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________________ ज्ञानावरण मणपजवणाणवारणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि |२१| = ज्ञानावरण फर्मी पाँच प्रकृतियों है-अभिनिबोधिक (मति) ज्ञानावरणीय श्रुतज्ञानावरणीय अवधिज्ञानावरणीय, मन:पर्ययज्ञानावरणीय और ज्ञानावरणीय | २१.६/११-१२/१४/१५), (. आ./ १२२४ ); (त. सू./८/६ ), ( पं. सं / प्रा. / २/४ ), ( त सा / ५ / २४ ) * ज्ञानावरण व मोहनीयमें अन्तर दे० मोहनीय /१ ३. ज्ञानावरणके संख्यात व असंख्यात भेद १. ज्ञानावरण सामान्यके असंख्यात भेद ष. खं. १२ / ४,२,१४ / सू. ४/४७६ णाणावरणीयदं सणावरणीयकम्मरस असंखेज्जलोगपयडीओ |४| = ज्ञानावरण और दशनावरणकी असंख्यात प्रकृतियों है ( रा. वा/९/१३/१३/६१/३०), (रा. वा / ८/१३/२/५८९१/४ ). २७१ ध. १२/४.२.१४,४/४७६/४ कुदो एत्तियाओं होंति त्ति णव्वदे। आवरपिज्जा- सागमखेोगमेतदुभादो प्रश्न उनकी प्रकृतियाँ इतनी हैं, यह कैसे जाना ? उत्तर- चूँकि आवरण के योग्य ज्ञान व दर्शन के असंख्यात लोकमात्र भेद पाये जाते है । स्याम /१०/२३८/०स्वानावरणनीयन्तरायक्षयोपशम विशेषादेवास्य मै मत्येन प्रवृज्ञानावरण और गोमन्तराय कर्मके क्षयोपदाम होनेपर उनकी (प्रत्यक्ष, स्मृति, शब्द व अनुमान प्रमाणोकी) निश्चित पदार्थोंमें प्रवृत्ति होती है। अर्थाद जिस समय जिस विषयको रोकनेवाला कर्म नष्ट हो जाता है उस समय उसी विषयका ज्ञान प्रकाशित हो सकता है, अन्य नही । ) २. मतिज्ञानावरणके संख्यात व असंख्यात भेद ष. ख. १३/५,५/सू. ३५/२३४ एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्स चविहं वा चदुवीसदिविधं वा अट्ठावीसदिविधं वा बत्तीसदिवि वा अदालोसविधं वा चोदा-सदविधं वादनिर्भया मामउदि सदविधं वा सद-अठासीदिवि मा सिद छत्तौसदिविधं वा तिसद चुलसीदिविध वा णादव्वाणि भवंति |३४| = इस प्रकार आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्मके चार भेद (अवग्रह, हा अनाथ धारणावरणीय); चौबीस ( उपरोक्त चारोको ६ इन्द्रियोंसे गुणा करनेसे २४) अट्ठाईस भेद बचीस भेद, अडताटीस भेद १४४ मे १४८ मे ११२ मे २४० भेद, २३६ भेद और ३०४ भेद ज्ञातव्य है (विशेष देखा मतिज्ञान/१) 1 घ. १२/४.२.१५,४/५०१/१३ मदिणाणावरणीयपयडीओ...असंखेज्जलोग्गमेत्ताओ। मतिज्ञानाबरणकी प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र है । म.पु. /११/०९ सम्पनोधर्मतिज्ञानस्योपमा १ मतिज्ञानके = I क्षयोपशम से युक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त कर लिया। प.प. /उ. ४००,८५२.८२६ (स्वानुयावरण कर्म) । ३. श्रुतशनावरणीय संख्यात व असंख्यात मेद . ११/५.५/४४.४५.४८,२४० २६० दणाणावरणीयस्स कम्मस्स संखेज्जाओ पयडीओ | ४४ | जावदियाणि अक्खराणि अक्खरसंजोगा वा ४५० तस्सेव दणाणावरणीयस्स कम्मरस मीसदिविधा पहला कायव्वा भवदि |४७ | पज्जयावरणीयं पज्जयसमासावरणीयं अवखरावरणीयं अक्खरसमासावरणीयं पदावरणीयं पदसमासावरणीयं संवादावरणीय संघासमासावरणीय पश्वितावरणीय परिवतिसमासावरणीयं अणियोगद्दारावरणीय अणियोगद्दारसमासावरणीयं पाहुडपाहुडावरणीयं पाहुडपाहुडसमासावरणीयं पाहुडावरणीयं पाहुडसमासावरणीयं वत्थु आवरणीयं वत्थुसमासावरणीयं पुव्त्रावरणीयं - समासाभरणीयं ॥४८। - श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी संख्या तियाँ है ॥४४॥ जितने अक्षर हैं और जितने अक्षर संयोग है ( दे० Jain Education International १. ज्ञानावरणीय कर्म निर्देश अक्षर) उतनी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ हैं ।४५। उसी त ज्ञानावरणीयकी २० प्रकारको प्ररूपणा करनी चाहिए 180 पर्याया वरणीय पर्यायसमासावरणीय, अक्षरात्ररणीय, अक्षरसमासावरणीय, पदावरणीय, पदसमासावरणीय, संघातावरणीय, संघातसमासावरपीय प्रतिपत्ति आवरणीय प्रतिपति समासावरणीय, अनुयोगद्वारामरणीय. अनुयोगद्वारसमासावरणीय प्राभृतप्राभृतावरणीय प्राभूतप्राभृतसमासावरणीय प्राभृताभरणीय, प्राभृतसमासावरणीय वस्तुआवरणीय वस्तुसमासावरणीय पूर्वावरणीय, पूर्वसमासावरणीय, ये श्रुतज्ञानावरण के २० भेद है। घ. १२/५.२.९५.४/५०२/२ दणाणावरणीयपयडीओ असं जालोगमेत्ताओ। श्रुतज्ञानावरणीयको प्रकृतियाँ असंख्यात लोकमात्र हैं । ४ अवधिज्ञानावरणीय के सख्यात व असंख्यात भेद ष, खं. १३/५.५/ सूत्र ५२ / २८६ ओहिणाणावरणीयस्स कम्मस्स असंखेजाओ यडीओ ॥३२ - ध. १३/५.५.५२ / २८१ / १२ असंखेज्जाओ त्ति कुदोवगम्मदे । आवरणिजस्स बहिणाणस्स असखेज्ज विपन्यत्तादो अवधिज्ञानावरण कर्म की । - असंख्यात प्रकृतियों है । १२ प्रश्न- असंख्यात है. यह किस प्रमाणसे जाना जाता है, उत्तर- क्योंकि, आवरणीय अवधिज्ञानके असंख्यात विकल्प हैं विशेष दे० अनि भेद) ध.१२/४.२-१५.४ (२०१/११) ५. मनः पर्यवदानावरणीयके संख्यात व असंख्यात भेद:१३/५/ सूत्र ६०-६२,७०/३२८-२२१.३४०| मन:पर्ययज्ञानावरणीय मन } ऋजुमति 1 वचन i काय 1 = जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ऋजु 1 1 मन विपुलमति अनऋजु घ. १२/४.२.१४.४/०२/३ मगज्जव मागावरणीय अससेज्जकल्पनेत्ताओ। मन पर्ययज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ असंख्यात कल्पमात्र है । 1 वचन काय ४. केवलज्ञानावरणकी एक ही प्रकृति है। . /१३/५.५/ सूत्र ८०/३४५ केवलणाणावरणीयस्स कम्मस्स एया चेव पपड़ी |८०| केवलज्ञानावरणीय कर्मको एक ही प्रकृति है। ५. ज्ञानावरण व दशनावरणके बन्ध योग्य परिणाम दे० वचन । १- ( अभ्याख्यान आदि वचनोंसे ज्ञानावरणीयकी वेदना होती है। व. सू. /६/१० रामदोषनियमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शना वरणयो |१०| स /सि/६/१०/३२८/५ एतेन ज्ञानदर्शनवत्सु तत्साधनेषु च प्रदोषादयो योज्यानिमित्वात् ज्ञानविषयाः प्रदोषादयो ज्ञानावरणस्य । दर्शनमिषाः प्रदोषाश्यों दर्शनावरणस्यैति ज्ञान और दर्शनके विषय में प्रदोष, निह्नव मात्सर्य, अन्तराय, आसादन, और ६ उपघात यज्ञानावरण और दर्शनावरण के आसन हैं |१०| ज्ञान और दर्शनवालोंके विषय में तथा उनके साधनोके विषय में प्रदोषादिकी योजना करनी चाहिए, क्योंकि ये उनके निमित्तसे होते हैं। अथवा ज्ञान सम्बन्धी प्रदोषादिक ज्ञानावरणके आस्रव हैं और दर्शन सम्बन्धी प्रदोषादिक दर्शनावरण के आसव हैं (मो.क./मू./८०० / १०६) www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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