SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्रिया ऋद्धि १७५ क्रोध मूर्ख लोग जो लोकके रजायमान करनेके लिए क्रिया करते हैं उसे बाल अथवा लोक पंक्तिक्रिया कहते है। ४. २५ क्रियाओं, कषाय व अवतरूप आनवोंमें अन्तर रा. वा./६/५/१५/५१०/३२ कार्यकारणक्रियाकलापविशेषज्ञापनाथ वा ॥५॥ निमित्तनै मित्तिकविशेषज्ञापनार्थ तहि पृथगिन्द्रियादिग्रहणं क्रियते; सत्यमः स्पृशत्यादय' ध्यादय' हिनस्त्यादयश्च क्रिया आसव' इमा' पुनस्तत्प्रभवाः पञ्चविंशतिक्रिया' सत्स्वेतेषु त्रिषु प्राच्येषु परिणामेषु भवन्ति यथा मूर्छा कारणं परिग्रहं कार्य तस्मिन्सति पारिग्राहिकीक्रिया न्यासरक्षणाविनाशसंस्कारादिलक्षणा। -निमित्त नैमित्तिक भाव ज्ञापन करनेके लिए इन्द्रिय आदिका पृथक् ग्रहण क्रिया है। छूना आदि और हिंसा करना आदि क्रियाएँ आस्रव है। ये पच्चीस क्रियाएँ इन्हींसे उत्पन्न होती हैं। इनमें तोन परिणमन होते है। जैसे-मूच्र्छा-ममत्व परिणाम कारण हैं, परिग्रह कार्य हैं। इनके होने पर पारिग्राहिकी क्रिया होती है जो कि परिग्रहके संरक्षण अविनाश और संस्कारादि रूप है इत्यादि...। वादियों के अन्य नयपक्षों का निराकरण करके केवल दर्शन (श्रद्धा) से ही मुक्ति होनी कही है। गो. क./भाषा/८७८/१०६४/११ क्रियावादीनि वस्तु कू अस्तिरूप ही मानकरि क्रियाका स्थापन करें है। तहाँ आपत कहिये अपने स्वरूप चतुष्टयकी अस्ति मान है, अर परतै कहिए परचतुष्टयतै भी अस्तिरूप माने हैं। भा. पा./भाषा/१३७ पं. जयचन्द-केई तो गमन करना, बैठना, खडा रहना, खाना, पीना सोवना उपजनां, विनसना, देखना, जाननां, करना, भोगना, भूलना, याद करना, प्रीति करना, हर्ष करना, विषाद करना, द्वेष करना, जीवना, मरना इत्यादि क्रिया हैं तिनि... जोवादिक पदार्थ निकै देखि कोई केसी क्रियाका पक्ष किया है, कोई कैसी क्रियाका पक्ष किया है। ऐसे परस्पर क्रियावाद करि भेद भये है तिनिकै संक्षेप करि एक सौ अस्सी भेद निरूपण किये हैं, विस्तार किये बहुत होय है। * क्रियावादका सम्यक रूप-दे० चारित्र/६ । ५. अन्य सम्बन्धित विषय * कर्म के अर्थ में क्रिया-दे० योग । १. श्रावककी ५३ क्रियाएँ--दे० श्रावक/४। २. साधुको १० या १३ क्रियाएँ-दे० साधु /२। ३. धार्मिक क्रियाएँ- दे० धर्म/१। क्रिया ऋद्धि-क्रिया ऋद्धिके चारण व आकाशगामित्व आदि बहुत भेद हैं-दे० ऋद्धि/४। क्रियाकलाप-१. दे० कृतिकर्म । २. अमरकोषपर पं. आशाधरजी (ई. ११७३-१२४३ ) कृत टीका है (दे० आशाधर)। क्रियाकलाप ग्रन्थ-साधुओंके नित्य व नैमित्तिक प्रतिक्रमणादि क्रियाकर्म सम्बन्धी विषयोंका प्रतिपादक एक संग्रह ग्रन्थ है। यह पं. पन्नालालजो सोनोने किया है। इस ग्रन्थके प्रथम अध्यायका संग्रह तो पण्डितजी का अपना किया हुआ है और शेष संग्रह काफी प्राचीन है। सम्भवतः इसके संग्रहकर्ता पं. प्रभाचन्द हैं (ई. श. १४-१७)। उनके अनुसार इस ग्रन्थमें संगृहीत सर्वत्र प्राकृत भक्ति पाठ तो आ० कुन्दकुन्दके हैं और संस्कृत भक्ति पाठ आ० पूज्यपादके हैं। शेष भक्तिये भो वि. १४ वी शताब्दोके पूर्व कभो लिखी गयी हैं। (स. सि./प्र.८८/पं. फूलचन्द्र )। क्रियाकांड-दे० कृतिकर्म ।। क्रियाकोश-१५० किशन सिंह (ई. १७२७ कृत २६०० हिन्दी छन्दबद्ध तथा २.५० दौलतराम (ई०१७३८) कृत हिन्दी छन्दबद्ध श्रावक-क्रिया प्रतिपादक ग्रथ । (ती./४/२८०, २८२)। क्रिया नय-दे० नय/I/५ । क्रिया मंत्र-दे० मंत्र/९/६,७ । क्रियावाद-1. क्रियावादका मिथ्या रूप रा. वा./भूमिका/६/२/२२ अपर आहुः-क्रियात एव मोक्ष इति नित्यकर्म हेतुकं निर्वाणमिति वचनात् । कोई क्रियासे हो मोक्ष मानते हैं। क्रियावादियोंका कथन है कि नित्य कर्म करनेसे ही निर्वाणको प्राप्त होता है। भा.पा./टो /१३५/२८३/१५ अशोत्यग्रं शतं क्रियावादिना श्राद्धादिक्रियामन्यमानानां ब्राह्मणानां भवति । क्रियावादियों के १८० भेद हैं। वे श्राद्ध आदि क्रियाओंको माननेवाले ब्राह्मणोंके होते है। ज्ञा./४/२५ केश्चिञ्च कीर्तिता मुक्तिदर्शनादेव केवलम् । वादिना खलु सर्वेषामपाकृत्य नयान्तरम् ।२४।-और कई वादियों ने अन्य समस्त २. क्रियावादियोंके १८० भेद रा.वा./१/२०/१२/७४/३ कौत्कल-काणेविद्धि-कौशिक-हरिस्मश्रु-मांछपिकरोमश-हारीत-मुण्डाश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम् । -कौत्कल, काणेविद्धि, कौशिक, हरिस्मश्रु, मांछपिक, रोमश, हारीत, मुण्ड, आश्वलायन आदि क्रियावादियोके १८० भेद है । (रा. वा./८/१/६/५६२/२); (घ.६/४,१,४५/२०३/२); (गो.जी./जी.प्र./ ३६०/७७०/११) ह पु/१०/४8-११ नियतिश्च स्वभावश्च कालो देवं च पौरुषम् । पदार्था नव जीवाद्या स्वपरौ नित्यतापरौ ।४६। पञ्चभिनियतिष्टैश्चतुर्भि. स्वपरादिभिः । एकैकस्यात्र जीवादेोगेऽशीत्युत्तर शतम् ।१०। नियत्यास्ति स्वतो जाव. परतो नित्यतोऽन्यत.। स्वभावारकालतो देवात पौरुषाच्च तथेतरे ॥ (अस्ति) (स्वत'. परतः, 'नित्य, अनित्य )। (जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्य, संवर, निर्जरा, मोक्ष), ( काल, ईश्वर, आत्म, नियति, स्वभाव ), इनमें पदनिके बदलनेतें अक्ष संचार करि १xxxEx५ के परस्पर गुणनरूप १८० क्रियावादिनि के भंग है। (गो.क./मू./८७७) । क्रियाविशाल-द्रव्य श्रुतज्ञानका २२वाँ पूर्व-दे० श्रुतज्ञान/III क्रिस्तो संवत्-दे० इतिहास/२। क्रीडापवंत-तुलसी स्याम नामक पर्वतको लोग श्रीकृष्णका क्रीड़ा पर्वत कहते हैं। इसपर रूठी रुक्मिणीकी मूर्ति बनी हुई है । (नेमि चरित प्रस्तावना-प्रेमीजी)। क्रांत-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/2। २. वस्तिकाका __ एक दोष-दे० वस्तिका। क्रोध-१. आहारका एक दोष-दे० आहार/II/४। २. बस्तिकाका एक दोष-दे० वस्तिका। क्रोध-१. क्रोधका लक्षण रा.वा.//६/५/५७४/२८ स्वपरोपघातनिरनुग्रहाहितक्रौर्यपरिणामोऽमर्षः क्रोधः। स च चतुःप्रकारः-पर्वत-पृथ्वी-बालुका-उदकराजितुल्यः । =अपने और परके उपघात या अनुपकार आदि करनेके क्रूर परिणाम क्रोध हैं । वह पर्वतरेखा, पृथ्वीरेखा, धूलिरेखा और जलरेखाके समान चार प्रकारका है। ध ६/१,६,१,२३/४१/४ क्रोधो रोष. संरम्भ इत्यनर्थान्तरम् । क्रोध, रोष और संरम्भ इनके अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। (ध.१/१,१, १११/३४६/६) ध. १२/४,२,८,८/२८३/६ हृदयदाहाङ्गकम्पाक्षिरागेन्द्रियापाटवादि निमित्तजीवपरिणामः क्रोधः। = हृदयदाह, अंगकम्प, नेत्ररक्तता और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy