SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 265
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५७ I ज्ञान सामान्य I ज्ञान सामान्य १. भेद व लक्षण सम्यग्ज्ञान प्राप्तिमें गुरु विनयका महत्त्व -दे० विनय/२। सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिश्र ज्ञान -देव मिश्र/७। ज्ञानदान सम्बन्धी विषय -दे० उपदेश/३ । रत्नत्रयमें कथचित् भेद व अभेद-दे० मोक्ष मार्ग/२,३ । सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानमे अन्तर -दे० सम्यग्दर्शन/I/४ । सम्यक व मिथ्याज्ञान सम्बन्धी शंका समाधान व समन्वय | तीनों अशानोंमे कौन-कौन सा मिथ्यात्व घटित होता * * अज्ञान कहनेसे क्या ज्ञानका अभाव इष्ट है ? मिथ्याशानको मिथ्या कहनेका कारण -दे० ज्ञान/III/२/८ । मिथ्याज्ञानकी अज्ञान संज्ञा कैसे है। सम्यग्दृष्टिके शानको अज्ञान क्यो नहीं कहते -दे० ज्ञान/II/२/८ शान व अशानका समन्वय-दे० सम्यग्दृष्टि/१ में ज्ञानी। मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक कैसे है? मिथ्याज्ञान दर्शानेका प्रयोजन । * * १. ज्ञानका सामान्य लक्षण स.सि /१/२/६/१ जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञाप्तिमात्र वा ज्ञानम् । = जो जानता है वह ज्ञान है ( कतृ साधन); जिसके द्वारा जाना जाय सो ज्ञान है (करण साधन), जाननामात्र ज्ञान है (भाव साधन) । (रा.वा./ १/१/२४/६/१; २६/४/१२), (ध.१/१,१,११५/३५३/१०);(स्या.म /१६/ २१५/२७)। रा.वा./१/१/१/११ एवंभूतनयवक्तव्यवशात ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणतात्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वभाव्यात् । = एवं भूतनयकी दृष्टिमे ज्ञानक्रियामें परिणत आत्मा ही ज्ञान है, क्योंकि, वह ज्ञानस्वभावी है। दे० आकार/५ साकारोपयोगका नाम ज्ञान है। दे० विकल्प/२ सविकल्प उपयोगका नाम ज्ञान है। दे० दर्शन/१/३ बाह्य चित्प्रकाशका तथा विशेष ग्रहणका नाम ज्ञान है। २. भूतार्थ ग्रहणका नाम ज्ञान है ध १/१,१४/१४२/३ भूतार्थप्रकाशनं ज्ञानम् । अथवा सद्भाव विनिश्च योपलम्भकं ज्ञानम् ।...शुद्धनयविवक्षायां तत्त्वार्थोपलम्भकं ज्ञानम् ।... द्रव्यगुणपर्यायाननेन जानातीति ज्ञानम्। १. सत्यार्थ का प्रकाश करनेबाली शक्ति विशेषका नाम ज्ञान है। २. अथवा सद्भाव अर्थात् वस्तुस्वरूपका निश्चय करनेवाले धर्मको ज्ञान कहते है। शुद्धनमकी विवक्षामे वस्तुस्वरूपका उपलम्भ करनेवाले धर्मको ही ज्ञान कहा है। ३. जिसके द्वारा द्रव्य गुण पर्यायोको जानते हैं उसे ज्ञान कहते है। (प.७/२,१,३/७२) । स्या,म/१६/२२१/२८ सम्यगवै परीत्येन विद्यतेऽवगम्यते वस्तुस्वरूपमनयेति सवित् । -जिससे यथार्थ रीतिसे वस्तु जानी जाय उसे संवित् (ज्ञान ) कहते हैं। दे० ज्ञान/III/२/११ सम्यग्ज्ञान की ही ज्ञान संज्ञा है। ३. मिथ्यादृष्टिका ज्ञान भतार्थ ग्राहक कैसे हो सकता है ध.१/९/१,१,४/१४२/३ मिथ्यादृष्टीना कथं भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, सम्यमिथ्यादृष्टीना प्रकाशस्य समानतोपलम्भाद। कथं पुनस्तेऽज्ञानिन इति चेन्न (दे० ज्ञान/III/३/३)-विपर्यय. कथं भूतार्थप्रकाशकमिति चेन्न, चन्द्रमस्युपलभ्यमान द्वित्वस्यान्यत्र सत्त्वस्तस्य भूतत्वोपपत्तेः। = प्रश्न-मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान भूतार्थ प्रकाशक कैसे हो सकता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्यो कि, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के प्रकाशमे समानता पायी जाती है। प्रश्न-यदि दोनोके प्रकाशमे समानता पायी जाती है तो फिर मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञानी कैसे हो सकता है ! उत्तर-(दे० पृ. २६६ ब ) प्रश्न-(मिथ्याष्टिका ज्ञान विपर्यय होता है) वह सत्याथेका प्रकाशक कैसे हो सकता है। उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि, चन्द्रमामे पाये जानेवाले द्वित्वका दूसरे पदार्थोंमे सत्व पाया जाता है। इसलिए उस ज्ञानमे भूतार्थता बन जाती है। ४. अनेक प्रकारसे ज्ञान के भेद १. ज्ञान मागणाकी अपेक्षा आठ भेद ष. ख/१/१,१/१ ११५/३५३ णाणाणुवादेण अस्थि मदिअण्णाणी सुद अण्णाणी विभगणाणी आभिणिबोहियणाणी सुदणाणी ओहिणाणी मणपज्जवणाणी केवलणाणी चेदि । - ज्ञानमार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी (मति ज्ञानी), शुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन पर्य यज्ञानी और केवलज्ञानी * * * निश्चय व्यवहार सम्यग्ज्ञान निश्चय सम्यग्ज्ञान निर्देश | मार्गणामें भावशान अभिप्रेत है—दे॰ मार्गणा। निश्चयज्ञानका माहात्म्य । भेद विज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। जो एकको जानता है वही सर्वको जानता है -दे० श्रुत केवली निश्चयज्ञान ही वास्तवमे प्रमाण है---दे० प्रमाण/४ । अभेद ज्ञान या इन्द्रियज्ञान अज्ञान है। आत्मशानके विना सर्व आगमशान व्यर्थ है। निश्चयशानके अपर नाम-दे० मोक्षमार्ग/२/५ । स्वसंवेदन ज्ञान या शुद्धात्मानुभूति-दे० अनुभव । व्यवहार सम्यग्ज्ञान निर्देश व्यवहारज्ञान निश्चयज्ञानका सावन है तथा इसका कारण। आगमज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहना उपचार है। व्यवहार ज्ञान प्राप्तिका प्रयोजन । निश्चय व्यवहार ज्ञान समन्वय निश्चयज्ञानका कारण प्रयोजन । व्यवहार ज्ञानका कारण प्रयोजन -दे० ज्ञान/IV/२/३। निश्चय व्यवहार शानका समन्वय । * * w * ww जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy