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________________ चर्चा २७९ चामुंडराय चाहिए, विजयादि विमानोंसे च्युत सम्यक्त्व कटे बिमामनुष्यो में उत्पन्न हो संयम धार पुन विजयादि विमानो में उत्पन्न हो, वहाँसे चयकर पुन' मनुष्यभव प्राप्त कर मुक्त होते है, ऐसा द्विचरम देहत्वका अर्थ है । प्रश्न-मनुष्यदेहके ही चरमपना कैसे है ? उत्तर-क्योकि तीनों गतिके जीव मनुष्यभवको पाकर हो मुक्त होते हैं, उन उन भवों से नहीं, इसलिए मनुष्यभवके द्विचरमपना है। प्रश्नचरम शब्द अन्त्यवाची है इसलिए एक ही भव चरम हो सकता है दो नहीं, इसलिए द्विचरमत्व कहना युक्त नहीं है ? उत्तर-नहीं, क्योंकि, यहाँ उपचारसे द्विचरमत्व कहा गया है । चरमके पासमें अव्यवहित पूर्वका मनुष्यभव भी उपचारसे चरम कहा जा सकता है । प्रश्न-विजयादिकोंमें द्विचरमत्व कहने में आर्ष विरोध आता है। क्योंकि, उसे त्रिचरमत्व प्राप्त है । उत्तर-सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होनेवाले मनुष्य पर्यायमें आते है तथा उसी पर्यायसे मोक्ष लाभ करते हैं। विजयादिक देव लौकान्तिककी तरह करते है। विजयादिक देव लौकान्तिककी तरह एकभविक नहीं हैं किन्तु द्विभविक है। इसके बीच में यदि कल्पान्तरमें उत्पन्न हुआ है तो उसकी विवक्षा नहीं है। * चरमदेहीको उत्पत्ति योग्य काल-दे० मोक्ष/४/३ । चचा-१. वीतराग व विजिगीषु कथाके लक्षण-दे० कथा; २. वाद सम्बन्धी चर्चा-दे० वाद। ३. चौथे नरकका चतुर्थ पटल -दे० नरक/५/१९॥ चाचका-कालका प्रमाण विशेष । अपरनाम अचलात्म व अचलाप्त -दे० गणित//१॥ चर्म-चक्रवर्तीका एक रत्न-दे० शलाका पुरुष/२ । चर्मण्वती-भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी-दे. मनुष्य/४ । चर्या-म.पु./३६/१४७-१४८ चर्या तु देवतार्थ वा मन्त्रसिद्ध्यर्थमेव वा । औषधाहारक्लुप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ।१४७। तत्राकामकृतेः शुद्धिः प्रायश्चित्तै विधीयते। पश्चाश्चात्मालय सूनी व्यवस्थाप्य गृहोज्झनम् ।१४८१-किसी देवताके लिए, किसी मन्त्रकी सिद्धिके लिए, अथवा किसी ओषधि या भोजन बनवानेके लिए मै किसी जीवकी हिसा नहीं करूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है ।१४७। इस प्रतिज्ञामें यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमादसे दोष लग जावे तो प्रायश्चित्तसे उसको शुद्धि की जाती है ।१४८॥ चर्या परिषहप. सि/E/8/४२३/४ निराकृतपादावरणस्य परुषशर्कराकण्टकादिव्यधन जातचरणखेदस्यापि सतः पूर्वोचितयानवाहनादिगमनमस्मरतो यथाकालमावश्यकापरिहाणिमास्कन्दतश्चर्यापरिषहसहनमबसेयम् । जिसका शरीर तपश्चरणादिके कारण अत्यन्त अशक्त हठे गया है, जिसने खड़ाऊँ आदिका त्याग कर दिया है, तीक्ष्ण कंकड़ और काँटे आदिके बिधनेसे चरण में खेदके उत्पन्न होनेपर भी पूर्व में भोगे यान और वाहन आदिसे गमन करनेका जो स्मरण नहीं करता है, तथा जो यथाकाल आवश्यकोंका परिपूर्ण परिपालन करता है उसके चर्या परिषहजय जानना चाहिए । (रा. वा./8/8/१४/६१०/१६ ) (चा. सा. ११८/१)। २. चर्या निषद्या व शय्या परिषहमें अन्तर यादरप्रवृत्त्यर्थ मौपोद्वातिक प्रकरणमुक्तम् । प्रश्न-चर्या आदि तीन परीषह समान हैं, एक साथ नहीं हो सकती, क्योंकि वैठनेमें परीषह आनेपर सो सकता है, सोनेमें परीषह आनेपर चल सकता है, और सहनविधि एक जैसी है, तब इन्हे एक परिषह मान लेना चाहिए और इस प्रकार २२ की बजाय १६ परीषह कहनी चाहिए। उत्तर--अरति यदि रहती है, तो परीषहजय नहीं कहा जा सकता। यदि साधु चर्याकष्टसे उद्विग्न होकर बैठ जाता है या बैठनेसे उद्विग्न होकर लेट जाता है तो परीषह जय कैसा' यदि परीषहोंको जीतू गा इस प्रकारकी रुचि नहीं है, तो वह परीषहजयी नहीं कहा जा सकता। अत' तीनों क्रियाओं के कष्टोंको जीतना और एक्के कष्टके निवारण के लिए दूसरेकी इच्छा न करना ही परीषहजय है । चर्या श्रावक-दे० श्रावक/१॥ चल--सम्यग्दर्शनका चल दोष गो.जी./जी प्र/२५/५१/५ में उद्धृत-नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतम्। लसत्कललोलमालासु जलमेकमवस्थितम्। नानात्मीयविशेषेषु आप्तागमपदार्थ श्रद्धानविकल्पेषु चलतीति चलं स्मृतं । तद्यथास्वकारितेऽहंच्चैत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते। अन्यस्यायमिति भ्राम्यत् मोहाच्छ्राद्धोऽपि चेष्टते। = नानाप्रकार अपने ही विशेष कहिए आप्तआगमपदार्थरूप श्रद्धानके भेद तिनिविर्ष जो चलै चंचल होइ सो चल कह्या है सोई कहिए है। अपना कराया अहंतप्रतिबिंबादिकविर्षे यह मेरा देव है ऐसे ममत्वकरि, बहुरि अन्यकरि कराया अर्हतप्रतिबिबादिकविः यहु अन्यका है ऐसे परका मानकरि भेदरूप करै है ताते चल कह्या है । इहाँ दृष्टान्त कहै हैं-जैसे नाना प्रकार कल्लोल तरंगनिकी पंक्तिविर्षे जल एक ही अवस्थित है. तथापि नानारूप होइ चल है तैसे मोह जो सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय ताते श्रद्धान हैं सो भ्रमणरूप चेष्टा करै है। भावार्थ-जैसे जल तरंगनिविषं चंचल होइ परन्तु अन्यभावकौं न भजे, तैसे वेदक सम्यग्दृष्टि अपना वा अन्यका कराया जिनबिबादि विष यह मेरा यह अन्यका इत्यादि विकल्प करै परन्तु अन्य देवादिककौं नाही भजे है। (अन.ध./२/६०-६१/१८३)। अन.ध/२/६१/१८४/पर उद्धृत-कियन्तमपि यत्काल स्थित्वा चलति तच्चलम् । = जो कुछ कालतक स्थिर रहकर चलायमान हो जाता है उसको चल कहते हैं। चल शोलभ.अ./वी./१८०/३६८/२ कंदर्पकोत्कुच्याभ्यां चलशीलः । -वंदर्प और कौत्कुच्य इन दो प्रकारके वचनोंका पुनः पुनः प्रयोग करना चल शोलता है। चलसंख्या -Varriable quantities in the equation as in (ax' +bx+c=0) a, b, care constant and 'x' is _varriable. चलितंप्रदेश-दे० जीव/४! चलितरस-दे० भक्ष्याभक्ष्य/२ । चल्लितापी-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी-दे० मनुष्य/४ । चांदराय-माण्वके राजा थे। समय-ई० १४२८ (प.प्र /प्र.१२१/ A. N. UP)। चातुर्मास-दे० वर्षायोग। चाप-arc या धनुष पृष्ठ । १-आपका घरू नाम गोमट्ट था, गो. जी. ७३४ में आपको इस नाम से आशीर्वाद दिया गया है। इसीके कारण रा.वा./8/१७/७/६१६/११/ स्थान्मतम् --चर्यादीनां त्रयाणां परीषहाणामविशेषादेकत्र नियमाभावादेकत्वमित्येकानविंशतिवचनं क्रियते इति; तन्न, किं कारणम् । अरतौ परीषहजयाभावात् । यद्यत्र रतिर्नास्ति परीषहजय एवास्य व्युच्छिद्यते। तस्माद्यथोक्तप्रतिद्वन्द्विसांनिध्यात परीषहस्वभावाश्रयपरिणामात्मलाभनिमित्तविचक्षणस्य तत्परित्यागा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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