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________________ गद्यकथाकोश २३८ गांधार बलसे नामकर्म द्वारा जो पर्याय निष्पन्न की गयी है, उसीमें गति शब्दका प्रयोग किया जाता है। गति नामकर्म के उदयके अभावके कारण सिद्धगति अगति कहलाती है। अथवा एक भवसे दूसरे भवको संक्रान्तिका नाम गति है, और सिद्ध गति असंक्रान्ति रूप है। गद्यकथाकोश-दे० कथाकोश। गचितामणि-आ. वादीभसिंह ओडयदेव ( ई० ७७०-८६०) द्वारा रचित यह ग्रन्थ संस्कृत गद्ममें रचा गया है और जीवधर चारित्रका वर्णन करता है। (ती./३/३३)। गमन-दे० गति/१॥ गरिमा ऋद्धि-दे० ऋद्धि/३ । गरुड़-१. सनत्कुमार स्वर्गका चौथा पटल-दे० स्वर्ग/१/३२. शान्ति नाथ भगवान्का शासक यक्ष-दे० यक्ष । तीर्थकर/५/३ । घ.१३/५.१.१४०/३६१/४ गरुडाकारविकरणप्रिया. गरुडा । -जिन्हें गरुड़के आकाररूप विक्रिया करना प्रिय है वे गरुड़ (देव) कहलाते हैं। ज्ञा./२१/१५ गगनगोचरामूर्तजयविजयभुजङ्गभूषणोऽनन्ताकृतिपरमविभुनभस्तलनिलीनसमस्ततत्त्वात्मकः समस्तज्वररोगविषधरोड्डामरडाकिनीग्रहयक्षकिन्नरनरेन्द्रारिमारिपरयन्त्रतन्त्रमुद्रामण्डलज्वलनहरिशरभशार्दूलद्विपदैत्यदुष्टप्रभृतिसमस्तोपसर्ग निर्मूलनकारिसामर्थ्य परिकलितसमस्तगारुडमुद्राडम्बरसमस्ततत्वात्मक सन्नात्मै व गारुडगीर्गोचरत्वमवगाहते। इति वियत्तत्त्वम् । = आकाशगामी दो सर्प है भूषण जिसके; आकाशवत सर्वव्यापक; लीन हैं पृथिवी, वरुण, वह्नि व वायुनामा समस्त तत्त्व जिसमें; (नीचेसे लेकर घुटनों तक पृथिवी तत्त्व, नाभिपर्यंत अपतत्त्व, हृदय पर्यत वह्नि तत्त्व और मुख में पवनतत्त्व स्थित है ) रोग कृत, सर्प आदि विषधरो कृत, कुत्सित देवी. देवताओंकृत, राजा आदि शत्रुओकृत, व्याघ्रादि हिल पशुओं कृत, समस्त उपसर्गोंको निर्मूलन करनेवाला है मामर्थ्य जिसका, रचा है समस्त गारुडमण्डलका आडम्बर जिसने तथा पृथिवी आदि तत्त्वस्वरूप हुआ है आत्मा जिसका ऐसा गारुडगीके नामको अवगाहन करनेवाला गारुड तत्त्व आत्मा ही है। इस प्रकार वियत्तत्त्वका कथन हुआ (और भी-दे० ध्यान/४/५)। गरुडध्वज-विजयाकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर। गरुडपञ्चमी व्रत-पाँच वर्ष तक प्रतिवर्ष श्रावण शु.५ को उपवास करना । ॐ ह्रीं अर्हद्भ्यो नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप्य । गरुडेन्द्र-(प.पु./३६/२३०-३१) वंशधर पर्वतपर पूर्व भवके पुत्र देश भूषण व कुलभूषण मुनियोंका राम लक्ष्मण द्वारा उपसर्ग निवारण किया जानेपर गरुडेन्द्रने उनको संकटके समय रक्षा का बर दिया। गर्षि-दे० परिशिष्टा२। गर्तपूरण वृत्ति-साधुकी भिक्षावृत्तिका एक भेद-दे० भिक्षा २/७ गर्दतोय-१. लौकान्तिक देवोंका एक भेद (दे० लोकांतिक ) । २. उनका लोकमें अवस्थान-दे० लोक/७ । गर्दभिलल-मगधदेशकी राज्य वंशावलीके अनुसार यह शक जातिका एक सरदार था, जिसने मौर्यकाल में ही मगधदेशके किसी भागपर अपना अधिकार जमा लिया था। इसका असली नाम गन्धर्व था। गर्द भी विद्या जाननेके कारण गर्द भिल्ल नाम पड़ गया था। इसी कारण ह.पू./६०/४८६ में गर्दभ शब्द का पर्यायवाची रासभ शब्द इस नामके स्थान पर प्रयोग किया गया है। इन का समय बी.नि. ३४५४४५, (ई.पू. १८२-८२) है । ( इतिहास/३/४) परन्तु ( क. पा./२/६/ पं. महेन्द्र कुमार) के अनुसार वि. पू. या १३ ई. पू. १३ अनुमान किया जाता है। गर्भत.सू./२/३३ जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ।३३। - जरायुज अण्डज व पोतज जीवोंका गर्भजन्म होता है। स. सि./२/३१/१८७/४ स्त्रिया उदरे शुक्रशोणितयोर्गरण मिश्रणं गर्भः। मात्रुपभुक्ताहारगरणाद्वा गर्भः। =स्त्रीके उदरमें शुक्र और शोणितके परस्पर गरण अर्थात् मिश्रणको गर्भ कहते हैं। अथवा माताके द्वारा उपभुक्त आहारके गरण होनेको गर्भ कहते हैं। (रा. वा./२/३१) २-३/१४०/२५)। गो.जी./जी.प्र./८३/२०१/१ जायमानजीवेन शुक्रशोणितरूपपिण्डस्य गरणं-शरीरतया उपादानं गर्भः। -माताका रुधिर और पिताका वीर्यरूप पुद्गलका शरीररूप ग्रहणकरि जीवका उपजना सो गर्भ जन्म है। गर्भज जीव-दे जन्म/२। गर्भाधान क्रिया-दे० संस्कार/२। गर्भान्वय की ५३ क्रियाएँ-(दे० संस्कार /२) । गर्व-दे० गारव । गहण-१. निन्दन गर्हण ही सम्यग्दृष्टिका चारित्र है-दे० सम्यग दृष्टि/५ । २. स्व निन्दा-दे० निन्दा। गहीं-(स. सा./ar../३०६)-गुरुसाक्षिदोषप्रकटन गरे । = गुरुके समक्ष अपने दोष प्रगट करना गर्दा है। प.ध./उ./४७४ गर्हणं तत्परित्यागः पञ्चगुरिमसाक्षिकः। निष्प्रमादतया नूनं शक्तितः कर्महानये ।४७४ - निश्चयसे प्रमाद रहित होकर अपनी शक्तिके अनुसार उन कर्मोके क्षयके लिए जो पंचपरमेष्ठीके सामने आत्मसाक्षिपूर्वक उन रागादि भावोंका त्याग है वह गर्दा कहलाती है। गहित वचन-दे० वचन। गलितावशेष-गलितावशेष गुणश्रेणी आयाम-दे० संक्रमण/८ । गवेषणा-ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा-और मीमांसा, ये ईहाके पर्याय नाम हैं। -दे०-ऊहा ध.१३/१,५,१८/२४२/१० गवेष्यते अनया इति गवेषणा । -जिस (ज्ञान) के द्वारा गवेषणा की जाती है वह गवेषणा है। गव्यूति-क्षेत्रका एक प्रमाण-दे० गणित/I/१ अपर नाम कोश है। गांगय-(पा.पु /सर्ग/श्लोक) इनका अपर नाम भीष्माचार्य था और राजा पाराशरका पुत्र था (७/८०)। पिताको धीवरकी कन्यापर आसक्त देख धीवरकी शर्त पूरी करके अपने पिताको सन्तुष्ट करनेके लिए आपने स्वयं राज्यका त्याग कर दिया और आजन्म ब्रह्मचर्य से रहनेको भीष्म प्रतिज्ञा की (७/१२-१०६)। कौरवों तथा पाण्डवोंको अनेको उपयोगी विषयोंकी शिक्षा दी (८/२०८)। कौरवों द्वारा पाण्डवोंका दहन सुन दु:खी हुए (१२२१८६) । अनेकों बार कौरवोंकी ओरसे पाण्डवोके विरुद्ध लड़े। अन्तमें कृष्ण जरासन्ध युद्ध में राजा शिखण्डी द्वारा मरणासन्न कर दिये गये। तब उन्होंने जीवनका अन्त जान सन्यास धारण कर लिया (१६/२४३)। इसी समय दो चारण मुनियोके आजानेपर सल्लेखनापूर्वक प्राण त्याग ब्रह्म स्वर्ग में उत्पन्न हुए (१६/२५४-२७१) । गांधार-१. एक स्वर-दे० स्वर । २. वर्तमान कन्धार या अफगानिस्तान देश। यह देश सिन्धु नदी व कश्मीरके पश्चिममें जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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