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________________ गुणस्थान २४६ १. गुणस्थानों व उनके भावोंका निर्देश सापराइय-पविट्ठसुद्धि-संजदेसु अत्थि उवसमा खवा ।१७। मुहुम-सांपराइय-पविट्ठ-सुद्धिसंजदेसु अस्थि उवसमा खवा ।१८। उवसंत-कसायवीयराय-छदुमत्था ।११। खीण-कसाय-वीयराय-छदुमत्था ॥२०॥ सजोगकेवली ।२१। अजोगकेवली ।२२१-(गुण स्थान १४ होते है)मिथ्यावृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्र, असंयत या अविरत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत या देशविरत, प्रमत्तसंयत या प्रमत्तविरत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण या अपूर्वकरण-प्रविष्टशुद्धिसंयत, अनिवृत्तिकरण या अनिवृत्तिकरणबादरसाम्पराय-प्रविष्टशुद्धि संयत, सूक्ष्मसाम्पराय या सूक्ष्म साम्पराय प्रविष्ट शुद्धि संयत, उपशान्तकषाय या उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय या क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली (मु. आ/११६५-१९६६), (पं.सं /प्रा/१/४-५), (रा.वा/१/१/१२/ ५८८/८), (गो. जी /मू /8-१०/३०) (पं. सं/सं./२/१५-१८)। * प्रत्येक गुणस्थान पर आरोहण करनेके लिए त्रिकरणों | का नियम - दे० उपशम, क्षय व क्षयोपशम । | दर्शन व चारित्रमोहका उपशम व क्षपण विधान। -दे० उपशम व क्षय | गुणस्थानामे मृत्युकी सम्भावना असम्भावना सम्बन्धी । नियम। -दे० मरण/३ | कौन गुणस्थानसे मरकर कहाँ उत्पन्न हो, और कौन सा गुण प्राप्त कर सके इत्यादि -दे० जन्म/६। गुणस्थानोंमें उपशमादि १० करणोंका अधिकार । -दे० करण/२। सभी गुणस्थानोंमें आयके अनुसार व्यय होनेका नियम -दे० मार्गणा/६। १४ मार्गणाओं, जीवसमासों आदिमें गुणस्थानोंके स्वामित्वको २० प्ररूपणाएँ। - दे० सत्/२॥ गुणस्थानोंकी सत् , संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ । -दे० वह वह नाम * | पर्याप्तापर्याप्त तथा गतिकाय आदिमें पृथक् पृथक् गण स्थानोंके स्वामित्वकी विशेषताएँ - दे० वह वह नाम बद्धायुष्ककी अपेक्षा गुणस्थानों का स्वामित्व।। -दे० आयु/६। गुणरथानोंमें सम्भव कर्मोंके बन्ध, उदय, सत्त्वादिकी प्ररूपणाएँ। -दे०वह वह नाम। १. गुणस्थानों व उनके भावोंका निर्देश १. गुणस्थान सामान्यका लक्षण पं.सं./प्रा/१/३ जेहिं दु लक्विज्जते उदयादिनु संभवेहि भाषेहि । जोवा ते गुणसण्णा णिहिट्ठा सव्वदरिसीहि ।३। -दर्शनमोहनीयादि कर्मोंकी उदय, उपशम, क्षय. क्षयोपशम आदि अवस्थाओके होनेपर उत्पन्न होनेवाले जिन भावोंसे जीव लक्षित किये जाते हैं, उन्हें सर्वदशियोंने 'गुणस्थान' इस संज्ञासे निर्देश किया है। (पं. सं/सं/१/ १२) (गो. जी./मू./८/२६) । २. गुणस्थानोंकी उत्पत्ति मोह और योगके कारण होती ४. सर्वगुणस्थानोंमें विरताविरतपनेका अथवा प्रमत्ता प्रमत्तपने आदिका निर्देश ध. १/१.१,१२-२१/पृष्ठ/पंक्ति 'असजद' इदि जं सम्मादि हिस्स विसेसणवयणं तमंतदीवयत्तादो हेडिल्लाण सयल-गुणट्ठाणाणमसंजदत्तं परूवेदि । उवरि असंजदभावं किण्ण परूवेदि त्ति उत्ते ण परूवेदि, उवरि सव्वत्थ संजमासंजम-संजम-विसेसणोवलंभादो ति। (१७२/८) । एदं सम्माइछि वयणं उप रिम-सव्व-गुणाणेसु अणुवाइ गंगा-गईपवाहो व्व (१७३/७)। प्रमत्तवचनमन्तदीपकत्वाच्छेषातीतसर्वगुणेषु प्रमादास्तित्वं सूचयति। (१७६/६)। बादरग्रहणमन्तदीपकत्वाद् गताशेषगुणस्थानानि बादरकषायाणीति प्रज्ञापनार्थम्, 'सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद्भवति' इति न्यायाद । (१८५/१)। छद्मस्थग्रहणमन्तदीपकत्वादतीताशेषगुणानां सावरणत्वस्य सूचकमित्यवगन्तव्यम् (१९०२)। सयोगग्रहणमधस्तनसकलगुणानां सयोगत्वप्रतिपादकमन्तदीपकत्वात् (१६१/५) । -सूत्रमें सम्यग्दृष्टिके लिए जो असंयत विशेषण दिया गया है, वह अन्तदीपक है, इसलिए वह अपनेसे नीचेके भी समस्त गुणस्थानोंके असंयतपनेका निरूपण करता है। (इससे ऊपरवाले गुणस्थानों में सर्वत्र संयमासंयम या संयम विशेषण पाया जानेसे उनके असंयमपनेका यह प्ररूपण नहीं करता है। (अर्थात चौथे गुणस्थान तक सब गुणस्थान असंयत हैं और इससे ऊपर संयतासंयत या संयत/ (१७२/८) । इस सूत्रमें जो सम्यग्दृष्टि पद है, वह गंगा नदीके प्रवाहके समान ऊपरके समस्त गुणस्थानों में अनुवृत्तिको प्राप्त होता है। अर्थात् पाँचवें आदि समस्त गुणस्थानोंमें सम्यग्दर्शन पाया जाता है। ( १७३/७) । यहाँ पर प्रमत्त शब्द अन्तदीपक है, इसलिए वह छठवें गुणस्थानसे पहिलेके सम्पूर्ण गुणस्थानों में प्रमादके अस्तित्वको सूचित करता है । ( अर्थात् छठे गुणस्थान तक सब प्रमत्त हैं और इससे ऊपर सातवें आदि गुणस्थान सब अप्रमत्त है। (१७६/६ ) ॥ सूत्रमे जो बादर' पदका ग्रहण किया है, वह अन्तदीपक होनेसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थान बादरकषाय है, इस बातका ज्ञान करानेके लिए ग्रहण किया है, ऐसा समझना चाहिए; क्योंकि जहॉपर विशेषण संभव हो अर्थात् लागू पडता हो और न देनेपर व्यभिचार आता हो, ऐसी जगह दिया गया विशेषण सार्थक होता है, ऐसा न्याय है (१८५/१)। इस सूत्रमें आया हुआ छद्मस्थ पद अन्तदीपक है, इसलिए उसे पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानों के सावरण (या छद्मस्थ )पनेका सूचक समझना चाहिए (१९०/२) । इस सूत्र में जो सयोग पदका ग्रहण किया है, वह अन्तदीपक होनेसे नीचेके सम्पूर्ण गुणस्थानोंके सयोगपनेका प्रतिपादक है (१९१/५) । गो. जी./मू./३/२२ संखेओ ओघोत्ति य गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा ।। --संक्षेप, ओघ ऐसी गुणस्थानकी संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्ग विषै रूढ है। बहुरि सो संज्ञा दर्शन चारित्र मोह और मन वचन काय योग तिनिकरि उपजी है। ३. १४ गुणस्थानोंके नाम निर्देश ष. व १/१,१/सू ६-२२/१६१-१९२ ओघेण अस्थि मिच्छाइट्ठी ।। सासणसम्माइट्ठी ।१० सम्मामिच्छाइट्ठी ।१श असंजदसम्माइट्ठी ॥१२॥ संजदासजदा ।१३। पमत्तसंजदा ।१४। अप्पमत्तसंजदा १५॥ अपुबकरण-पविट्ठ-सुद्धि संजदेसु अस्थि उवसमा खवा।१६। अणिय टि-बादर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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