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________________ क्षुल्लक भव ग्रहण or wrm-sur १ भेद व लक्षण क्षेत्र सामान्यका लक्षण। क्षेत्रानुगमका लक्षण। क्षेत्र जीवके अर्थमें। क्षेत्रके भेद (सामान्य विशेष)। लोककी अपेक्षा क्षेत्रके भेद । क्षेत्रके भेद स्वस्थानादि। निक्षेपोंकी अपेक्षा क्षेत्रके भेद । स्वपर क्षेत्रके लक्षण। सामान्य विशेष क्षेत्रके लक्षण । क्षेत्र लोक व नोक्षेत्रके लक्षण । स्वस्थानादि क्षेत्रपदोके लक्षण । समुद्वातोमें क्षेत्र विस्तार सम्बन्धी-दे० वह वह नाम । निष्कुट क्षेत्रका लक्षण। निक्षेपोंरूप क्षेत्रके लक्षण -दे० निक्षेप। नोआगम क्षेत्रके लक्षण। १६. क्षुल्लकको भगवान्की पूजा करनेका निर्देश ला,सं ७/६६ किच गन्धादिद्रव्याणामुपलब्धौ समिभिः । अर्ह द्विम्बादिसाधूनां पूजा कार्या मुदात्मना ।६६ = यदि उस क्षुल्लक श्रावकको किसी साधर्मी पुरुषसे जल, चन्दन, अक्षतादि पूजा करनेकी सामग्री मिल जाये तो उसे प्रसन्नचित्त होकर भगवान् अर्हन्तदेवका पूजन करना चाहिए। अथवा सिद्ध परमेष्ठी वा साधुकी पूजा कर लेनी चाहिए । १७. साधकादि क्षुल्लकों का निर्देश व स्वरूप ला.सं./9/७०-७३ किच मात्र साधका. केचित्केचिद् गूढालया' पुनः । वाणप्रस्थारख्यका. केचित्सर्वे तद्वेषधारिण. १७०। क्षुल्लकीव क्रिया तेषां नात्युग्रं नातीव मृदु । मध्यावर्तिवतं तद्वत्पञ्चगुर्वात्मसाक्षिकम १७१। अस्ति कश्चिद्विशेषोऽत्र साधकादिषु कारणात् । अगृहीतवता' कुर्युव ताभ्यास व्रताशया १७२। समभ्यस्तवता केचिद् व्रतं गृह्णन्ति साहसात् । न गृह्णन्ति वत केचिद् गृहे गच्छन्ति कातरा' १७३। ८ क्षुल्लक श्रावकोके भी कितने ही भेद है। कोई साधक क्षुल्लक है, कोई गूढ क्षुल्लक होते है और कोई बाणप्रस्थ क्षुल्लक होते हैं। ये तीनो ही प्रकारके क्षुल्लक वल्लकके समान वेष धारण करते हैं ७०। ये तीनो हो क्षुल्लककी क्रियाओका पालन करते है। ये तीनो ही न तो अत्यन्त कठिन व्रतो का पालन करते है और न अत्यन्त सरल, किन्तु मध्यम स्थिति के व्रतोका पालन करते है तथा पञ्च परमेष्ठीकी साक्षीपूर्वक व्रतोको ग्रहण करते है 1७१। इन तीनो प्रकारके क्षुल्लकोंमें परस्पर विशेष भेद नही है। इनमेसे जिन्होने क्षुल्लकके व्रत नही लिये हैं किन्तु वत धारण करना चाहते हैं, वे उन नतोका अभ्यास करते है ।७२। तथा जिन्होंने व्रतोको पालन करनेका पूर्ण अभ्यास कर लिया है वे साहसपूर्वक उन व्रतोको ग्रहण कर लेते है। तथा कोई कातर और असाहसी ऐसे भी होते है जो चतोको ग्रहण नही करते किन्तु घर चले जाते है ।७३। १८. क्षुल्लक दो भेदोंका इतिहास व समन्वय वसु.श्रा./प्र /पृ. ६२ जिनसेनाचार्यके पूर्व तक शूद्रको दीक्षा देने या न देने का कोई प्रश्न न था। जिनसेनाचार्य के समक्ष जब यह प्रश्न आया तो उन्होने अदीक्षा और दीक्षार्ह कुलोत्पन्नोका विभाग किया।... क्षुल्लकको जो पात्र रखने और अनेक घरोसे भिक्षा लाकर खानेका विधान किया गया है वह भी सम्भवतः उनके शूद्र होनेके कारण ही किया गया प्रतीत होता है। * ऐलकका स्वरूप-दे० ऐलक । ११. क्षुल्लक व ऐलक रूप दो भेदोंका इतिहास व समन्वय बसु./श्रा /प्र/६३ उक्त रूप वाले क्षुल्लकोको किस श्रावक प्रतिमामे स्थान दिया जाये, यह प्रश्न सर्वप्रथम वसुनन्दिके सामने आया प्रतीत होता है, क्योंकि उन्होने ही सर्वप्रथम ग्यारहवी प्रतिमाके भेद किये है। इनसे पूर्ववर्ती किसी भी आचार्य ने इस प्रतिमाके दो भेद नहीं किये। १४वौं १५वी शताब्दी तक (वे) प्रथमोत्कृष्ट और द्वितीयोत्कृष्ट रूपसे चलते रहे । १६वी शताब्दीमे पं० राजमल्लजीने अपनी लाटी संहितामे सर्व प्रथम उनके लिए क्रमश क्षुल्लक और ऐलक शब्दका प्रयोग किया। क्षुल्लक भव ग्रहण-दे० भव । क्षेत्र-मध्य लोकस्थ एक-एक द्वीपमे भरतादि अनेक क्षेत्र है। जो वर्षधर पर्वतोके कारण एक-दूसरेमे विभक्त है-दे० लोक/७ । क्षेत्र-क्षेत्र नाम स्थानका है। किस गुणस्थान तथा मार्गणा स्थानादि वाले जीव इस लोकमे कहाँ तथा क्तिने भागमे पाये जाते हैं, इस बात का ही इस अधिकारमे निर्देश किया गया है । क्षेत्र सामान्य निर्देश क्षेत्र व अधिकरणमें अन्तर । क्षेत्र व स्पर्शनमे अन्तर। वीतरागियों व सरागियोके स्वक्षेत्रमे अन्तर । X** Mr orm or * क्षेत्र प्ररूपणा विषयक कुछ नियम गुणस्थानोरे सम्भव पदोंकी अपेक्षा । गतिमार्गणामे सम्भव पदोंकी अपेक्षा । नरक, तिर्यच, मनुष्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष, वैमानिक व लोकान्तिक देवोंका लोकमें अवस्थान । -दे० वह वह नाम । जलचर जीवोका लोकमें अवस्थान ।-दे० तिर्यंच/३ । भोग व कर्मभूमिमें जीवोका अवस्थान -दे० भूमि/८। मुक्त जीवोका लोकमें अवस्थान -दे० मोक्ष/५ । इन्द्रियादि मार्गणाआसे सम्भव पदोकी अपेक्षा--- १ इन्द्रियमार्गणा, २ कार्यमार्गणा; ३ योग मार्गणा, ४ वेद माणा, ५ ज्ञानमार्गणा, ६ संयम मार्गणा; ७ सम्यक्त्व भार्गणा, ८ आहारक मार्गणा। एकन्द्रिय जीवोंका लोकमे अवरथान -दे० स्थावर । *विकलेन्द्रिय व पञ्चन्द्रिय जीवोंका लोकमें अवस्थान । -दे० तिर्यश्च/31 * | तेज व अपकायिक जीबोका लोकमें अवरथान । -दे० काय/२/५ * | बस, स्थावर, सूक्ष्म, वादर, जीवोंका लोकमे अवस्थान -दे० वह वह नाम । ४ | मारणान्तिक समुद्घातके क्षेत्र सम्बन्धी दृष्टिभेद । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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