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________________ करण (गो.जी. / मू. ५१ / १३६) । २. करण शब्दका अर्थ परिणाम है, और ort पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा आदिसे लेकर प्रत्येक समय में क्रम से मढते हुए सवातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थानके अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीमोको छोड़ कर अन्य समयवर्ती जीवोंके द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं अर्थात् विवक्षित समयम जीवोंके परिणामोंसे भिन्न समयी जीवों के परिणाम असमान अर्थात विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होनेवाले अपूर्व परिणामोंको पूर्वकरण कहते है (यहाँ अपूर्वकरण नामक गुणस्थान की अपेक्षा कथन किया गया है, परन्तु सर्वत्र ही अपूर्वकरणका ऐसा क्षण जानना) (रा. वा./६/१/१२१५८६/४ ) ( ल. सा. मू./५१/८३) । और भी ० अपूर्वकरण २. अपूर्वकरणका काल ध. ६/१०६ ८.४/२२०/१ अपुत्रकरणद्धा अंतोमुहुत्तमेत्ता होदिति । अपूर्व काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है। (मो.जी. २३/१४१) (गी. क /मू./११०/२०१४ 4 ३. अपूर्वकरणमें प्रतिसमय सम्भव परिणामोंकी संख्या ध. ६/१-१-८४/२२०/१ अपुव्यकरणढा अंतीमुत्तमेत्ता होदि सि अंतमुत्तमे समयानं पढमं रचणा कायया । तत्थ पञ्चमसमयपाओविस ही पमाणमसंलेजा लोगा। विदियसमयपाओग्गविसोहीण पमाणमसंखेज्जा लोगा । एवं णेयव्वं जाव चरिमसमओ त्ति = पूर्वकरणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है, इसलिए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण समयोंकी पहले रचना करना चाहिए। उसमें प्रथम समयके योग्य विशुद्धियोंका प्रमाण असंख्यात लोक है, दूसरे समयके योग्य विशुद्धियोंका प्रमाण असंख्यात लोक है। इस प्रकार यह क्रम अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। (यहाँ अनुकृष्टि रचना नहीं है ) । गो.जी./मू./५३/१४९ अंतोमुहुत्तमे से पडियसमयमसंखलोग परिणामा । कमउड हा पुध्वगुणे अनुकर ठीधि जिसमे ॥ ५३ अन्तर्मुहूर्त मात्र जो पूर्वकरणका काल तीहिविषे समय-समय प्रति क्रमतें एक-एक बंधा असंख्यात लोकमात्र परिणाम है। तहाँ नियमकरि पूर्वापर समय सम्बन्धी परिणामनिकी समानताका अभाव अनुकृष्टि विधान नाही है। - इहाँ भी अंक संदृष्टि करि दृष्टांत मात्र प्रमाण कल्पनाकरि रचनाका अनुक्रम दिखाये है- अपूर्व करण के परिणाम ४०६६; अपूर्वकरणका काल - समय; संख्यातका प्रमाण ४: चय १६. । इस प्रकार प्रथम समयसे अन्तिम आठवें समय तक क्रमसे एक एक (१६) मते- ४३६४०२४०८,०४,२०५३६.५४९ और ५६८ परिणाम हो है । सर्वका जोड़ - ४०६६ (गो.क./मू./१०/२०१४ ) । ४. परिणामों की विशुद्धता में वृद्धिक्रम घ. ६/१.१-८/४/२२०/४ सोहि विदिवसमयसी विसेसोहियाओ । एवं वेदव्त्रं जाव चरिमसमओत्ति । बिसेसो पुण अंतोमुत्तपडिभागिओ । एदेसि करणार्ण तिब्व-मंददाए अप्पात्रहुगं उच्चदे । तं जधा - अपुव्यकरणस्य पढमसमयजहण विसोही थोवा । तत्व उसाहो अतगुणा विदियमा बसो अनंतगुणा । तत्थेन उद्धस्सिया विखोहरे अगुणा तदियसमयजहणिया विसोही गुथेकसिया विसोही अनंतगुणा एवं णेपव्वं जाव अपुत्रकरणचरिमसमओ त्ति - प्रथम समयको विशुद्धियोसे दूसरे समयकी विशुद्धियों विशेष अधिक होती हैं। इस प्रकार यह क्रम अपूर्व करण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए। यहाँपर विशेष प्रतिभागी है। इन करलोकी, अर्थात् पूर्वकरण कालके विभिन्न समयवर्ती परिणामको तीन Jain Education International १२ ५. अपूर्वकरण निर्देश मन्दताका अन्य कहते है वह इस प्रकार है-अपूर्वकरणकी प्रथम समयसम्बन्धी जघन्य विशुद्धि सबसे कम है । वहाँ पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है । प्रथम समयकी उत्कृष्ट विशुद्धिसे द्वितीय समयकी जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणित है। पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है तृतीय मी जय विशुद्ध द्वितीय समयको उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है। वहाँ पर ही उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणित है ।... इस प्रकार यह क्रम पूर्वकरण के अन्तिम समय तक ले जाना चाहिए (त.सा./मू./ ५२०४) (गो. जी. जी. २/५३/१४२) (गो.क.सू.ब.जी.प्र. १९१०/९०६४) (रा.वा./१/१/१२/२८६/२)। ५. अपूर्वकरण के परिणामों की संदृष्टि व यन्त्र कोशकार - अपूर्वकरणके परिणामोंकी संख्या व विशुद्धियोंको दर्शाने लिए निम्न प्रकार संदृष्टि की जा सकती है ६८ ५५२ ५३६ ५२० ५०४ ३ ४८८ २ ४७२ १ ४५६ ४०१६ ७ प्रतिसमय वर्ती कुल परिणाम ५ ४ ज. से. उ, विशुद्धियाँ ४४४६-५०१६ ३८६७-४४४८ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ३३६१-३८१६ २४१-३३६० २३३७-२८४० १०४१-२१३६ Pre-paye १२१-१३७६ सर्व परिणाम कुल परिणाम - ४०६६, अनन्त गुणी वृद्धि - १ चय सर्व जघन्य परिणाम = अधकरणके उत्कृष्ट परिणाम ११६ से आगे अनन्तगुणा- १२१ ॥ यहाँ एक ही समय जीवोंके परिणामों में यद्यपि समानता भी पायी जाती है, क्योंकि एक ही प्रकारकी त्रिशुद्धिवाले अनेक जीव होने सम्भव है । और विस्टशता भी पायी जाती है, क्योंकि एक समययत परिणाम विशुद्धियोंकी संख्या असंख्यात लोक प्रमाण है । परन्तु भिन्न समयवर्ती जोवोके परिणामोंमें तो सर्वथा असमानता ही है, समानता नहीं; क्योंकि यहाँ अधःकरणवत् अनुकृष्टि रचनाका अभाव है । ६. अपूर्वकरणके चार आवश्यक स.सा./मू./१३-५४/०४ गुणमेढीगुणसं कमठिदिरसा अपुन करणादो। गुणसंकमेण सम्मा मिस्सान पुरणोति हवे ॥ ५३० ठिदि बंबोत्सरणं ग अथावत्तावरणोति हवे ठिदिबंधदिक्कीरणकाला समा होति ॥५४॥ अपूर्व करणके प्रथम समय लगाय यावत् सम्यक्खमोहनी मिश्रमोहनीका पूरणकाल, जो जिस काल विगुणकरि ferent सम्यक्यमोहनी मिश्रमोहनी रूप परिणमा है, तिस कालका अन्त समय पर्यन्त १. गुणश्रेणी, २. गुणसंक्रमण, ३. स्थिति खण्डन और ४, अनुभाग खण्डन ए च्यार आवश्यक हो हैं । ५३॥ बहुरि स्थिति बंधापसरण है सो अध प्रवृत्त करणका प्रथम समयतें लगाय तिस गुणसंक्रमण पूरण होनेका काल पर्यंत हो है । यद्यपि प्रायोग्य सन्धितें ही स्थितिबंधासरण हो है. तथापि प्रायोग्य लब्धिके सम्यक्त्व होनेका अनवस्थितपना है। नियम नाहीं है । तातें ग्रहण न कीया । बहुरि स्थिति बंधा सरण काल अर स्थितिकांडकोत्करणकाल ए दो समान अन्तर्मुहूर्त मात्र है (विशेष देखो अपकर्षण / ३, ४ ) ( यद्यपि प्रथमसम्यक्त्वका आश्रय करके कथन किया गया है पर सर्वत्र ये चार आवश्यक यथासम्भव जानना ।) (ध. ६/१, ६-८ ५/२२४/१ तथा २२७/७ ) (क्ष. सा./मू./३६७/४८७), गो. जी./जी ५४/९४७)। www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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