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________________ गणित २२२ II. गणित विषयक प्रक्रियाएं a . La १२ संख्यात rछे छे छे: धनलोककी अर्धच्छेद : असंख्यात | सागरकी अर्धच्छेद रा० rछेछेछ३ :जगश्रेणीको अर्धच्छेद रा० हानि गुणित समय प्रबद्ध छे छे छ। जगत्पतरकी अर्थच्छेद रा० : अन्तर्मुहूर्त, संरख्यात आवली ३. संकलनकी प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाणविषै जोड़िये सो संकलन कहिये ।५६-४। (जिसमे जोडा जाये उसे मूल राशि कहते हैं )। जोड़ने योग्य राशिका नाम धन है। मूलराशिको तिस करि अधिक कहिए ।५६-१६ गो.जी./अर्थ संदृष्टि-जोडते समय धनराशि ऊपर और मूलराशि नीचे लिखी जाती है। (जब कि अगरेजी विधिमें मूलराशि ऊपर और धनराशि नीचे लिखकर जोडा जाता है)। यथा १०००-१०००+५=१००५ या १०००-१०००+५१००५ ४. कर्मोकी स्थिति व अनुमागकी अपेक्षा सहनानियाँ (ल. सा. की अर्थसंदृष्टि) अचलावली या अनुभाग विषे अविभाआबाधा काल गीप्रतिच्छेदनिके प्रमाण की समानता लिये एक : क्रमिक हानिगत निषेक, उदयावली, एक वर्ग वर्गणा विषै उच्छिष्टावली पाइये तिस वर्गणाकी संदृष्टि : कर्म स्थिति (आमाधावलीके वर्गनिका प्रमाण ऊपर निषेक रचना) वर्गणाविषै क्रमतै हानिरूप होय। : आवाधा काल+ उदयावली उपरितन स्थिति+-उच्छिष्टावली कर्मानुभाग ४. व्यकलनकी प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाण विषै घटाइये तहां व्यकलन कहिये ।५६-21 (जिस राशिमेंसे घटाया जाये उसे मूलराशि कहते हैं)। घटावने योग्य राशिका नाम ऋण है। मूल राशिको तिसकरि हीन, वा न्यून, वा शोधित वा स्फोटित कहिए ६०-२॥ गो.जी./अंक संदृष्टि-घटाते समय निम्न विधियोंके प्रयोगका व्यवहार II. गणित विषयक प्रक्रियाएँ १. परिकर्माष्टक गणित निर्देश १. अंकोंकी गति वाम भागसे होती है गो.जी./पूर्व परिचय/६०/१८ अङ्कानां वामतो गतिः। - अंकनिका अनुक्रम बाई तरफसेती है। जैसे २५६ के तीन अंकनिविषै छक्क आदि (इकाई) अंक, पांचा दूसरा ( दहाई ) अंक, दूवा अंत (सैंकड़ा) अंक कहिये। ( यद्यपि अंकोंको लिखते समय या राशिको मुंहसे बोलते समय भी अंक बायेसे दायेको लिखे या बोले जाते हैं जैसे दो सौ छप्पनमें दोका अंक अन्तमें न बोलकर पहिले बोला या लिखा गया, परन्तु अक्षरों में व्यक्त करनेसे उपरोक्त प्रकार पहिले इकाई फिर दहाई रूपमें इससे उलटा क्रम ग्रहण किया जाता है।) २. परिकर्माष्टकके नाम निर्देश गो.जी./पूर्व परिचय/पृ.पं. परिकर्माष्टकका वर्णन इहाँ करिए हैं। तहाँ संकलन, व्यकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, वर्गमूल, घन और धनमूल ए आठ नाम जानने 1५८-१७ अब भिन्न परिकर्माष्टक कहिये हैं। तहां अंश और हारनिका संकलनादि ( उपरोक्त आठौं) जानना (दे० आगे नं०१०)। अब शून्य परिकर्माष्टक कहिए है। (बिन्दीके संकलनादि उपरोक्त आठों शून्य परिकष्टिक कहलाते हैं। (दे० आगे नं० १९) ६८-१७४ (१)-(१००४)- १०००-५-६६५॥ (२)-(क)-एक घाट कोटि। (३)-(११)-एक घाट लक्ष ॥ (४)- )-एक घाट लक्ष । (१) (ल-२)-२ घाट लक्ष ॥ (६) (लmm२)-२ घाट लक्ष । (७)(७)-(ख-)-किचिद्गन अनन्त ॥ (८)-(ल-२)-(ल-२-२) ॥ (६)-(ल-५)-५ घाट लक्ष ॥ (१०)-(6)५ घाट लक्ष । (११)- (छे व छे) - पत्यकी अर्धच्छेदराशिमें-से पल्यकी वर्गशलाकाराशि घटाओ। ५. गुणकार प्रक्रिया गो.जी./पूर्व परिचय/पृ./पं. किसी प्रमाणको किसी प्रमाणकरि गुणिए तहां गुणकार कहिए ।५8-७। गुणकारविष जाको गुणिए ताका नाम गुण्य कहिए । जाकरि गुणिए ताका नाम गुणकार या गुणक कहिए। गुण्य राशिको गुणकार करि गुणित, हत वा अभ्यस्त व धनत कहिए है। ...गुणनेका नाम गुणन वा हनन वा धात इत्यादि कहिए है ६०-४। गो.जी./अर्थसंदृष्टि-गुणा करते समय गुणकारको ऊपर तथा गुण्यको नीचे लिख निम्न प्रकार स्खण्डों द्वारा गुणा करनेका व्यवहार था। यथा २५६ १४२-२ ६४२-१२ ३२ ४००६ ४०० १x६= ६ ६x६-३६ २५६ १६४ २५६ -४०६६ ३२५६ ४००६ । फल ४०६६ ६. भागहार प्रक्रिया गो.जी./पर्व परिचय/प./पं.किसी प्रमाणको किसी प्रमाणका जहाँ भाग दीजिए तहाँ भागहार कहिए।५६-८] जा विर्ष भाग दीजिए ताका जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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