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________________ ज्ञानो २७३ ग्रन्थ २. ग्रन्थके भेद-प्रभेदध.६/४,१,६७/३२२-३२३ ग्रन्थकृति नाम स्थापना भाव नोआगम आगम नोआगम आगम ज्ञायकशरीर भावी तद्वयतिरिक्त नोश्रुत च्युत - च्यावित-- त्यक्त गून्थना बुनना वेष्टित | करना पूरना इत्यादि _लौकिक - -वेदिक - --सामायिक ज्ञानी-१. लक्षण स. सा/मू/७५ कम्मरस य परिणाम णोकम्मस्स य तहेव परिणाम । ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हव दि णाणी । -जो आत्मा इस कमके परिणामको तथा नोकर्म के परिणामको नहीं करता किन्तु जानता है. वह ज्ञानी है। आ. अनु/२१०-२११ "रसादिराद्यो भाग स्याज्ज्ञानावृत्त्यादिरन्वत । ज्ञानादयस्तृतीयस्तु ससार्येवं त्रयात्मक ।२१०। भागत्रयमयं नित्यमात्मानं बन्धवतिनम् । भागद्वयात्पृथक्कर्त यो जानाति स तत्त्ववित (२११। संसारी प्राणीके तीन भाग हैं-सप्तधातुमय शरीर, ज्ञानावरणादि कर्म और ज्ञान ।२१०। इन तीन भागोंमें से जो ज्ञानको अन्य दो भागोंसे करनेका विधान जानता है वह तत्त्वज्ञानी है।२११॥ स. सा./प. जयचन्द/१७७-१७८ ज्ञानी शब्द मुख्यतया तीन अपेक्षाओ को लेकर प्रवृत्त होता है-(१) प्रथम तो जिसे ज्ञान हो वह ज्ञानी कहलाता है, इस प्रकार सामान्य ज्ञानकी अपेक्षासे सभी जीव ज्ञानी हैं। (२) यदि सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाय तो सम्यग्दृष्टिको सम्यग्ज्ञान होता है, इसलिए उस अपेक्षासे वह ज्ञानी है, और मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है। (३) सम्पूर्ण ज्ञान और अपूर्ण ज्ञानकी अपेक्षासे विचार किया जाय तो केवली भगवान् ज्ञानी हैं और छद्मस्थ अज्ञानी हैं। * जीवको ज्ञानी कहने की विवक्षा-दे० जीव/१/२,३ । * ज्ञानीका विषय-दे० सम्यग्दृष्टि। * श्रुतज्ञानी-दे० श्रुतकेवली।। *ज्ञानीकी धार्मिक क्रियाए-दे० मिथ्याष्टिा४। ज्ञानेश्वर-भूतकालीन १७वं तीर्थ कर। दे० तीर्थंकर/५ । ज्ञायक-१ ज्ञायक शरीर-दे० निक्षेप/५ । २. ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध । दे० सम्बन्ध। बाह्य आभ्यन्तर द्रव्य भाव शयनासन - वास्तु क्षेत्र चतुष्पद धान्य धन द्विपद यान कुप्य भाण्ड ।।।।।। ।।।।।। मिथ्यात्व - स्त्री वेद पुरुष वेद नपुंसक वेद जुगुप्सा - क्रोध रति अरति शोक भय मान माया लोभ ज्ञय-१. ज्ञानमे ज्ञेयोका आकार । दे० केवलज्ञान/६। २ ज्ञान ज्ञेय सम्बन्ध । दे० संबन्ध । ज्ञेयार्थ-१.नेयार्थ परिणमन क्रिया-दे० परिणमन । ग्रन्थ-१. ग्रन्थ सामान्यका लक्षण ध.६/४,१,५४/२५६/१० “गणहरदेव विरइददचसुदं गंथो" गणधर देवसे रचा गया द्रव्पश्रुत ग्रन्थ कहा जाता है। ध.६/४,१,६७/३२३/७ ववहारणयं पडच्च खेत्तादी गंथो, अग्भतरगंथकारणन्तादो । एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं । णिच्छयणयं पडच मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारण तादो। तेसिं परिच्चागो णिग्गंधत्तं। - व्यवहार नयकी अपेक्षा क्षेत्रादि ग्रन्थ हैं, क्योंकि वे अभ्यन्तर ग्रन्थके कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है । निश्चयनयकी अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्थ है, क्योंकि. वे कर्मबन्धके कारण है और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है। भ आ./वि /४३/१४१/२० ग्रन्यन्ति रचयन्ति दीर्थीकुर्वन्ति संसारमिति ग्रन्थाः। मिथ्यादर्शनं मिथ्याज्ञानं असंयम' कषाया' अशुभयोगत्रयं चेप्यमी परिणामा । - जो संसारको गूथते हैं अर्थात् जो संसारको रचना करते हैं, जो संसारको दीर्घकाल तक रहनेवाला करते है, उनको ग्रन्थ कहना चाहिए। (तथा )-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, असंयम, कषाय, अशुभ मन बचन काय योग, इन परिणामोंको आचार्य ग्रन्थ कहते है। (मू.आ./४०९-४०८); (भ.आ./मू /१११८-१११६/११२४ ); (पु.सि.उ. ११६ मे केवल अन्तरंगवाले १४ भेद); (ज्ञानार्णव/१६/४+६मे उधृत)। त. सू./७/२६ क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रमा' १२६ - क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य इन मौके परिमाणका अतिक्रम करना परिग्रह प्रमाणवतके पाँच अतिचार हैं । (प.प्र./पू /२/४६) द.पा./टी./१४/१५ पर उधृत = क्षेत्रं वास्तु धन धान्यं द्विपदं च चतुष्पदं । कुप्य भाण्डं हिरण्यं च सुवर्ण च बहिर्दश ।१! -- क्षेत्र-वास्तु: धन-धान्य द्विपद-चतुष्पद: कुष्य-भाण्ड; हिरण्य-सुवर्ण-ये दश बाह्य परिग्रह है। ३. ग्रन्थके भेदोंके लक्षण ध.१/४,१,६७/३२२/१० हस्त्यश्व-तन्त्र-कौटिल्य-वात्सायनादिबोधो लौकिकभावश्रुतग्रन्थः । द्वादशाङ्गादिबोधो वैदिकभावश्रुतग्रन्थः । नैयायिकवैशेषिकलोकायतसांख्यमीमांसकबौद्धादिदर्शनविषयबोधः सामायिकभावश्रुतग्रन्थ । एदेसि सद्दपर्वधा अक्रवरकबादीणं जा च गंथरयणा अक्षरकाव्यैर्ग्रन्थरचना प्रतिपाद्यविषया सा सुदर्गथकदी णाम । == (नाम स्थापना आदि भेदों के लक्षणोंके लिए दे० निक्षेप)हाथी, अश्व, तन्त्र, कौटिल्य, अर्थशास्त्र और वात्सायन कामशास्त्र आदि विषयक ज्ञान लौकिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है। द्वादशागादि विषयक बोध वैदिक भाव श्रुत ग्रन्थकृति है। तथा नैयायिक वैशेपिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध इत्यादि दर्शनोंको विषय करनेवाला बोध सामायिक भावभुत ग्रन्थकृति है। इनको शब्द सन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थको विषय करनेवाली जो ग्रन्थरचना की जाती है । वह श्रुतग्रन्थकृति कही जाती है। (निक्षेपों रूप भेदों सम्बन्धी-दे० निक्षेप)। * परिग्रह सम्बन्धी विषय -दे० परिग्रह । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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