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________________ ज्ञान २६५ III सम्यक् मिथ्या ज्ञान ९. मिथ्याष्टिका शास्त्रज्ञान भी मिथ्या व अकिंचि दे. ज्ञान/IV/१/४-[आत्मज्ञानके बिना सर्व आगमज्ञान अकिंचि धड-पड़त्थंभादिसु मिच्छाइट्ठीणं जहावगम सद्दहणमुवलम्भदे चे; ण, तत्थ वि तस्स अणभवसायदसणादो। ण चेदमसिद्ध 'इदमेवं चेवेति' णिच्छयाभावा। अधवा जहा दिसामूढो वण्ण-गंध-रस-फासजहावगम सद्दतो वि अण्णाणी कुच्चदे जहावगमदिससदहणाभावादो, एवं थंभादिपयत्थे जहावगमं सहहंतो वि अण्णाणी बुच्चदे जिणवयणेण सद्दहणाभावादो।प्रश्न-यहाँ सम्यग्दृष्टिके ज्ञानका भी प्रतिषेध क्यों न किया जाय, क्योकि, विधि और प्रतिषेध भावसे मिथ्यादृष्टिज्ञान और सम्यग्दृष्टिज्ञानमें कोई विशेषता नहीं है 1 उत्तर-यहाँ अन्य पदार्थोमें परत्वबुद्धिके अतिरिक्त भावसामान्यकी अपेक्षा प्रतिषेध नहीं किया गया है, जिससे कि सम्यग्दृष्टिज्ञानका भी प्रतिषेध हो जाय। किन्तु ज्ञात वस्तुमें विपरीत श्रद्धा उत्पन्न करानेवाले मिथ्यात्वोदयके बलसे जहॉपर जीवमें अपने जाने हुए पदार्थ में श्रद्धान नहीं उत्पन्न होता, वहाँ जो ज्ञान होता है वह अज्ञान कहलाता है, क्योंकि उसमें ज्ञानका फल नहीं पाया जाता। शंका-धट पट स्तम्भ आदि पदार्थों में मिथ्यादृष्टियोंके भी यथार्थ श्रद्धान और ज्ञान पाया जाता है । उत्तर-नहीं पाया जाता, क्योंकि, उनके उसके उस ज्ञानमें भी अनध्यवसाय अर्थात अनिश्चय देखा जाता है। यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, 'यह ऐसा ही है ऐसे निश्चयका यहाँ अभाव होता है। अथवा, यथार्थ दिशाके सम्बन्धमें विमूढ जीव वर्ण. गंध, रस और स्पर्श इन इन्द्रिय विषयोंके ज्ञानानुसार श्रद्धान करता हुया भी अज्ञानी कहलाता है, क्योंकि, उसके यथार्थ ज्ञानकी दिशामें श्रद्धानका अभाव है। इसी प्रकार स्तम्भादि पदार्थों में यथाज्ञान श्रद्धा रखता हुआ भी जीव जिन भगवान्के वचनानुसार श्रद्धानके अभावसे अज्ञानी ही कहलाता है। स.सा./आ/७२ आकुलत्वोत्पादकत्वाद्दुःखस्य कारणानि खस्वास्रवाः, भगवानात्मा तु नित्यमेवानाकुलत्वस्वाभावेनाकार्यकारणत्वाद्दुरवस्याकारणमेव । इत्येवं विशेषदर्शनेन यदैवायमात्मास्रवयोर्भेदं जानाति तदैव क्रोधादिभ्य आस्रवेभ्यो निवर्तते, तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमार्थिकतन्दज्ञानसिद्ध ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनो ज्ञानमात्रादेवाज्ञानजस्य पौद्गलिकस्य कर्मणो बन्धनिरोधः सिध्येत । = आस्रव आकुलताके उत्पन्न करनेवाले हैं इसलिए दुःखके कारण हैं, और भगवान् आत्मा तो, सदा ही निराकुलता-स्वभावके कारण किसीका कार्य तथा किसीका कारण न होनेसे, दुःखका अकारण है।' इस प्रकार विशेष ( अन्तर) को देखकर जब यह आत्मा, आत्मा और आस्रवोंके भेदको जानता है, उसी समय क्रोधादि आस्रवोंसे निवृत्त होता है, क्योंकि, उनमे जो निवृत्ति नहीं है उसे आत्मा और आस्रवों के पारमार्थिक भेदज्ञानकी सिद्धि ही नहीं हुई। इसलिए क्रोधादि आस्रवोंसे निवृत्तिके साथ जो अविनाभावी है ऐसे ज्ञानमात्रसे ही, अज्ञानजन्य पौद्गलिक कर्म के बन्धका निरोध होता है। (तात्पर्य यह कि मिथ्यादृष्टिको शास्त्रके आधारपर भले ही आस्त्रवादि तत्त्वोंका ज्ञान हो गया हो पर मिथ्यात्ववश स्वतत्त्व दृष्टिसे ओझल होनेके कारण वह उस ज्ञानको अपने जीवनपर लागू नहीं कर पाता। इसीसे उसे उस ज्ञानका फल भी प्राप्त नहीं होता और इसीलिए उसका वह ज्ञान मिपा है । इससे विपरोत सम्यग्दृष्टिका तत्त्वज्ञान अपने जीवन पर लागू होनेके कारण सम्यक है)। स सा./पं.जयचन्द/७२ प्रश्न-अविरत सम्यग्दृष्टिको यद्यपि मिथ्यात्व व अनन्तानुबन्धी प्रकृतियोंका आस्रव नहीं होता. परन्तु अन्य प्रकृतियोका तो आस्रव होकर बन्ध होता है। इसलिए ज्ञानी कहना या अज्ञानी? उत्तर-सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानी ही है, क्योंकि वह अभिप्राय पूर्वक आत्रवोंसे निवृत्त हुआ है। और भी दे० ज्ञान/III/३/३ मिथ्याष्टिका ज्ञान भी भूतार्थ ग्राही होनेके कारण यद्यपि कथंचित् सम्यक है पर ज्ञानका असली कार्य (आसव निरोध) न करनेके कारण वह अज्ञान ही है। दे. राग/६/१ [ परमाणु मात्र भी राग है तो सर्व आगमधर भी आत्माको नहीं जानता] स.सा./मू /३१७ ण मुयह पयडिमभव्यो मुठ वि अज्झाइऊण सत्थाणि । गुइदुद्धपि पिबंता ण पण्णया णिविवसा हूँति । -भलीभाँति शास्त्रोंको पढकर भी अभव्य जीव प्रकृतिको ( अपने मिथ्यात्व स्वभावको) नहीं छोड़ता। जैसे मीठे दूधको पीते हुए भी सर्प निर्विष नहीं होते। ( स. सा./मू./२७४) द. पा./मू./४ समत्तरयणभट्ठा जाणता बहुविहाई सत्थाई। आराहणाविरहिया भमति तत्थैव तत्थेव ।४। सम्यक्त्व रत्नसे भ्रष्ट भले ही बहुत प्रकारके शास्त्रोको जानो परन्तु आराधनासे रहित होने के कारण संसारमें ही नित्य भ्रमण करता है।। यो. सा. अ./७/४४ संसारः पुत्रदारादिः पुंसां संमूढचेतसाम् । ससारो विदुषां शास्त्रमध्यात्मरहितमात्मनाम् ।४४ - अज्ञानीजनोंका संसार तो पुत्र स्त्री आदि है और अध्यात्मज्ञान शून्य विद्वानोका संसार शास्त्र है। द्र. सं./५०/२१५/७ पर उद्धृत-यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पण' कि करिष्यति । -जिस पुरुषके स्वयं बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है। क्योंकि नेत्रोंसे रहित पुरुषका दर्पण क्या उपकार कर सकता है । अर्थात कुछ नहीं कर सकता। स्या. म /२३/२७४/१५ तत्परिगृहीतं द्वादशाङ्गमपि मिथ्याश्रुतमामनन्ति । तेषामुपपत्ति निरपेक्ष यदृच्छया वस्तुतत्त्वोपलम्भसंरम्भात् । -मिथ्यादृष्टि बारह (1) अंगोको पढकर भी उन्हें मिथ्या श्रुत समझता है, क्योंकि, वह शास्त्रोंको समझे बिना उनका अपनी इच्छाके अनुसार अर्थ करता है। (और भी देखो पीछे इसीका नं०८) पं. ध./उ./७७० यत्पुनद्रव्यचारित्रं श्रुतज्ञानं विनापि दृक् । न तज्ज्ञान न चारित्रमस्ति चेत्कर्मबन्धकृत् ।७७०। जो सम्यग्दर्शनके बिना द्रव्यचारित्र तथा श्रुतज्ञान होता है वह न सम्यग्ज्ञान है और न सम्यग्चारित्र है। यदि है तो वह ज्ञान तथा चारित्र केवल कर्मबन्धको ही करनेवाला है। १०. सम्यग्दृष्टिका कुशास्त्र ज्ञान मी कथंचित् सम्यक है स्या. म /२३/२७४/१६ सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतं तु मिथ्याश्रुतमपि सम्यक् श्रुततया परिणमति सम्यग्दृशाम् । मर्व विदुण्देशानुसारिप्रवृत्तितया मिथ्याशुतोक्तस्याप्यर्थस्य यथावस्थितविधिनिषेधविषयतयोन्नयनात । -सम्यग्दृष्टि मिथ्याशास्त्रोंको पढकर उन्हे सम्यकश्रुत समझता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि सर्वज्ञदेवके उपदेशके अनुसार चलता है, इसलिए वह मिथ्या आगमोका भो यथोचित विधि निषेधरूप अर्थ करता है। ११. सम्यग्ज्ञानको ही ज्ञान संज्ञा है मू आ./२६७-२६८ जेण तच्च बिबुज्झेज जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झज्ज त णाणं जिणसासणे ।२६७। जेण रागा विरज्जेज्ज जेण सेएम रज्जदि । जेण मेत्ती पभावेज्ज तं णाणं जिणसासणे।२६८। -जिससे वस्तुका यथार्थ स्वरूप जाना जाय, जिससे मनाका व्यापार रुक जाय, जिससे आत्मा विशुद्ध हो, जिनशासनमें उसे ही ज्ञान कहा गया है ।२६७। जिससे रागसे विरक्त हो, जिससे श्रेयस मार्ग में रक्त हो, जिससे सर्व प्राणियों में मैत्री प्रवत, बही' जिनमतमें ज्ञान कहा गया है ।२६८॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा० २-३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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