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________________ केवलज्ञान १५३ ६. केवलज्ञानका स्वपर-प्रकाशकपना प्र. सा./त. प्र/३२ अपं रखत्वात्मा स्वभावत एव परद्रव्यग्रहणमोक्षण परिणमनाभावात्स्वतत्त्वभूतकेवलज्ञानस्वरूपेण विपरिणम्य समस्तमेव नि शेषतयात्मानमात्मनात्मनि संचेतयते। अथवा युगपदेव सर्वार्थसार्थसाक्षात्करणेन ज्ञप्तिपरिवर्तनाभावात् संभाषितग्रहणमोक्षणक्रियाविराम....विश्वमशेष पश्यति जानाति च एवमस्यात्यन्तविविक्तत्वमेव । यह आत्मा स्वभावसे ही परद्रव्योंके ग्रहण-त्यागका तथा परद्रव्यरूपसे परिणमित होनेका अभाव होनेसे स्वतत्त्वभूत केवलज्ञानरूपसे परिणमित होकर, निशेषरूपसे परिपूर्ण आत्माको आत्मासे आत्मामे संचेतता जानता अनुभव करता है। अथवा एक साथ ही सर्व पदार्थोके समूहका साक्षात्कार करनेसे ज्ञप्तिपरिवर्तनका अभाव होनेसे जिसके ग्रहणत्यागरूप क्रिया विरामको प्राप्त हुई है, सर्वप्रकारसे अशेष विश्वको देखता जानता ही है। इस प्रकार उसका अत्यन्त भिन्नत्व ही है । भावार्थ-केवली भगवान् सर्वात्म प्रदेशोंसे अपनेको ही अनुभव करते रहते है, इस प्रकार वे परद्रव्योसे सर्वथा भिन्न है। अथवा केवलीभगवान्को सर्व पदार्थीका युगपत् ज्ञान होता है। उनका ज्ञान एक शेयको छोड़कर किसी अन्य विवक्षित ज्ञेयाकारको जाननेके लिए भी नहीं जाता है, इस प्रकार भी वे परसे सर्वथा भिन्न है। प्र. सा./ता. वृ/३७/५०/१६ अयं केवली भगवान् परद्रव्यपर्यायान् परिच्छित्तिमात्रेण जानाति न च तन्मयत्वेन, निश्चयेन तु केवलज्ञानादिगुणाधारभूतं स्वकीयसिद्धपर्यायमेव स्वसंवित्त्याकारेण तन्मयो भूत्वा परिच्छिनत्ति जानाति। यह केवली भगवान परद्रव्य व उनकी पर्यायोंको परिच्छित्ति ( प्रतिभास) मात्रसे जानते है: तन्मयरूपसे नहीं। परन्तु निश्चयसे तो वे केवलज्ञानादि गुणोंके आधारभूत स्वकीय सिद्धपर्यायको हो स्वसवित्तिरूप आकारसे अर्थात् स्वसंवेदन ज्ञानसे तन्मय होकर जानता है या अनुभव करता है । स. सा /ता. वृ/३५६-३६५ श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन ज्ञानात्मा घटपटादिज्ञेयपदार्थस्य निश्चयेन ज्ञायको न भवति तन्मयो न भवतीत्यर्थः तहि किं भवति । ज्ञायको ज्ञायक एव स्वरूपे तिष्ठतीत्यर्थः । तथा तेन श्वेतमृत्तिकादृष्टान्तेन परद्रव्यं घटादिकं ज्ञेयं वस्तुव्यवहारेण जान ति न च परद्रव्येण सह तन्मयो भवति । = जिस प्रकार खडिया दीवार रूप नहीं होती बल्कि दीवार के बाह्य भागमें ही ठहरती है इसी प्रकार ज्ञानात्मा घट पट आदि शेयपदार्थों का निश्चयसे ज्ञायक नहीं होता अर्थात उनके साथ तन्मय नहीं होता, ज्ञायक ज्ञायकरूप ही रहता है। जिस प्रकार खडिया दीवारसे तन्मय न होकर भी उसे श्वेत करती है, इसी प्रकार वह ज्ञानात्मा घट पट आदि परद्रव्यरूप ज्ञयवस्तुओंको व्यवहारसे जानता है पर उनके साथ तन्मय नहीं होता। प.प्र./टी/१/५२/५०/१० कश्चिदाह। यदि व्यवहारेण लोकालोक जानाति तहि व्यवहारनयेन सर्वज्ञत्व, न च निश्चयनयेनेति। परिहारमाह-यथा स्वकीयमात्मानं तन्मयत्वेन जानाति तथा परद्रव्य तन्मयत्वेन न जानाति, तेन कारणेन व्यवहारो भण्यते न च परिज्ञानाभावात् । यदि पुननिश्चयेन स्वद्रव्यवत्तन्मयो भूत्वा परद्रव्यं जानाति तर्हि परकीयमुखदुःख रागद्वेषपरिज्ञातो सुखी दुखी रागी द्वेषी च स्यादिति महदूषण प्राप्नोतीति । - प्रश्न-यदि केवली भगवान व्यवहारनयसे लोकालोकको जानते है तो व्यवहारनयसे ही उन्हें सर्वज्ञत्व भी होओ परन्तु निश्चयनयसे नहीं ! उत्तर-जिस प्रकार तन्मय होकर स्वकीय आश्माको जानते हैं उसी प्रकार परद्रव्यको तन्मय होकर नहीं जानते, इस कारण व्यवहार कहा गया है. न कि उनके परिज्ञानका ही अभाव होनेके कारण। यदि स्त्र द्रव्यको भाँति परद्रव्यको भी निश्चयसे तन्मय होकर जानते तो परकीय सुख व दुःखको जाननेसे स्वयं सुखी दुःखी और परकीय रागद्वेषको जाननेसे स्वयं रागी द्वेषी हो गये होते। और इस प्रकार महत दूषण प्राप्त होता । (प. प्र/टी./११/१९) और भी दे० मोक्ष/६ व हिंसा/४/५ में इसी प्रकारका शंका-समाधान ) । ३. आत्मा ज्ञेयके साथ नहीं पर ज्ञेयाकारके साथ तन्मय होता है रा. वा./१/१०/१०/५०/१६ यदि यथा बाह्य प्रमेयाकारात् प्रमाणमन्यत् तथाभ्यन्तरप्रमेयाकारादप्यन्यत् स्यात्, अनवस्थास्य स्यात ।१०. स्यादन्यत्वं स्यादनन्यत्वमित्यादि। संज्ञालक्षणादिभेदात स्यादन्यत्वम्. व्यतिरेकेणानुपलब्धेः स्यादनन्यत्वमित्यादि ।१३। -जिसप्रकार बाह्य प्रमेयाकारोसे प्रमाण जुदा है, उसी तरह यदि अन्तरंग प्रमेयाकारसे भी वह जुदा हो तब तो अनवस्था दोष आना ठीक है, परन्तु इनमें तो कथंचित् अन्यत्व और कथंचित् अनन्यत्व है। संज्ञा लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा अन्यत्व है और पृथक् पृथक रूपसे अनुपलब्धि होने के कारण इनमें अनन्यत्व है । (प्र.सा./त प्र./३६) । प्र.सा/त. प्र/२६,३१ यथा चक्षु रूपिद्रव्याणि स्वप्रदेशरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसारकुर्वन्न चाप्रविष्टं जानाति पश्यति च, एवमारमापि. ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तूनि स्वप्रदेशैरसंस्पृशन्न प्रविष्टः समस्तज्ञ याकारानुन्मूल्य इव कलयन्न चाप्रविष्टो जानाति पश्यति च। एवमस्य विचित्रशक्तियोगिनो ज्ञानिनोऽर्थेष्वप्रदेश इव प्रवेशोऽपि सिद्धिमवतरति ।२६...यदि खलु.. सर्वा न प्रतिभान्ति ज्ञाने तदा तन्न सर्वगतमभ्युपगम्येत । अभ्युपगम्येत वा सर्वगतम् । तहि साक्षात् संवेदनमुकुरुन्दभूमिकावतीर्ण प्रतिबिम्बस्थानीयस्वसवेद्याकारणानि परम्परया प्रतिबिम्बस्थानीयसंवेद्याकारकारणानीति कथं न ज्ञानस्थायिनोऽर्था निश्चीयन्ते। =जिस प्रकार चक्षु रूपीद्रव्योंको स्वप्रदेशोंके द्वारा अस्पर्श करता हुआ अप्रविष्ट रहकर ( उन्हे जानता देखता है), तथा ज्ञयाकारोको आत्मसात्कार करता हुआ अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है, उसी प्रकार आत्मा भी ज्ञयभूत समस्त वस्तुओंको स्वप्रदेशोंसे अस्पर्श करता है, इसलिए अप्रविष्ट रहकर ( उनको जानता देखता है ), तथा वस्तुओमें वर्तते हुए समस्त ज्ञयाकारोको मानो मूल मेसे ही उखाडकर ग्रास कर लिया हो, ऐसे अप्रविष्ट न रहकर जानता देखता है । इस प्रकार इस विचित्र शक्तिवाले आत्माके पदार्थमे अप्रवेशकी भाँति प्रवेश भी सिद्ध होता है ।२१। यदि समस्त पदार्थ ज्ञानमें प्रतिभासित न हो तो वह ज्ञान सर्वगत नही माना जाता। और यदि वह सर्वगत माना जाय तो फिर साक्षात् ज्ञानदर्पण भूमिकामे अवतरित बिम्बकी भाँति अपने अपने ज्ञयाकारोके कारण ( होनेसे), और परम्परासे प्रतिबिम्बके समान ज्ञयाकारों के कारण होनेसे पदार्थ कैसे ज्ञानस्थित निश्चित नहीं होते।३१। (प्र./सा/त प्र/३६ ) (प्र. सा./पं. जयचन्द/१७४) ४. आत्मा ज्ञेयरूप नहीं पर शेयके आकार रूप अवश्य परिणमन करता है स. सा/आ./४६ सकलज्ञ यज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाद्रसपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वय रसरूपेणापरिणमनाच्चारस - (उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परन्तु ) सकल ज्ञ यज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे रसके ज्ञानरूपमें परिणमित होनेपर भी स्वयं रस रूप परिणमित नहीं होता, इसलिए (आत्मा) अरस है। ५ ज्ञानाकार व ज्ञेयाकार का अर्थ रा. बा./१/६/५/२४/२६ अथवा, चेतन्यशक्तावाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञयाकारश्च । अनुपयुक्तप्रतिबिम्बाकारादर्शतलवत् ज्ञानाकार', प्रतिबिम्बाकारपरिणतादर्शतलवत् ज्ञयाकार' । = चैतन्य शक्तिके दो आकार है ज्ञानाकार और ज्ञ याकार । तहां प्रतिबिम्बशून्य दर्पणतलबत् तो ज्ञानाकार है और प्रतिबिम्ब सहित दर्पणतलवत ज्ञयाकार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश भा०२-२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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