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________________ चारित्र प्र. सा./ता.वृ./६/८/१ सरागचारित्रात • मुख्यवृत्त्या विशिष्टपुण्यबन्धो भवति, परम्परया निर्माणं चेति । सराग चारित्रसे मुख्य वृत्तिसे विशिष्ट पुण्यका बन्ध होता है और परम्परासे निर्वाण भी । देखो धर्म ७/१२ परम्परा कारण कहनेका प्रयोजन । ३. दीक्षा धारण करते समय पंचाचार अवश्य धारण किया जाता है प्र. सा./मू./ २०२ आपिच्छ बंधुवरगं विमोचिदो गुरुकलत्त पुत्ते हि । आसिज्ज णाणदंसणचारित्ततववीरियायारं ॥ २०२॥ = ( श्रामण्यार्थी ) बन्धुवर्ग से विदा माँगकर महोसे तथा स्त्रीसे और पुत्रसे मुक्त होता हुआ ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार तपाचार और वीर्याचारको अंगीकार करके... ४. व्यवहारपूर्वक ही निश्चय चारित्र की उत्पत्तिका क्रम है 1 स.श./मू./६७ अमतानि परित्यज्य वतेषु परिनिष्ठितः त्यजेतान्यपि संप्राप्य परमं पदमात्मन ॥८४॥ अत्रती व्रतमादाय व्रती ज्ञानपरायण । परात्मज्ञानसंपन्न. स्वयमेव परो भवेत । - हिसादि पाँच adit छोडकर अहिंसादि पाँच व्रतों में निष्ठ हो, पीछे आत्माके राग-द्वेषादि रहित परम वीतराग पदको प्राप्त करके उन बतोको भी छोड़ देवे ॥८४॥ अतोंमें अनुरक्त मनुष्यको ग्रहण करके अवतावस्थामें होनेवाले विकल्पोंका नाश करे और फिर अरहन्त अवस्थामें केवलज्ञान से युक्त होकर स्वयं ही बिना किसीके उपदेशके सिद्धपदको प्राप्त करे |६| ५. तीर्थकरों व भरत चकीने भी चारित्र धारण किया था मो. पा./मू./६० धुवसिद्धी तित्थयरो चरणाणजुदो करेइ-तवयरणं । णाऊण धुवं उज्जा तवयरणं णाणजुत्तो वि । ६०|- देखो -- जिसको नियमसे मोक्ष होती है और चार ज्ञान कर युक्त है, ऐसा तीर्थंकर भी तपश्चरण करे है। ऐसा निश्चय करके ज्ञान युक्त होते हुए भी तप करना योग्य है । द्र.सं./टो / ५७/२३१ योऽपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गतो भरतचक्री सोऽपि जिनदीक्षां गृहोत्वा विषयकषायनिवृत्तिरूपं क्षणमात्रं व्रतपरिणाम कृत्वा पश्चाद्रोपयोगत्वरूप रत्नत्रयात्मके निश्चयव्रताभिधाने वीतरामसामायिक निर्विकल्पसमाधी स्थिरमा लहान लग्धनानिति पर किन्तु तस्य स्तोकसत्वान्तोका परिणाम म जानन्तीति । जो दीक्षाके पश्चात् दो घड़ी कालमें भरतचक्रीने मोक्ष प्राप्त की है, उन्होंने भी जिन दीक्षा ग्रहण करके, थोड़े समय तक विषय और क्योंकी निवृत्तिरूप जो उसका परिणाम है उसकी करके तदनन्तर शुद्धोपयोगरूप, रत्नत्रय स्वरूप निश्चय व्रत नामक वीतराग सामायिक नाम धारक निर्विकल्प ध्यानमें स्थित होकर हुए हैं किन्तु भरतके जो थोडे समय मत परि णाम रहा, इस कारण लकि उनके व्रत परिणामको जानते नहीं है । (प प्र./टी./२/५२/९०४/२) ६. व्यवहार चारित्रमै गुणश्रेणी निर्जरा क.पा.१/१-१/६३/६/१ सरागसंजमो गुणसेढिणिज्जराए कारणं तेण बंधादो मोक्खो असोति सरागयंजने सुनी वहणं उत्तमिति पचा काय अरहंतणमोरो सपहियधादो अज्जगुणकम्मयकारी सि तत्य नि गुणी गादो यदि कहा जाये कि सराग सयम गुणश्रेणी निर्जराका कारण है, क्योंकि, २९१ Jain Education International ६ व्यवहार चारित्रको कथंचित् प्रधानता उससे बन्धकी अपेक्षा मोक्ष अर्थात कर्मोंकी निर्जरा असंख्यात गुणी होती है, अत अहंत नमस्कारकी अपेक्षा सराग संयममें ही मुनियों की प्रवृत्तिका होना योग्य है, सो ऐसा भी निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि अर्हन्त नमस्कार तत्कालीन बन्धकी अपेक्षा असंख्यात गुणी कर्म निर्जराका कारण है, इसलिए सराग संयमके समान उसमें भी मुनियोंकी प्रवृत्ति प्राप्त होती है। ७. व्यवहार चारित्रकी इष्टता मो.पा./२१ मवेहि सम्भो मा दुक्स होउ जिरह इयरेहि छायातट्ठियाणं पडिवालं ताण गुरुभेयं ॥२५॥ - व्रत और तपसे स्वर्ग होता है और अवत व अपसे नरकादि गतिमें दुख होते हैं । इसलिए व्रत श्रेष्ठ है और अवत श्रेष्ठ नहीं है। जैसे कि छाया व आतप में खडे होनेवाले प्रतिपालक कारणोंमें महा भेद है (इ.ज./३) प्र.सा./त.प्र./२०२ अहो मोक्षमार्गप्रवृत्तिकारण चारित्रचार न शुद्धस्वात्मनस्त्वमसीति निश्चयेन जानामि तथापि त्वां तावदासीदामि यायावादात्मानमुपलभे । अहो ! मोक्षमार्गमे प्रवृत्तिके कारणभूत (महावत समिति गुरू १३) पारिवाचार में यह निश्चयसे जानता हूँ कि तू शुद्धात्माका नहीं, तथापि तुझे तभी तक अंगीकार करता जब तक कि तेरे प्रसाद से शुद्धात्माको उपलब्ध लू। सा./२/७७ यावन्न सेव्या विषयास्तावत्तानप्रवृत्तित । व्रतयेत्सव्रतो तोमुत्राचेन्द्रिय सम्बन्धी स्त्री आदिक विषय जब तक या जबसे सेवनमें आना शक्य न हो तब तक या तबसे उन विषयोंको फिरसे उन विषयों में प्रवृत्ति न होनेके समय तक छोड देना चाहिए। क्योंकि व्रत सहित मरा हुआ व्यक्ति परलोकमें सुखी होता है। प.प./टी./२/५२/१०४/१ कश्चिदाह मतेन किं प्रयोजनमारमभावनया मोक्षो भविष्यति । भरतेश्वरेण कि व्रतं कृतम् । घटिकाद्वयेन मोक्षं गत इति । अथ परिहारमाह ।··· अथेदं मतं वयमपि तथा कुर्मोऽवसानकाले । नैवं वक्तव्यम् । यद्य कस्यान्धस्य कथं चिन्निधानलाभो जाहि कि सर्वे भवतीति भावार्थः प्रश्न तसे क्या प्रयोजन भावना मात्रसे मोक्ष हो जायेगी। क्या भरतेश्वरने व्रत धारण किये थे । उसे दो घडीमे बिना व्रतोके ही मोक्ष हो गयी उत्तर- भरतेश्वर ने भी व्रत अवश्य धारण किये थे पर स्तोक काल होनेसे उसका पता न चला (दे० चारित्र ६/५) प्रश्न - तब तो हम भी मरण समय थोडे कालके लिए व्रत धारण कर लेंगे। उत्तर- यदि किसी अन्धेको किसी प्रकार निधिका लाभ हो जाय तो क्या सबको हो जायेगा । ८. मिध्यादृष्टियोंका चारित्र भी कथंचित् चारित्र है रा.वा /७/२१/२५/५४६/३३ एव च कृत्वा अभव्यस्यापि निर्ग्रन्थलिड्गधारिणः एकादशाङ्गाध्यायिनो महानतपरिपालनादेश यस यताभावस्यापि परिवेयक विमानयासितोपपन्ना भवति इसलिए निय गिधारी और एकादशनिपाठी अभव्यकी भी बाह्य महामत पालन करनेसे देशसंयत भाव और संयतभावका अभाव होनेपर भी उपरिम ग्रैवेयक तक उत्पत्ति बन जाती है। = ध. ६/१.६-१,१३३/४६५/८ उबरि किण्ण गच्छति । ण तिरिक्खसम्माइट्ठीसु सजमाभावा । सजमेण विणा ण च उवरि गमणमत्थि । ण मिच्याइडीहि सत्पज्जतेहि विचारो सेसि पि भावसजमेण बिया मस्स संभवा प्रश्न संख्यात वर्षायुष्क असंयत सम्यग्दृष्टि मरकर आरण अच्युत कल्पसे ऊपर क्यों नही जाते ? उत्तर- नहीं, क्योकि तिर्यच सम्यग्दृष्टि जीवोमें असयमका अभाव पाया जाता है, और संयम के बिना आरण अच्युत कल्पसे ऊपर गमन जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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