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________________ कर्ता 'कर्मणि द्वितीया' यह सूत्र है। कर्म शब्दका 'क्रिया' ऐसा भी अर्थ' है । यहाँ कर्म शब्द क्रियावाची समझना । स. सा./आ /८६/क. ५१ य परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । (परिणमित होने वाले कर्ता रूप द्रव्यका) जो परिणाम है सो उसका कर्म है। प्र. सा./त.प्र / १६ शुद्धानन्तशक्तिज्ञानविपरिणमनस्वभावेन प्राप्यत्वात् कर्मफल- शुद्ध अनयुक्त हामरूपसे परिमित होने के स्वभावके कारण स्वयं ही प्राप्य होनेसे ( आत्मा ) कर्मत्वका अनुभव करता है । प्र. सा./त.प्र. ११७ क्रिया खत्वात्मना प्राप्यत्वात्कर्म । = क्रिया वास्तव में आत्मा के द्वारा प्राप्त होनेसे कर्म है । ( प्र सा./त.प्र./१८४ ). प्र. सा./ता.वृ./१६ नित्यानन्दं कस्वभावेन स्वयं प्राप्यत्वात् कर्मकारकं भवति । = नित्यानन्दरूप एक स्वभावके द्वारा स्वयं प्राप्य होनेसे ( आत्मा ही ) कर्म कारक होता है। ३. क्रिया सामान्य निर्देश स.सि./६/९/३१८/४ कर्म क्रिया इत्यनर्थान्तरम् । कर्म और क्रिया एकार्थ वाचो नाम है । स. सा. / आ / ८६ / क. ५१ या परिणतिक्रिया । ( परिणमित होनेवाले कर्ता रूप द्रव्य की ) जो परिणति है सो उसकी क्रिया है । प्र. सा./त. प्र / १२२ यश्च तस्य तथाविधपरिणाम सा जोवमय्येव क्रिया सर्वद्रव्याणां परिणामलक्षणं क्रियाया आत्ममयत्वाभ्युपगमात् । जो उस ( आत्मा ) का तथाविध परिणाम है वह जोवमयी हो क्रिया है, क्योंकि सर्व द्रव्योकी परिणाम लक्षण क्रिया आत्ममयतासे स्वीकार की गयी है । प्र. सा. १९६२ क्रिया हि तावच्चेतनस्व पूर्वोतरदशानिशिष्टचैतन्यपरिणामारिका आमाको किया चैतनको पूर्वोतर दशासे विशिष्ट चैतन्य परिणाम स्वरूप होती है । ४. कर्म कारक के प्राप्य विकार्य आदि तीन भेदका निर्देश रा. वा /६/९/२/२०१ / १७ निर्वस्य विकार्य प्राप्यं चेति तव त्रितयमपि कर्तुरन्यत् ।यह कर्म कारक निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य तीन प्रकारका होता है। ये तीनों कर्म कर्तासे भिन्न होते हैं । ससा / आ / ७६ यतो यं प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्य च व्याप्यलक्षणं पुद्गलपरिणामं कर्म स्वयमन्यपिकेन वादिमध्यान्तेषु व्याप्य तं गृह्णता तथा परिणमता तथोत्पद्यमानेन च क्रियमाणं... ...। प्राप्य, विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा, व्याप्यलक्षणवाला पुद्गलका परिणाम स्वरूप कर्म (कर्ताका कार्य ) उसमें पुद्गल द्रव्य स्वयं अन्तर्व्यापक होकर, आदि मध्य और अन्तमे व्याप्त होकर उसे ग्रहण करता हुआ, उस रूप परिणमन करता हुआ, और उस रूप उत्पन्न होता हुआ, उस पुद्गल परिणामको करता है। भावार्थ पं० जयचन्द्र - सामान्यतया कर्ताका कर्म तीन प्रकारका कहा गया है-निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य कर्ताके द्वारा जो पहिले न हो ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कान कर्म है जैसे पट बनाना) कसके द्वारा पदार्थ में विकार - (परिवर्तन ) करके जो कुछ किया जाये वह कर्ताका विकार्य कार्य है (जैसे दूध से दही बनाना) कर्ता जो नया उत्पन्न नहीं करता, तथा विकार करके भी नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है ( अर्थात् स्वयं उसकी पर्याय ) वह कर्ताका प्राप्य कर्म है। टिप्पणी- अन्य प्रकार से भी इन तीनोंका अर्थ भासित होता हैद्रव्यकी पर्याय दो प्रकारकी होती है- स्वाभाविक व विभाविक । विभावक भी दो प्रकारकी होती है- प्रदेशात्म द्रव्यपर्याय तथा भावात्मक गुणपर्याय स्वाभाविक एक हो प्रकारकी होती है-पट् गुण हानिवृद्धिरूपा तहाँ प्रदेशात्म विभावद्रव्य पर्याय द्रव्प्रका न कर्म है, क्योंकि निर्वर्तनका व्यवहार पदार्थ के भा० २-३ N Jain Education International १७ २. निश्चय व व्यवहार कर्ता कर्म भाव निर्देश संस्थान आदि बनानेमे होता है जैसे घट बनाना। विभाव गुण पर्याय द्रव्यका विकार्य कर्म है, क्योंकि अन्य द्रव्यके साथ सयोग होनेपर गुण जो अपने स्वभावसे च्युत हो जाते है उसे ही विकार कहा गया है - जैसे दूध से दही बनाना । और स्वभाव पर्यायको प्राप्य कर्म कहते है. क्योंकि प्रतिक्षण वे स्वत' द्रव्यको प्राप्त होती रहती हैं। न उनमें कुछ प्रदेशात्मक परिस्पन्दनकी आवश्यकता होती है और न अन्य द्रव्योंके संयोगकी अपेक्षा होती है। २. निश्चय व व्यवहार कर्ता कर्म भाव निर्देश १. निश्चय कर्ता कर्म व अधिकरणमें अभेद ससा / आ /८५ इह खलु क्रिया हि तावदखिलापि परिणामलक्षणतया न परिणामतोऽस्ति भिज्ञा परिणामोऽपि परिणामपरिणामिनोरभिन्नवस्तुत्वात्परिणामिनो न भिन्नस्ततो या काचन क्रिया किल सकलापि सा क्रियावतो न भिन्नेति जगत्मे जो क्रिया है सो सब ही परिणाम स्वरूप होनेसे वास्तव में परिणामसे भिन्न नही है । परिणाम भी परिणामोसे भिन्न नहीं है, क्योंकि परिणाम और परिणामो अभिन्न वस्तु हैं, इसलिए जो कुछ क्रिया है वह सब ही क्रियावानसे भिन्न नहीं है । प्र. सा / प्र / १६ यथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रेण वा कालेन वा कार्तस्वरात् पृथगनुपलभ्यमाने कर्तृकरणाधिकरणरूपेण पीततादिगुणानां कुण्डलादिपर्यायाणां च स्वरूपमुपादाय प्रवर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्य यदस्तित्वं कार्तस्वरस्य स स्वभावः तथा हि द्रव्येण वा क्षेत्रण वा कालेन वा भावेन वा द्रव्यात्पृथगनुपलभ्यमाने कर्तृ करणाधिकरणरूपेण गुणाना पर्यायाच स्वरूपमुपादाय प्रर्तमानप्रवृत्तियुक्तस्यस्ति द्रव्यस्य स स्वभाव : जैसे द्रव्य क्षेत्र काल या भावसे स्वर्णसे जो पृथक् दिखाई नहीं देते. कर्ता-करण अधिकरण रूपसे पीतवादि गुणोंके और कुण्डलादि पर्यायोंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान सुवर्णका जो अस्तित्व है वह उसका स्वभाव है; इसी प्रकार द्रव्यसे, क्षेत्र से, कालसे या भावसे जो द्रव्य से पृथक् दिखाई नही देते, कर्ताकरण अधिकरण रूपसे गुणोके और पर्यायोंके स्वरूपको धारण करके प्रवर्तमान जो द्रव्यका अस्तित्व है । वह स्वभाव है। प्र. सा /त.प्र / ११३ तत परिणामान्यत्वेन निश्चीयते पर्यायस्वरूपकर्तृकरणाधिकरणभृतत्वेन पर्यायेभ्योऽपृथग्भूतस्य द्रव्यस्यासदुत्पाद. | = इसलिए पर्यायोंकी ( व्यतिरेकी रूप ) अन्यताके द्वारा द्रव्यकाजो कि पर्यायोंके स्वरूपका कर्ता, करण और अधिकरण होनेसे अपृथक है, असत् उत्पाद निश्चित होता है । २. निश्चय कर्ता कर्म व करण में अभेद प्र.सा /मू / १२६ कत्ता करणं कम्मं फलं च अप्प त्ति णिच्छिदो समणो । परिणमदि व अण्णं जदि अप्पाणं लहदि सुद्ध । १२६ । यदि भ्रमण कर्ता, कर्म, करण और फल आत्मा है' ऐसा निश्चय वाला होता हुआ, अन्य रूप परिणमित नहीं ही हो तो वह शुद्ध आत्माको उप लब्ध करता है । - प्र. सा.// १५ समस्तज्ञेयान्तर्व विज्ञानस्वभावमात्मानमारमा पयोगप्रसादादेवासादयति । समस्त ज्ञेयोके भीतर प्रवेशको प्राप्त ज्ञान जिसका स्वभाव है, ऐसे आत्माको आत्मा शुद्धोपयोगके ही ( आत्मा के ही ) प्रसादसे प्राप्त करता है। प्र. सा./त.प्र./३० संवेदनमप्यात्मनोऽभिन्नत्वात् कर्जनात्मतामापन करणक्षितानामापन्न करानामधन कार्या समस्तयाकारानभिव्याप्य वर्तमान कार्यकारणत्वेनोपचयं ज्ञानममिभिवर्तत इत्यमानं संवेदन (शुद्धोपयोग ) आकार व भी आमा अभिन्न होने का अंश अमताको प्राप्त होता हुआ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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