SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चैत्य चैत्यालय हैं। चन्द्रादिकोंके विमानोंका प्रमाण (३० योतिष १२४वासी समस्त इन्द्र भवनोंमे जिनमन्दिर है ( ८1४०५-४११) (त्रि. सा. / ५०२५०३) कल्पवासी इन्द्रों व देवो आदिका प्रमाण व अवस्थान - ३० स्वर्ग । ea द्रह २. मध्य लोक चैत्यालयोंका अवस्थान व प्रमाण सि.प /४/२३६२-२२१३ कुंडल उसरियासुरणयरी सेतोरणद्वारा। बिज्जाहर से ही गरजणारीओ | २३१२ दह चार विदेहगानादिमतीला जैसिथ मेत्ता जंयुक्वायरोशिया जिलानिकेदा | २११३॥ कुण्ड, बन समूह, नदियों, देव नगरियाँ, पर्वत, तोरणद्वार विद्याधर बेशियोंके नगर आर्यखण्डकी नगरियों, वह पंचक, पूर्वापर विवेक ग्रामादि, शामली और जम्बू जिसने है उतने ही जिनभवन भी है । २३६२-२२१३॥ विशेषार्थ जम्बूद्वीप कुण्ड - ६०; नदी - १७६२०६० देव नगरियाँ - असंख्यातः पर्वत३११, विद्याधर श्रेणियोके नगर - ३७४०; आर्यखण्डकी प्रधान नगरियाँ - ३४; द्रह = २६ पूर्वापर विदेहोके ग्रामादि = संख्यात; शाल्मली व जम्बू वृक्ष- २ कुल प्रमाण १७६६२६३ + संख्यात + असंख्यात । धातकी व पुष्करार्ध द्वीपके सर्व मिलकर उपरोक्त से पंचगुणे अर्थात् ८६८१४६५ + संख्यात + असंख्यात । नन्दीश्वर द्वीपमें ५२, रुचकवर द्वीपमें ४ और कुण्डलवर द्वीपमे ४ । इस प्रकार कुल ८१८१७२५ + संख्यात + असंख्यात चैत्यालय हैं। विशेष - दे० लोक / १. ४। सुमेरु के १६यायलो २/६.४। त्रि.सा./२६१-६२ नमह गरतोयजिणवर चचारि साणि दविहीणाणि । गावरणं चच मंदीर रुपये ॥३१९॥ मंदरकुनखारि मसु तररुप्यजंबुसामलिखु सीदी तीसं तु सयं चउ चउ सत्तरिसयं दुपणं ॥५६॥ मनुष्य लोकविषे जिनमन्दिर है- नन्दीश्वर द्वोपमे ५२ ; कुण्डलगिरिपर ४ रुचकगिरिपर ४; पाँचों मेरुपर ८०; तीस वालों पर १० मीस गजदन्तोंपर २० अस्सी क्षारोंपर ८० चार कृष्णकारोंपर ४ मानुषोसरपर ४ एक सौ सत्तर विजयाधपर १०० जम्बू पर और शामती वृक्षपर कुल मिलाकर २१८ होते हैं । ३. अकृत्रिम चैत्यालयोंके व्यासादिका निर्देश दा त्रि. सा./१७८-१०२ आयमदर्श मासं उभयदत्तं जिगपराणमुख दयास आणदाराणि तस्सद्ध । वरमज्झिम अवराणं दलवा भइसालणं दणगा। पं दीसरगनिमाणजालया हाँसि जेट्ठा हु |२०१ सोमणरुषगड लक्खारिगारमाणुमुत्तुरगा कुलगिरिजा निय मज्झिम जिणालया पांडुगा अवरा । ६८० जोयणसयआयाम दलगाढं सोलसं तु दारुदयं । जेट्ठाणं गिहपासे आणिद्दाराणि दो दो दु १६८१| वेयड्ढजंबुसान लिजिणभवणाणं तु कोस आयामं । सेसाणं सगजोग्गं आयाम होदिजिदि ८२ ति. प./४/१७१० उच्छेहप्पहूदीसु' संपहि अम्हाण णत्थि उवदेसो । १. सामान्य निर्देश उत्कृष्टादि चेष्यालयों का जो आयाम, ताका आधा तिनिका व्यास है और दोनों ( आयाम व व्यास) को मिलाय ताका आधा उनका उच्चत्व है । ७८ उत्कृष्ट मध्यम व जघन्य चैत्यालय निका व्यासादिक क्रम तै आधा आधा जानहु ६७६ उत्कृष्ट जिनालयनिका आयाम १०० योजन प्रमाण है, आध योजन अवगाध कहिये पृथिवी माही नॉन है ६ योजन उनके द्वारोंका उच्च अकृत्रिम चौकी विस्तारकी अपेक्षा तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है -- उत्कृष्ट, मध्य व जघन्य । उनकी लम्बाई चौडाई व ऊँचाई क्रम से निम्न प्रकार बतायी गयी है - Jain Education International = - ३०४ = उत्कृष्ट १०० योजनx० योजन४०१ योजन। मध्यम = ५० योजन×२५ योजन× ३७३ योजन । जघन्य - २५ योजन× १२३ योजन १८३ योजन । चैत्यालयोंके द्वारोंकी ऊँचाई व चौडाई उत्कृष्ट १६ योजन४८ योजन मध्यमः = योजनx४ योजन जघन्य = ४ योजन×२ योजन वैश्यालयोंकी नव- उत्कृष्ट x २ कोश, मध्यम = १ कोश; जघन्य - 2 1 चौतीस अतिशय व्रत २. देवोंके चैत्यालयों का विस्तार वैमानिक देवों के विमानोने तथा द्वीपो में स्थित उसके आवासों आदि प्राप्त जिनालय उत्कृष्ट विस्तारवाले हैं ७६ २. जम्मूदीपके चैत्यालयों का विस्तार = नन्दनवनस्थ भद्रशालवन के चैत्यालय - उत्कृष्ट सौमनस बनका चैय्यासम कुलाचल व वक्षार गिरि = मध्यम - मध्यम = पाण्डुक बन • जघन्य निजयार्ध पर्वत तथा जम्मू व शाल्मली वृक्षके चैत्यालयका विस्तार -१ कोश ई कोश को (../६/२४-३५१) (पा.१/ ५/५,६४, ६५ ); (ज. प / ५/६ ) ( त्रि. सा / ९७६-६८१) । गजदन्त व यमक पर्वतके चैत्यालय - जघन्य ( ति प /४/२०४१-२००७) ( सि. १/४/२९१०)-उत्कृष्ट दिग्गजेा पर स्थित ४. धातकी खण्ड व पुष्करार्थं द्वीपके चैत्यालय इष्वाकार पर्वत चैखालय (जि. सा. १८०) मध्यम शेष सर्व चैत्यालय = जम्बूद्वीपमें कथित उस उस चैत्यालयसे दूना विस्तार (ह. पू./५/२००-३११) । मानुषोत्तर पर्वतश्यालय (त्रि सा / १०० ) - मध्यम । ५. नन्दीश्वर द्वीपके चैत्यालयों का विस्तार जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश अञ्जनगिरि, रतिकर व दधिमुख तीनो के चैत्यालय = उत्कृष्ट (ह. पृ./५/६७७); ( ति सा / ६७६ ) । ६. कुण्डलवर पर्यंत व रुचकर पर्वत के चैत्यालय उत्कृष्ट (जि.सा./१००) (ह. पू./५/६६६,७२८)। चैत्यप्रासाद भूमि समवशरणकी प्रथम भूमि चैत्य वृक्ष दे० वृक्ष | चोर कथा - दे० कथा । For Private & Personal Use Only चोरी — दे० अस्तेय | चोल- मध्य आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य ४ . कर्णाटकका दक्षिणपूर्व भाग अर्थात् मद्रास नगर, उसके उत्तरके कुछ प्रदेश और मैसूर स्टेटका बहुत कुछ भाग पहिले चोल देश कहलाता था(म. प्र. ध. / ५० / पं० पन्नालाल ) । ३. राजा कुलोत्तुंगका अपरनाम - दे० कुलोत्तुंग | चौंतीस अतिशय*१. भगवान् के चौतीस अतिशय - दे० अहंत / ६ चौंतीस अतिशय व्रत -- निम्न प्रकार ६५ उपवास कुल २ वर्ष मास १५ दिनमें पूरे होते हैं। (१) जन्म १० अतिशयोके लिए १० दामियों (२) ज्ञान के १० अतिशयों के लिए १० दशमिय = www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy