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________________ ज्ञान २५९ I ज्ञान सामान्य ६. ज्ञानके परप्रकाशकपनेकी सिद्धि प. मु./१/८-६ घटमहमात्मना वेछि। कर्मवत्कत करणक्रियाप्रतीते ।। - मै अपने द्वारा घटको जानता हूँ इस प्रतीतिमें कर्मकी तरह कर्ता, करण व क्रियाकी भी प्रतीति होती है। अर्थात् कर्मकारक जो 'घट' उसही की भॉति कर्ताकारक 'मैं' व 'अपने द्वारा जानना' रूप करण व क्रिया की पृथक् प्रतीति हो रही है। जानाति स्वात्मानं कारणपरमात्मस्वरूपमपि जानाति । यहाँ ज्ञानीको स्व-पर स्वरूपका प्रकाशकपना कथंचित कहा है। पराश्रितो व्यवहारः' ऐसा वचन होनेसे 'इस ज्ञानका धर्म तो, दीपककी भॉति स्वपर प्रकाशकपना है। घटादिकी प्रमितिसे प्रकाश व दीपक दोनों कथ' चित भिन्न होनेपर भी स्वयं प्रकाशस्वरूप होनेसे स्व और परको प्रकाशित करता है; आत्मा भी ज्योति स्वरूप होनेसे व्यवहारसे त्रिलोक और त्रिकाल रूप परको तथा स्वयं प्रकाशस्वरूप आरमाको प्रकाशित करता है। अब ‘स्वाश्रितो निश्चय.' ऐसा वचन होनेसे सतत निरूपरागनिरंजन स्वभावमे लीनताके कारण निश्चय पक्षसे भी स्वपरप्रकाशकपना है ही। (वह इस प्रकार) सहजज्ञान आत्मासे संज्ञा लक्षण और प्रयोजनकी अपेक्षा भिन्न जाना जाता है, तथापि वस्तुवृत्तिसे भिन्न नहीं है। इस कारणसे यह आत्मगत दर्शन मुख चारित्रादि गुणों को जानता है और स्वात्माको अर्थात कारण परमात्माके स्वरूपको भी जानता है। (पं.ध/उ./३६७-३६४) (और भी दे० अनुभव/१२) पं.घ/पू/६६५-६६६ विधिपूर्वः प्रतिषेधः प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयोः। मैत्री प्रमाणमिति वा स्वपराकारावगाहि यज्ज्ञानम् ॥६६॥ अयमर्थोऽर्थविकल्पो ज्ञानं किल लक्षणं स्वत्तस्तस्य। एकविकल्पो नयसादुभयविकल्प. प्रमाणमिति बोधः ।६६६१ = विधि पूर्वक प्रतिषेध और प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है, किन्तु इन दोनों नयोंकी मैत्री प्रमाण है । अथवा स्वपर व्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाण है।६६॥ सारांश यह है कि निश्चय करके अर्थ के आकार रूप होना जो ज्ञान है वह प्रमाणका स्वयसिद्ध लक्षण है । तथा एक (स्व या परके) विकल्पात्मक ज्ञान नयाधीन है और उभयविकल्पात्मक प्रमाणाधीन है । दे० दर्शन२/६-ज्ञान व दर्शन दोनों स्वपर प्रकाशक हैं। ५. ज्ञानके स्व प्रकाशकत्वमें हेतु स.सि/१/१०/६८/६ प्रमेयवत्प्रमाणस्य प्रमाणान्तरपरिकल्पनायां स्वाधिगमाभावाव स्मृत्यभावः। तदभावाद्व्यवहारलोप: स्याद यदि प्रमेयके समान प्रमाणके लिए अन्य प्रमाण माना जाता है तो स्वका ज्ञान नहीं होनेसे स्मृतिका अभाव हो जाता है। और स्मृतिका अभाव हो जानेसे व्यवहारका लोप हो जाता है। लघीयस्त्रय/५६ स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिछेद्यः स्वतो यथा। तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वत. 1-अपने ही कारण उत्पन्न होनेवाले पदार्थ जिस प्रकार स्वतः ज्ञेय होते हैं, उसी प्रकार अपने कारणसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी स्वतः ज्ञेयात्मक है। (न्या.वि/१/३/ ६८/१५)। प.मु/१/६-७,१०-१२ स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं स्वस्य व्यवसाय: ।। अर्थस्मेव तदुन्मुखतया ।७। शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवद ।१० को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छस्तदेव तथा नेच्छेद ।११। प्रदीपवत ।१२। -जिस प्रकार पदार्थकी ओर झुकनेपर पदार्थका ज्ञान होता है, उसी प्रकार ज्ञान जिस समय अपनी ओर झुकता है तो उसे अपना भी प्रतिभास होता है। इसीको स्व व्यवसाय अर्थात ज्ञानका जानना कहते है।६-७ जिस प्रकार घटपटादि शब्दोंका उच्चारण न करनेपर भी घटपटादि पदार्थोंका ज्ञान हो जाता है, उसी प्रकार 'ज्ञान' ऐसा शब्द न कहने पर भी ज्ञानका ज्ञान हो जाता है ।१० घटपटादि पदार्थों का और अपना प्रकाशक होनेसे जैसा दीपक स्वपरप्रकाशक समझा जाता है, उसी प्रकार ज्ञान भी घट पट आदि पदार्थों का और अपना जाननेवाला है. इसलिए उसे भी स्वपरस्वरूपका जाननेवाला समझना चाहिए । क्योंकि ऐसा कौन लौकिक व परीक्षक है जो ज्ञानसे जाने पदार्थको तो प्रत्यक्षका विषय माने और स्वयं ज्ञानको प्रत्यक्षका विषय न माने ।११-१२। ४. ज्ञानके पांचों भेदों सम्बन्धी १.ज्ञानके पाँचों भेद पर्याय हैं ध. १/१,९,१/३७/१ पर्यायत्वात्केवलादीनां - केवलज्ञानादि (पाँचोंज्ञान ) पर्यायरूप है... २. पाँचों भेद ज्ञानसामान्यके अंश हैं घ. १/१,१,१/३७/१ पर्यायत्वारकेवलादीनां न स्थितिरिति चेन्न, अत्रुट्यज्ज्ञानसंतानापेक्षया तत्स्थैर्यस्य विरोधाभावात् । प्रश्न-केवलज्ञानादि पर्यायरूप हैं, इसलिए आवृत अवस्थामें उसका (केवलज्ञानका) सदभाव नहीं बन सकता है 1 उत्तर-यह शंका भी ठीक गहीं है, क्योंकि, कभी भी नहीं टूटनेवाली ज्ञानसन्तानकी (ज्ञान सामान्यकी ) अपेक्षा केवलज्ञानके सदभाव मान लेने में कोई विरोध नही आता है । (दे० ज्ञान/I/४/७)। स. सा./आ/२०४ यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थः साक्षान्मोक्षोपायः। न चाभिनिबोधिकादयो भेदा इदमेकं पदमिह भिन्दन्ति कितु तेपीदमेवैकं पदमभिनन्दन्ति । -यह ज्ञान (सामान्य) नामक एक पद परमार्थ स्वरूप साक्षात् मोक्षका उपाय है । यहाँ मतिज्ञानादि (ज्ञानके ) भेद इस एक पदको नहीं भेदते किन्तु वे भी इसी एक पदका अभिनन्दन करते हैं । (ध.१/१,१,१/३७/५)। ज्ञानबिन्दु / पृ. १ केवलज्ञानावरण पूर्ण ज्ञानको आवृत करनेके अतिरिक्त मन्दज्ञानको उत्पन्न करनेमें भी कारण है। ३. ज्ञान सामान्यके अंश होने सम्बन्धी शंका ध. ६/१,६-१,५/७/१ ण सव्वावयवेहि णाणस्सुवलंभो होदु त्ति वोत्तुं जुत्तं, आवरिदणाणभागाणमुवलं भविरोहा। आवरिदणाणभागा सावरणे जीवे किमत्थि आहो णत्थि त्ति ।...दनट्ठियणए अवलं बिजमाणे आवरिदणाणभागा सावरणे वि जीवे अस्थि जीवदव्वादो पुधभूवणाणाभावा, विज्जमाणणाणभागादो आवरिदणाणभागाणमभेदादो वा । आवरिदाणावरिदाणं कधगत्तमिदि चे ण, राहु-मेहेहि आवरिदाणावरिदमुज्जिदुमंडलभागाणमेगत्तवलंभा। प्रश्न-यदि सर्व जीवोंके ज्ञानका अस्तित्व सिद्ध है, तो फिर सर्व अवयवोके साथ ज्ञान उपलम्भ होना चाहिए। उत्तर-यह कहना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि, आवरण किये गये ज्ञानके भागोका उपलम्भ मानने में विरोध आता है । प्रश्न-आवरणयुक्त जीवमें आवरण किये गये ज्ञानके भाग है अथवा नहीं है (सत है या असव है)। उत्तर-द्रव्यार्थिक नयके अबलम्बन करनेपर आवरण किये गये ज्ञानके अंश साबरण जीवमें भी होते हैं, क्योकि, जीवसे पृथग्भूत ज्ञानका अभाव है। अथवा विद्यमान ज्ञानके अंशसे आवरण किये गये ज्ञानके अंशोंका कोई भेद नहीं है। प्रश्न-ज्ञानके आवरण किये गये और आवरण नहीं किये गये अंशोके एकता कैसे हो सकती है । उत्तर-नही, क्योकि, राहु और मेघोके द्वारा सूर्यमण्डल और चन्द्रमण्डलके आवरित और अनावरित भागोके एकता पायी जाती है। (रा. वा/८/६/४ ५/५७१/४ )। ४. मतिज्ञानादि भेद केवल ज्ञानके अंश हैं क. पा./१/१,१/६३१/४४/४ ण च केवलणाणमसिद्धः केवलणाणस्स ससवेयणपच्चवखेण णिआहेणुवलं भादो। यदि कहा जाय कि केवल जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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