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________________ क्षय १८१ ४. क्षायिक भाव निर्देश मान, माया और लोभ इन आठ प्रकृतियों का एक साथ क्षय करता है यह सत्कर्म प्राभृतका उपदेश है। किन्तु कषाय प्राभृतका उपदेश तो इस प्रकार है कि पहले आठ कषायोके क्षय हो जानेपर पीछेसे एक अन्तर्मुहूर्त में पूर्वोक्त सोलह कर्म प्रकृतियाँ क्षयको प्राप्त होती है। ये दोनों ही उपदेश सत्य हैं, ऐसा कितने ही आचार्योंका कहना है। किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नहीं होता, क्योंकि, उनका ऐसा कहना सूत्रसे विरुद्ध पड़ता है। तथा दोनों कथन प्रमाण हैं, यह वचन भी घटित नहीं होता है, क्यों कि 'एक प्रमाणको दूसरे प्रमाणका विरोधी नहीं होना चाहिए' ऐसा न्याय है। (गो. क./मू./ ३८६, ३६१) * चारित्रमोह क्षपणामें मृत्युकी संभावना-दे० मरण/३ । ४. क्षायिक भाव निर्देश १. क्षायिक मावका लक्षण स. सि./२/१/१४६/६ एवं क्षायिक । = जिस भावका प्रयोजन अर्थात कारण क्षय है वह क्षायिक भाव है। ध./१/१,१,८/१६१/१ कर्मणाम् "क्षयाक्षायिक' गुणसहचरितत्वादात्मापि गुणसंज्ञा प्रतिलभते । जो कर्मोंके क्षयसे उत्पन्न होता है उसे क्षायिक भाव कहते हैं । ...गुणके साहचर्यसे आत्मा भी गुणसंज्ञाको प्राप्त होता है । (ध.५/१,७,१/१८५/१); (गो. क./मू-1८१४)। घ.१/१,७,१०/२०६/२ कम्माणं खए जादो खइओ, खयर्छ जाओ वा खइओ भावो इदि दुविहा सद्दउप्पत्ती घेत्तत्वा। कर्मोके क्षय होनेपर उत्पन्न होनेवाला भाव क्षायिक है, तथा कर्मोके क्षयके लिए उत्पन्न हुआ भाव क्षायिक है, ऐसी दो प्रकारकी शब्द व्युत्पत्ति ग्रहण करना चाहिए। पं का./त.प्र./५६ क्षयेण युक्तः क्षायिकः । -क्षयसे युक्त वह क्षायिक है। गो. जी./जी.प्र./८/२६/१४ तस्मिन् (क्षये) भवः क्षायिकः । -ताको (क्षय ) होते जो होइ सो क्षायिक भाव है। पं.ध./उ./६६८ यथास्वं प्रत्यनीकानां कर्मणां सर्वतःक्षयात । जातो यः क्षायिको भावः शुद्धः स्वाभाविकोऽस्य सः ६६८ प्रतिपक्षी कर्मों के यथा-योग्य सर्वथा क्षयके होनेसे आत्मामें जो भाव उत्पन्न होता है वह शुद्ध स्वाभाविक क्षायिक भाव कहलाता है ।। स. सा./ता. वृ./३२०/४०८/२१ आगमभाषयौपशमिकक्षायोपश मिकक्षायिक भावत्रयं भण्यते। अध्यात्मभाषया पुनः शुद्धात्माभिमुखपरिणामः शुद्धोपयोग इत्यादि पर्यायसंज्ञा लभते । आगममें औपशमिक, क्षायोपशमिक व क्षायिक तीन भाव कहे जाते हैं । और अध्यात्म भाषामें शुद्धआत्माके अभिमुख जो परिणाम है, उसको शुद्धोपयोग आदि नामोंसे कहा जाता है। २. क्षायिक मावके भेद त. सू./२/३-४ सम्यक्त्वचारित्रे ।३। ज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोगवीर्याणि च ।४। क्षायिक भावके नौ भेद हैं-क्षायिक ज्ञान, क्षायिक दर्शन, क्षायिक दान, क्षायिक लाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र । (ध.१/१,७,१/११०/११); (न. च./३७२); (त. सा./२/६); (नि. सा./ता.व./४१); (गो.जी./मू-३००): (गो. क./मू./८१६)। ष. खं/१४/५,६/१८/१५ जो सो खइओ अविवागपच्चइयो जीवभावबंधो णाम तस्स इमो णि सो-से खीणकोहे खीणमाणे खीणमाये खोणलोहे खोणरागे खोणदोसे, खीणमोहे स्त्रीणकसायवीयरायछदुमत्थे खइयसम्मत्तं खाइय चारित्तं खड्या दाणलद्धी खड्या लाहलद्धी खश्या भोगलद्धी वइया परिभोगलद्धी खइया की रियलद्धी केवलणाणं केवलदसणं सिद्धे बुद्धे परिणिव्वुदे सम्बदुक्खाणमंतयडेत्ति जे चामण्णे एवमादिया खड्या भावा सो सब्बो खझ्यो अविवागपञ्चइयो जीवभावबंधो णाम ।१८। -जोक्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभावमन्ध है उसका निर्देश इस प्रकार है-क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणदोष, क्षीणमोह, क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ, क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानलब्धि, क्षायिक लाभलब्धि, क्षायिक भोगलन्धि, क्षायिक परिभोगलब्धि, क्षायिक वीर्य लब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्ध-बुद्ध, परिनिवृत्त, सर्वदुःख अन्तकृद, इसी प्रकार और भी जो दूसरे क्षायिक भाव होते हैं वह सम क्षायिक अविपाक-प्रत्ययिक जीवभावयन्ध है।१८ ३. नीच गतियों आदिमें शायिक भावका अभाव है ध.११,७,२८/२१/१ भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसिय-विदियादिछपुढविणेरड्य-सब्बविगलिदिय-लद्भिअपज्जत्तिस्थीवेदेस सम्मादिट्ठीणमुववादाभावा, मणुसगइवदिरित्तण्णगईसु दंसणमोहणीयस्स खवणाभावा च । -भवनवासी. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क देव, द्वितीयादि छह पृथिवियोंके नारकी, सर्व विकलेन्द्रिय, सर्व लब्ध्यपर्याप्तक, और स्त्रीवेदियों में सम्यग्दृष्टि जीवोंकी उत्पत्ति नहीं होती है, तथा मनुष्यगतिके अतिरिक्त अन्य गतियोंमें दर्शन मोहनीय कर्मको क्षपणाका अभाव है। ४. क्षायिक मावमें मी कथंचित् कर्म जनितस्व पं. का./मू./१८ कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण विजदे उवसमं वा । खइयं खोबसमियं तम्हा भाव तु कम्मकदं ।। पं. का./ता.व./५६/१०६/१० क्षायिकभावस्तु केवलज्ञानादिरूपो यद्यपि वस्तुवृत्त्या शुद्धबुद्ध कजीवस्वभावः तथापि कर्मक्षयेणोत्पन्नत्वादुपधारेण कर्मजनित एव । -१. कर्म बिना जीवको उदय, उपशम, क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक भाव नहीं होता, इसलिए भाव (चतुर्विध जीवभाव ) कर्मकृत हैं ।५८ (पं.का./त.प्र./५८) २. क्षायिकभाव तो केवलज्ञानादिरूप है। यद्यपि वस्तु वृत्तिसे शुद्ध-बुद्ध एक जीवका स्वभाव है, तथापि कर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण उपचारसे कर्मजनित कहा जाता है। ५, अन्य सम्बन्धित विषय १. अनिवृत्तिकरण आदि गुणस्थानों व संयम मार्गणामें क्षायिक भाव सम्बन्धी शंका समाधान। -दे० वह वह नाम २. क्षायिकभावमें आगम व अध्यात्मपद्धतिका प्रयोग -दे० पद्धति ३. क्षायिक भाव जीवका निज तत्व है -दे० भाव/R ४. अन्तराय कमके क्षयसे उत्पन्न भावों सम्बन्धी शंका-समाधान -दे० वह वह नाम ५. मोहोदयके अभावमें भगवान्की औदयिकी क्रियाएँ भी क्षायिकी -दे० उदय/ ६. क्षायिक सम्यग्दर्शन -दे० सम्यग्दर्शन/IVI क्षयोपशम-कर्मोके एकवेश क्षय तथा एकवेश उपशम होनेको क्षयोपशम कहते हैं। यद्यपि यहाँ कुछ कर्मोंका उदय भी विद्यमान रहता है परन्तु उसकी शक्ति अत्यन्त क्षीण हो जानेके कारण व जीवके गुणको घातनेमें समर्थ नहीं होता। पूर्ण शक्तिके साथ उदयमें न आकर, शक्ति क्षीण होकर उदयमें आना ही यहाँ क्षय या उदयाभावी क्षय कहलाता है, और सत्तावाले सर्वघाती काँका अकस्मात उदयमें नाना ही उनका सदवस्थारूप उपशम है । यद्यपि क्षीण शक्ति या देश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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