त करके योगी शून्य हो जाता है, क्योंकि, रागादिसे रहित स्वभाव स्थित ज्ञान ही शून्य कहा गया है। वह वास्तव में रत्नत्रयकी एकता स्वरूप तथा बाह्य पदार्थोंके अवलम्बनसे रहित होनेके कारण ही शून्य कहलाता है।) त.अनु./१७२-१७३ तदा च परमैकाग्रयाइबहिरर्थेषु सत्स्वपि। अन्यत्र किचनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ॥१७२। अतएवान्यशून्योऽपि नारमा शून्यः स्वरूपतः । शून्याशून्यस्वभावोऽयमात्मनैवोपलभ्यते ।१७३। उस समाधिकालमे स्वात्मामें देखनेवाले योगीकी परम एकाग्रयताके कारण बाह्यपदार्थों के विद्यमान होते हुए भी उसे आत्माके अतिरिक्त और कुछ भी प्रतिभासित नहीं होता ।१७२। इसीलिए अन्य बाह्यपदार्थोसे शून्य होता हुआ भी आत्मा स्वरूपसे अन्य नहीं होता। आत्माका यह शून्यता और अशुन्यतामय स्वभाव आत्माके द्वारा ही उपलब्ध होता है। द्र.सं./टी./१०/२७/३ रागादिविभावपरिणामापेक्षया शून्योऽपि भवति न चानन्तज्ञानाद्यपेक्षया बौद्धमतवत् । -आत्मा राग, द्वेष आदि विभाव परिणामोकी अपेक्षासे शून्य होता है, किन्तु बौद्धमतके समान अनन्त ज्ञानादिकी अपेक्षा अन्य नहीं है। कुडो क्षेत्रं स्वरूपं जानातीति क्षेत्रज्ञः।अठ्ठ-कम्मभंतरो त्तिअंतरप्पा। सत्य, असत्य और योग्य, अयोग्य वचन बोलनेसे वक्ता है; दश प्राण पाये जानेसे प्राणी है; चार गतिरूप संसारमें पुण्यपापके फलको भोगनेसे भोक्ता है; नाना प्रकारके शरीरों द्वारा छह संस्थानोंको पूरण करने व गलानेसे पुद्गल है; सुख और दुःखका वेदन करनेसे वेद है; अथवा जाननेके कारण वेद है; प्राप्त हुए शरीरको व्याप्त करनेसे विष्णु है, स्वतः ही उत्पन्न होनेसे स्वयंभू है; संसारावस्थामें शरीरसहित होनेसे शरीरी है; मनु ज्ञानको कहते हैं, उसमें उत्पन्न होनेसे मानव है; स्वजन सम्बन्धी मित्र आदि वर्गमे आसक्त रहनेसे सक्ता है; चतुर्गतिरूप संसारमें जन्म लेनेसे जन्तु है।मान कषाय पायी जानेसे मानी है; माया कषाय पायी जानेसे मायी है; तीन योग पाये जानेसे योगी है। अतिसूक्ष्म देह मिलनेसे संकुचित होता है, इसलिए संकुट है; सम्पूर्ण लोकाकाशको व्याप्त करता है, इसलिए असकुट है; लोकालोकरूप क्षेत्रको अथवा अपने स्वरूपको जाननेसे क्षेत्रज्ञ है; आठ कर्मों में रहनेसे अन्तरात्मा है (गो.जी./जी/३६५-३६६/७७६/२)। दे० चेतना/३ (जीवको कर्ता व अकर्ता कहने सम्बन्धी-) १. जीवके भेद प्रभेद १. संसारी व मुक्त दो भेद त.सू /२।१० संसारिणो मुक्ताश्च ।१०। - जीव दो प्रकारके हैं संसारी और मुक्त । (पं.का./मू./१०६), (मू.आ/२०४), (न.च. वृ/१०५)। २. संसारी जीवोंके अनेक प्रकारसे भेद त.सू /२/११-१४,७ जीवभव्याभव्यत्वानि च ७ समनस्कामनस्काः ॥११॥ ससारिणस्त्रसस्थावरा ।१२। पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः ।१३। द्वीन्द्रियादयस्त्रसा, ।१४। जीव दो प्रकारके है भव्य और अभव्य १७ (प.का./मू./१२०) मनसहित अर्थात् संज्ञी और मनरहित अर्थात असंज्ञीके भेदसे भी दो प्रकारके है ।११। (द्र.सं/मू./१२/२९) संसारी जीव त्रस और स्थावरके भेदसे दो प्रकारके हैं (न.च./q./१२३) तिनमें स्थावर पाँच प्रकारके हैं-पृथिवी, अप, तेज, वायु, व वनस्पति ॥१३॥ (और भी देखो 'स्थावर') त्रस जीव चार प्रकार है-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व पंचेन्द्रिय ।१४। (और भी दे० इन्द्रिय/४)। रा. वा /५/१५/५/४५८/६ द्विविधा जीवा' बादराः सूक्ष्माश्च । -जीव दो प्रकारके है-बादर और सूक्ष्म-(दे० सूक्ष्म )। दे. आत्मा-बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्माकी अपेक्षा ३ प्रकार हैं। दे. काय/२/१ पाँच स्थावर व एक त्रस, ऐसे कायकी अपेक्षा ६ भेद हैं। दे. गति /२/३ नारक, तिर्यच, मनुष्य व देवगति की अपेक्षा चार प्रकार ४. प्राणी, जन्तु आदि कहनेकी विवक्षा म.पु./२४/१०५-१०८ प्राणा दशास्य सन्तीति प्राणी जन्तुश्च जन्मभाक् । क्षेत्र स्वरूपमस्य स्यात्तज्ज्ञानात स तथोच्यते ॥१०॥ पुरुष' पुरुभोगेषु शयनात परिभाषितः । पुनात्यात्मानमिति च पुमानिति निगद्यते ११०६। भवेष्वतति सातत्याइ एतीत्वात्मा निरुच्यते । सोऽन्तरात्माप्टकर्मान्तर्वतित्वादभिलप्यते ।१०७ ज्ञ. स्याज्ज्ञानगुणोपेतो ज्ञानी च तत एव स. । पर्यायशब्दै रेभिस्तु निर्णेयोऽन्यैश्च तद्विधैः। =दश प्राण विद्यमान रहनेसे यह जीव प्राणी कहलाता है, बार-बार जन्म धारण करनेसे जन्तु कहलाता है। इसके स्वरूपको क्षेत्र कहते हैं, उस क्षेत्रको जाननेसे यह क्षेत्रज्ञ कहलाता है ।१०। पुरु अर्थात् अच्छे-अच्छे भौगोमे शयन करनेसे अर्थात् प्रवृत्ति करनेसे यह पुरुष कहा जाता है, और अपने आत्माको पवित्र करनेसे पुमान कहा जाता है ।१०६। नर नारकादि पर्यायोमे 'अतति' अर्थात् निरन्तर गमन करते रहनेसे आत्मा कहा जाता है। और ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंके अन्तर्वर्ती होनेसे अन्तरात्मा कहा जाता है ।१०७। ज्ञान गुण सहित होनेसे 'ज्ञ' और ज्ञानी कहा जाता है। इसी प्रकार यह जीव अन्य भी अनेक शाब्दोंसे जानने योग्य है ।१०८। ५. कर्ता भोक्ता आदि कहनेकी विवक्षा ध.१/१.१.२/११६/३ सच्चमसच्चं संतमसतं वददीदि बत्ता । पाणा एयस्स सतीति पाणी। अमर-णर-तिरिस-णारय-भेएण चउविहे संसारे कुसलमकुसलं भुजदि त्ति भोत्ता। छबिह-संठाणं बहुविह-देहेहि पूरदि गलदि त्ति पोग्गलो। सुख-दुक्खं वेदेदि त्ति वेदो, वेत्ति जानातीति वा वेद । उपात्तदेहं व्याप्नोतीति विष्णुः । स्वयमेव भूतवानिति स्वयंभू । सरीरमेयस्स अस्थि त्ति सरीरी। मनुः ज्ञान तत्र भव इति मानव. । सजण-संबंध-मित्त-वग्गादिसु संजदि त्ति सत्ता। चउग्गइ-संसारे जायदि जणयदि त्ति जंतू। माणो एयस्स अस्थि त्ति माणी । माया अस्थि त्ति मायी। जोगो अस्थि त्ति जोगी। अइसण्हदेह-पमाणेण संकुडदि त्ति संकुडो। सव्वं लोगागासं वियापदि त्ति असं गो. जी./मू. ६२२/१०७५ पुण्यजीव व पापजीवका निर्देश है। (दे० आगे पुण्य व पाप जीवका लक्षण )। ष. रवं./१२/४/२.६/सू. ३/२६६ सिया णोजीवस्स वा/३/- 'कथंचित् वह नोजोवके होती है इस सूत्रमें नोजीवका निर्देश किया गया है। दे० पर्याप्त-जीवके पर्याप्त, निवृत्त्यपर्याप्त व लब्ध्यपर्याप्त रूप तीन भेद है। दे. जीवसमास-एकेन्द्रिय आदि तथा पृथिवी अप् आदि तथा सूक्ष्म बादर, तथा उनके ही पर्याप्तापर्याप्त आदि विकल्पोंसे अनेकों भंग बन जाते हैं। ध.१/४,१,४५/गा. ७६-७७/१८ एको चेव महप्पा सो दुवियप्पो त्ति लवरवणो भणिदो। चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य ७६। छक्कापक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो । अट्ठासवो णवट्ठो जीवो दस जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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