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________________ चारित्र २८६ ३. चारित्रमें सम्यक्त्वका स्थान स.सा./आ./७२ यत्त्वात्मासवयोर्भेदज्ञानमपि नासवेभ्या निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति । -यदि आत्मा और आसवोका भेदज्ञान होनेपर भी आस्रवोसे निवृत्त न हो तो वह ज्ञान ही नहीं है। प्र.सा./ता.वृ./२३७ अयं जीवः श्रद्धानज्ञानसहितोऽपि पौरुषस्थानीय चारित्रमलेन रागादिविकल्परूपादसंयमाद्यपि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा किं कुर्याग्न किमपि। यह जीव श्रद्धान या ज्ञान सहित होता हुआ भी यदि चारित्ररूप पुरुषार्थ के बलसे रागादि विकल्परूप असयमसे निवृत्त नहीं होता तो उसका वह श्रद्धान ब ज्ञान उसका क्या हित कर सकता है । कुछ भी नहीं। मो पा./पं. जयचन्द/८ जो ऐसे श्रद्धान करै, जो हमारे सम्यक्त्व तो है ही, बाह्य मूलगुण बिगड़े तो बिगड़ी, हम मोक्षमार्गी ही हैं, तो ऐसे श्रद्धान तै तौ जिनाज्ञा होनेते सम्यक्त्वका भंग होय है। तब मोक्ष कैसे होय। शी.पा./पं. जयचन्द/६८ सम्यक्त्व होय तब विषयनित विरक्त होय ही होय । जो विरक्त न होय तो संसार मोक्षका स्वरूप कहा जानना। ५. चारित्रधारणा ही सम्यग्ज्ञानका फल है ध.१/१,१,११५/३५३/८ किं तद्ज्ञानकार्यमिति चेत्तत्त्वार्थे रुचिः प्रत्ययः श्रद्धा चारित्रस्पर्शनं च।-प्रश्न-ज्ञानका कार्य क्या है ? उत्तर-- तत्त्वार्थ में रुचि, निश्चय, श्रद्धा और चारित्रका धारण करना कार्य है। द्र सं./टी./३६/१५३/५ यस्तु रागादिभेदविज्ञाने जाते सति रागादिक त्यजति तस्य भेद विज्ञानफलमस्ति । -जो रागादिकका भेद विज्ञान हो जानेपर रागादिकका त्याग करता है, उसे भेद विज्ञानका फल है। ३.चारित्रमें सम्यक्त्वका स्थान प्र. सा./त. प्र./६ संपद्यते हि दर्शनज्ञानप्रधानाच्चारित्राद्वीतरागान्मोक्षः। तत एव च सरागाददेवासुरमनुजराजविभवक्लेशरूपो बन्ध-दर्शन ज्ञान प्रधान चारित्रसे यदि वह वीतराग हो तो मोक्ष प्राप्त होता है, और उससे ही यदि वह सराग हो तो देवेन्द्र, असुरेन्द्र, व नरेन्द्रके वैभव क्लेशरूप बन्धकी प्राप्ति होती है, (यो. सा. अ/६/१२) प, ध/उ./७५६ चारित्र निर्जरा हेतुायादप्यस्त्यबाधितम् । सर्वस्वार्थक्रियामहर , सार्थनामास्ति दीपवत् ॥७५६॥ वह चारित्र (पूर्व श्लोकमें कथित शुद्धोपयोग रूप चारित्र) निर्जराका कारण है, यह बात न्यायसे भो अबाधित है। वह चारित्र अन्वर्थ क्रियामें समर्थ होता हुआ दीपककी तरह अन्वर्थ नामधारी है। ३. चारित्राराधनामें अन्य सर्व आराधनाएँ गर्मित हैं भ. आ./मू./८/४१ अहवा चारित्राराहणाए आहारियं सव्वं । आराहणाए सेसस्स चारित्राराहणा भज्जा = चारित्रकी आराधना करनेसे दर्शन, ज्ञान व तप, यह तीनों आराधनाएं भी हो जाती हैं। परन्तु दर्शनादिकी आराधनासे चारित्रकी आराधना हो या न भी हो। १. चारित्रसहित ही सम्यक्त्व, ज्ञान व तप सार्थक है शी.पा./मू./५ णाणं चरित्तहोणं लिगगहणं च दसणबिहणं । संजमहीणो य तबो तइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥५॥-चारित्ररहित ज्ञान और सम्यक्त्वरहित लिग तथा संयमहीन तप ऐसे सर्वका आचरण निरर्थक है । (मो. पा./मू /५७,५६,६७) (मू. आ./६५०) (अ. आ./मू./ ७७०/६२8): (आराधनासार/५४/१२६)। मू.आ./८६७ थोवम्मि सिक्रिवदे जिणइ बहुसुदं जो चारित्त । संपुण्णो जो पुण चरित्तहीणो किं तस्स सुदेण बहुएण ८६७।-जो मुनि चारित्रसे पूर्ण है, वह थोडा भी पढ़ा हुआ हो तो भी दशपूर्व के पाठीको जीत लेता है । (अर्थात वह तो मुक्ति प्राप्त कर लेता है, और संयमहीन दशपूर्वका पाठो संसारमें ही भटकता है ) क्योंकि जो चारित्ररहित है, वह बहुतसे शास्त्रोंका जाननेवाला हो जाये तो भी उसके बहुत शास्त्र पढ़े होनेसे क्या लाभ (मू.आ./८६४) । भ.आ./मू./१२/५६ चक्खुस्स दंसणस्स य सारो सम्पादिदोसपरिहरणं । चक्खू होइ णिरत्यं दठ ठूण बिले पडतस्स ॥२२॥ भ.आ./वि./१२/५६/१७ ननु ज्ञानमिष्टानिष्टमार्गोपदर्शि तद्य क्तं ज्ञानस्यो पकारित्वमभिधातुं इति चेन्न ज्ञानमात्रेणेष्टार्थीसिद्धिः यतो ज्ञानं प्रवृत्तिहीनं असत्समं। = नेत्र और उससे होनेवाला जो ज्ञान उसका फल सर्पदंश, कंटकव्यथा इत्यादि दु.खों का परिहार करना है । परन्तु जो बिल आदिक देखकर भी उसमें गिरता है, उसका नेत्र ज्ञान वृथा है ।२। प्रश्न-ज्ञान इश्ट अनिष्ट मार्गको दिखाता है, इसलिए उसको उपकारपना युक्त है (परन्तु क्रिया आदिका उपकारक कहना उपयुक्त नहीं)। उत्तर-यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि ज्ञान मात्रसे इष्ट सिद्धि नहीं होती, कारण कि प्रवृत्ति रहित ज्ञान नहीं हुएके समान है। जैसे नेत्रके होते हुए भी यदि कोई कुएँ में गिरता है, तो उसके नेत्र व्यर्थ हैं। स.श./८१ शृण्वन्नप्यन्यतः कामं वदन्नपि कलेवरात् । नात्मानं भावयेद्भिन्नं यावत्तावन्न मोक्षभाक् १८१। आत्माका स्वरूप उपाध्याय आदिके मुखसे खूब इच्छानुसार सुननेपर भी, तथा अपने मुखसे दूसरोंको बतलाते हुए भी जबतक आत्मस्वरूपकी शरीरादि परपदार्थोसे भिन्न भावना नहीं की जाती, तबतक यह जीव मोक्षका अधिकारी नहीं हो सकता।। प.प्र./मू./२/८१ बुज्झइ सत्थई तउ चरइ पर परमत्थु ण वेइ । ताव ण मुंचइ जाम णवि इहु परमत्थु मुणेइ ।२। शास्त्रोंको खूब जानता हो और तपस्या करता हो, लेकिन परमात्माको जो नहीं जानता या उसका अनुभव नहीं करता, तबतक वह नहीं छूटता। १. सम्यक् चारित्रमें सम्यक् पदका महत्त्व स.सि./१/१/१VE अज्ञानपूर्वकाचरणनिवृत्त्यर्थं सम्यग्विशेषणम् । - अज्ञान पूर्वक आचरणके निराकरणके अर्थ सम्यक विशेषण दिया गया है। २. चारित्र सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही होता है स.सा./मू./१८,३४ एवं हि जीवराया णादव्यो तह य सद्दहदम्यो। अणु चरिदब्यो य पुणो सो चेव दु मोक्वकामेण ।१८। सव्वे भावे जम्हा पच्चक्रवाई परे त्ति णादूर्ण । तम्हा पचक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्या ।३४-मोक्षके इच्छुकको पहले जीवराजाको जानना चाहिए, फिर उसी प्रकार उसका श्रद्धान करना चाहिए, और तत्पश्चात उसका आचरण करना चाहिए।१८। अपने अतिरिक्त सर्व पदार्थ पर है, ऐसा जानकर प्रत्याख्यान करता है, अतः प्रत्याख्यान ज्ञान ही है (पं.का./ मू./१०४)। स.सि./१/१/७/३ चारित्रात्पूर्व ज्ञान प्रयुक्त, तत्पूर्वकत्वाच्चारित्रत्य । -सूत्रमे चारित्रके पहले ज्ञानका प्रयोग किया है, क्योकि चारित्र ज्ञानपूर्वक होता है । (रावा./१/१/१२/६/३२), (पु.सि.उ./३८) । ध १३/१.५,५०/२८८/६ चारित्राच्छ्र तं प्रधानमिति अग्रथम् । कथं तत् श्रुतस्य प्रधानता। श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुपपत्तेः । चारित्रसे श्रुत प्रधान है, इसलिए उसकी अग्रच संज्ञा है। प्रश्न-चारित्रसे श्रुतकी प्रधानता किस कारणसे है । उत्तर- क्योकि श्रुतज्ञानके बिना चारित्रकी उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए चारित्रकी अपेक्षा श्रुतकी प्रधानता है। स.सा./आ./३४ य एवं पूर्व जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे न पुनरन्य.. प्रत्याख्यान ज्ञानमेव इत्यनुभवनीयम्। -जो पहले जानता है वही त्याग करता है, अन्य तो कोई त्याग करनेवाला नहीं है, इसलिए प्रत्याख्यान ज्ञान ही हो। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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